5 फरवरी 1916 में गया (बिहार) के मैगरा ग्राम में जन्मे छायावाद काल के सुविख्यात कवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री उन कवियों में से हैं जिन्हें कविता प्रेमियों ने काफ़ी सराहा।
शुरुआत में उन्होंने संस्कृत में कविताएं लिखीं। फिर महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी में आए। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री कहा करते थे कि उनकी और निराला की प्रसिद्ध कविता 'जुही की कली' का जन्म एक ही वर्ष हुआ, यानी 1916 में। निराला ही उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं। वह छायावाद का युग था। छंदों पर उनकी पकड़ जबरदस्त थी और अर्थ इतने सहज ढंग से उनकी कविता में आता थे कि इस दृष्टि से पूरी सदी में केवल वे ही निराला की ऊंचाई को छू पाए।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला शास्त्री जी को दिनकर के बराबर का कवि मानते थे। वर्ष 1936 में निराला ने एक पत्र में शास्त्री जी से कहा कि आप बिहार के कवियों में दिनकर के समकक्ष ठहरते हैं। यह भी संकेत किया कि इस पत्र की चर्चा कहीं और मत कीजिएगा। "तुमको मैं दिनकर के मुकाबले खड़ा करूंगा और देखता हूं कि तुम्हें कौन रोक सकता है।" बिहार के मुजफ्फरपुर में गरीबी में अपने जीवन की शुरुआत करने वाले शास्त्री जी को कहा गया कि "जाओ बीएचयू से शास्त्री की उपाधि लेकर आओ तभी भाग्योदय होगा।" बीएचयू में हिन्दी विभाग के आचार्य व कवि श्रीप्रकाश शुक्ल बताते हैं कि उस समय शास्त्री की उपाधि लेने में लोग जीवन के 36 बरस पार कर जाते थे। मगर, शास्त्री जी ने महज 18 वर्ष में बीएचयू में संस्कृत विभाग से आचार्य की उपाधि ले ली थी।
उत्तर प्रदेश सरकार के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित वल्लभ शास्त्री ने मुजफ्फरपुर शहर को अपना स्थायी निवास बनाया। काशी से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्हें मुजफ्फरपुर के गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर स्थायी नियुक्ति मिल गई थी। इसके बाद वह रामदयालु सिंह कॉलेज में संस्कृत के साथ हिंदी के भी प्राध्यापक बनाए गए। जब उन्हें उस शहर के रेड लाइट एरिया चतुर्भुज में ज़मीन का एक टुकड़ा दिया गया, तो उन्होंने ज़माने की छींटाकशी का डर छोड़कर वहां अपना मकान बनाया।
जानकी बल्लभ शास्त्री ने एक इंटरव्यू में बताया था कि 'किसने बांसुरी बजाई' की लोकप्रियता को सुनने के बाद पृथ्वीराज मुंबई से ख़ुद उनसे मिलने आए थे। यही नहीं उन्होंने पृथ्वीराज की याद में अपने घर के उस कमरे का नाम भी पृथ्वीराज रख दिया। उन्होंने निराला जी से अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में बताया था कि जब मैंने महज 18 साल की उम्र में आचार्य की डिग्री हासिल कर ली और ये ख़बर जब अखबारों में छपी तो लखनऊ से निराला जी ढूंढते हुए बनारस पहुंचे और उनसे मिलें। उन्हीं से प्रभावित होकर उन्होंने अपने घर का नाम भी 'निराला निकेतन' रखा।
उनकी प्रमुख कृतियों में 'रूप-अरूप, 'तीर तरंग, 'शिवा, 'मेघ-गीत, 'अवंतिका, 'कानन, 'अर्पण आदि इनके मुख्य काव्य संग्रह हैं। जानकी बल्लभ को कई उपाधियों से सम्मानित किया गया, जिनमें साहित्य वाचस्पति, 'विद्यासागर, 'काव्य-धुरीण तथा 'साहित्य मनीषी आदि हैं। इसके अलावा सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित करना चाहा, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया।
दरअसल, शास्त्रीजी चाहते थे कि पद्मश्री की जगह उन्हें पद्मविभूषण दिया जाना चाहिए। इसलिए जब जिलाधिकारी उन्हें पद्मश्री दिए जाने की ‘खुशखबरी’ देने गया, तो उन्होंने उसे डांट कर भगा दिया। शास्त्री जी की खुद्दारी उनके जीवन की कंटीली झाड़ियों की उपज है। एक गीत में उन्होंने स्वयं कहा है, ‘अहंकार मेरा चिरायु हो, कल्याणी प्रतिभा हो मेरी।’
हिंदी के समीक्षकों ने भी उनके विशाल कर्तृत्व का कभी उचित मूल्यांकन नहीं किया। दरअसल, शास्त्री जी जितने बड़े कवि हिंदी के थे, उतने ही बड़े संस्कृत के कवि भी थे। आचार्य शास्त्री की कविताएं भारत के सनातन मूल्यों को पुनर्स्थापित करती हैं। वे अंधविश्वासों के अंधकार को चीरती हुई प्रकाशस्तम्भ का कार्य करती हैं। शास्त्री जी की काव्यभाषा अपने विश्वास पर अटल है।
"ज़िंदगी की कहानी रही अनकही
दिन गुज़रते गए, सांस चलती रही
वेदना अश्रु पानी बनी, बह गई
धूप तपती रही, छांह चलती रही।"
शास्त्री जी के कुछ गीत इस बात में अनोखे हैं कि वे गीत धर्म का निर्वाह करते हुए और गीत की कोमलता को साधते हुए अपने समय का व्यंग्य बड़े सहज ढंग से अभिव्यक्त कर जाते हैं। आज स्थिति यह है कि वे लोग जो जीवन-मूल्यों को धता बताते हैं, हमारे समाज के निर्देशक बने बैठे हैं, जिनके कार्य देखकर शर्म आती है, वे ही उपदेश दे रहे हैं, जिनका अहंकार सातवें आसमान पर है, वे शील और विनय को परिभाषित कर रहे हैं -
"कुपथ पथ दौड़ता जो, पथ निर्देशक वह है
लाज लजाती जिसकी कृति से, धृति उपदेशक वह है
मूर्त दंभ गढने उठता है, शील विनय परिभाषा
मृत्यु रक्त मुख से देता, जन को जीवन की आशा ...
जनता धरती पर बैठी है, वह मंच पर खड़ा है
जो जितना दूर मही से, उतना वही बड़ा है।"
उनके साथ एक दिलचस्प बात यह थी कि वे बहुत बड़े पशुपालक थे। उनके यहां दर्जनों गायें, सांड, बछड़े तथा बिल्लियां और कुत्ते थे। पशुओं से उन्हें इतना प्रेम था कि गाय क्या, बछड़ों को भी बेचते नहीं थे। पशुओं के मरने पर उन्हें वे अपने आवास के परिसर में ही दफन करते थे। उनका दाना-पानी जुटाने में वह हमेशा फिक्रमंद रहते थे। वे जीवों के प्रति बहुत संवेदनशील थे। इस प्रेम के लिए वे खुद को पागल की भी संज्ञा देते थे।
7 अप्रैल, 2011 को उन्होंने अपने घर पर अंतिम सांस ली। अगले दिन पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार किया गया। लेकिन आज भी लगता है कि शास्त्रीजी ने मृत्यु को नहीं प्राप्त किया है बल्कि निराला ने जो एक गीत में कहा है कि 'कौन तम के पार?- (रे, कह)', वे उसी का अनुसंधान करने इस मायारूपी अंधकार के पार गए हैं।