विम्मी अभिनेत्री
जब से हिंदी सिनेमा जगत की नीवें पड़ी है तब से इस मायानगरी के गर्भ में कई कई रहस्य और कहानियों ने जन्म लिया है और कालांतर में वो कहानियां दफ्न भी होती रही है. विमी की कहानी भी उन्ही में से है. विमी कौन?? विमी है बॉलीवुड की साठ और सत्तर के दशक की वो हिरोइन जिसका चेहरा किसी पत्थर की सुंदर मूर्ति की तरह तराशा हुआ था, और जिसकी आँखों में हमेशा दुनिया भर का दर्द सिमटा रहता था, जिसे देख कर ऐसा महसूस होता था कि जैसे उसका चेहरा गम सहते सहते पत्थर की तरह भाव शून्य हो गया है. शायद इसलिए उसपर फ़िल्म, 'हमराज़' का वो गीत फिल्माया गया था, 'किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है, परशतिश की तमन्ना है, इबादत का इरादा है.'
प्रत्येक टुकड़ा एक स्मृति है, जो उस अतीत को प्रतिबिंबित करता है जो कभी अविश्वसनीय रूप से ज्वलंत हुआ करता था. सुनील दत्त के साथ उनकी पहली फिल्म' हमराज ', विमी का एक सुनहरा सपना था. इस फ़िल्म में सुनील दत्त का विमी के साथ "ना मुँह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो, गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा कीजिए जियो" गीत एक कलजेयी गीत की तरह आज भी याद किया जाता है. उसमें विमी की मंत्रमुग्ध कर देने वाली मूक चेहरे की भाषा ने उस दौर के फ़िल्म दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था. पर कौन थी यह रहस्यमयी स्त्री विमी, जिसने शादीशुदा और दो बच्चों की माँ होने के बावजूद एक नयी नवेली फ्रेश लड़की की तरह बॉलीवुड में कदम रखा और बरसों तक उनके चहेते फैंस इस गलतफहमी में रहे कि विमी अनमैरिड है. थोड़ा पीछे चलकर उनके जीवन में झाँकते हैं. दरअसल 1943 को जन्मी विमी, एक साधारण पंजाबी सिख परिवार की लड़की थी. उनके माता पिता टीचिंग लाइन में थे. लेकिन विमी बेहद खूबसूरत होने की वजह से बहुत महत्वाकांक्षी थी. सुंदर लड़कियों को अपना बनाने के लिए अमीर मर्दों की कमी नहीं होती है. विमी से शादी करने के लिए लड़कों की लाइन लगी रहती थी और उन्ही में से एक था कोलकाता स्थित अमीर मारवाड़ी घराने के शिव अग्रवाल जो एक उद्योगपति के बेटे थे.
विमी और शिव अपने अपने परिवार के खिलाफ जाकर विवाह बंधन में बंध गए. शिव का रूढ़िवादी परिवार ने बहुत बेमन से विमी को स्वीकारा. कुछ वर्षों में उनके दो बच्चे हुए, बेटा रजनीश और बेटी शोना. अमीर और रसूखदार परिवार के यह बेटे बहू, शिव और विमी को अक्सर कोलकाता के बड़े बड़े पार्टियों में जाना होता था. उन्ही पार्टियों में से एक सभा में प्रसिद्ध संगीत निर्देशक रवि शामिल थे. वही शिव और विमी के साथ रवि की मुलाकात हो गई और बातों बातों में उनकी दोस्ती भी हो गई. तब संगीतकार रवि को याद आया कि उनके मित्र मशहूर फिल्म मेकर बीआर चोपड़ा अपनी नई फ़िल्म हमराज के लिए एकदम फ्रेश चेहरा ढूंढ रहे हैं. रवि ने कुछ सोचकर शिव और विमी को मुंबई आने का निमंत्रण दिया. बॉम्बे जैसे शहर में भला कौन आना न चाहेगा? पति पत्नी दोनों कुछ ही दिनों में बॉम्बे आ गए. रवि ने दोनों की मुलाकात बीआर चोपड़ा से करवाई. बी आर चोपड़ा को विमी की रहस्यमय आँखे और पथरीली भावहीन चेहरा अपनी फ़िल्म हमराज के लिए एकदम परफेक्ट लगा. जिसके कारण विमी को उन्होने, 'हमराज़' में तुरंत साइन कर लिया. ये वर्ष था 1967 और फिर जो हुआ उसकी कल्पना न बी आर चोपड़ा ने की थी, ना शिव अग्रवाल ने किया और न ही विमी ने सोचा था. फिल्म 'हमराज' सुपर डुपर हिट हो गई और रातों-रात विमी सुपर स्टार की गद्दी पर बैठ गई. विमी के दरवाजे पर निर्माता निर्देशकों की लाइन लग गई और विमी ने रातोंरात कई फिल्में साइन कर ली. उस जमाने में वो एक फ़िल्म के लिए तीन लाख रुपये लेने लगी थी. विमी की तस्वीर उस समय की सबसे प्रतिष्ठित फिल्म पत्र पत्रिकाओं में छपने लगी, जिसमें मायापुरी पत्रिका भी थी. यह उस जमाने में बॉलीवुड स्टार्स के लिए एक बहुत बड़ी बात हुआ करती थी. विमी पर बॉलीवुड सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गीत फिल्माए गए थे , जैसे, "तुम अगर,साथ देने का वादा करो" - हमराज़ (1967) "ना मुँह छुपाके जियो" - हमराज़ (1967) "नीले गगन के तले" - हमराज़ (1967) "किसी पत्थर की मूरत से" - हमराज़ (1967) "आप से प्यार हुआ" - आबरू (1968) "जिन्हें हम भूलना चाहे" - आबरू (1968) "थोड़ा रुक जाएगी तो तेरा क्या जाएगा" - पतंगा(1971).
देखते ही देखते विमी की शोहरत उनके ससुराल वालों तक पहुँची और फिर हंगामा मच गया. विमी के ससुराल वालों को अपनी बहू का इस तरह से टाइट, बोल्ड, बॉडी हगिंग कपड़े पहनकर नाचना गाना, और सिनेमा के नायकों के साथ चिपक चिपक कर प्यार के दृश्य देना बिलकुल गवारा नहीं हुआ और उन्होंने अपने बेटे बहु से सारे रिश्ते तोड़ लिए. फिल्मों में अभिनय करने को लेकर हालाँकि शिव को कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन उसने पत्नी के करियर की नकेल अपने हाथों में ले रखी थी. दिन पर दिन विमी के फिल्मों में उसकी बहुत ज्यादा दखलअंदाजी के कारण निर्माता निर्देशक परेशान रहने लगे. बी आर चोपड़ा, जो अक्सर अपनी फिल्मों की नायिकाओं को बार बार अपनी फिल्मों में रिपीट करने के लिए जाने जाते थे, उन्होने भी विमी को दोबारा अपनी फ़िल्म में नहीं लिया. बदकिस्मती से विमी ने अपने करियर की शुरुआत में जो चार पाँच फिल्में की थी (हमराज़ (1967), आबरू (1968) नानक नाम का जहाज़ है (1969) पंतगा (1971), कहीं आर कहीं पार(1971), वचन (1974). वो भी एक के बाद एक बुरी तरह फ्लॉप हो गई. लेकिन तब तक विमी के पास गाड़ी बंगला हीरे के गहने सब हो गए थे. परंतु कहावत है ना कि अगर कमाते ना रहा जाए तो कुबेर का धन भी खत्म हो जाता है. विमी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. फिल्म हमराज के बाद वह अपने भावशुन्य चेहरे के साथ किसी भी अन्य फ़िल्म में टिक नहीं सकी. तब तक साधना, बबीता, शर्मिला टैगोर, राखी, मुमताज़ ने बॉलीवुड में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी. विमी अपने अभिनय पर ध्यान ना देकर सिर्फ अपने कपड़ों, मेकअप, बनने संवरने में लिप्त रहती थी. धीरे धीरे उसका करियर ढलान पर फिसलने लगा.
विलासिता का जीवन जीने की आदत होने से पैसे खतम होने लगे और पति पत्नी के बीच झगड़े शुरू हो गए. झगड़े इतने बढ़ने लगे कि तलाक की नौबत आ गई. बच्चे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहे थे और पति भी तलाक लेकर वापस अपने परिवार के पास कोलकाता चले गए. रह गई विमी अकेली. अपने अकेलेपन से उबकर विमी शराब पीने लगी. जब स्त्री अकेली हो जाती है तो लूटने वाले गिद्धों से घिर जाती है. ऐसे ही समय में विमी से एक जॉली नाम के फ़िल्म निर्माता या कहें ब्रोकर की दोस्ती हो गई, दोस्ती प्यार में बदलते देर नहीं लगी. दोनों साथ रहने लगे. लेकिन जॉली को विमी से प्यार नहीं था. वो सिर्फ़ लूटने आया था, विमी का तन मन का शोषण करने आया था. धीरे धीरे विमी के सारे पैसे खतम होने लगे. विमी ने कलकत्ता में अपना खुद का एक कपड़ा व्यवसाय शुरू करने की कोशिश की थी जिसका नाम था 'विमी टेक्सटाइल' लेकिन वह भी असफल रही और 30 की उम्र में ही वह दिवालिया हो गईं. अब विमी के पास ना कोई फ़िल्म थी ना कोई काम. कभी कभार कोई फोटो शूट के पैसे मिल जाते.
वह अपने नए रिश्ते के अंधेरे में डूब गई और पाया कि उसका बेरहमी से शोषण किया जा रहा था, पैसे के लिए उसे देह व्यापार करने पर मजबूर किया जा रहा था. फ़िल्म इंडस्ट्री की टॉप स्टार अब एक अंधेरी दुनिया में खोने लगी. शराब उसके लिए सांत्वना बन गई. जो स्टार कभी चाँद की तरह सितारों के बीच नाचती थी, वह एक काली रात की छाया बन कर रह गई. वो चंद रुपयों के खातिर सस्ते बारों में पेश होती रही. उस मुश्किल घड़ी में उसके सारे दोस्त मृगतृष्णा की तरह गायब हो गए. कर्ज चुकाने के लिए बंगला, कार, सब बिक गए. शराब की लत ने उसे जकड़ के रखा था, पैसों की भारी किल्लत की वजह से, महंगे, विदेशी शराब वो खरीद नहीं पाती थी तो सस्ते, गंदे, झोपड़ों में बनने वाले देसी शराब पीने लगी और धीरे धीरे लिवर सिरहॉसिस की बीमारी ने उन्हे खोखला कर दिया.
22 अगस्त 1977 की एक उदास, बादलों से ढके, उमस से घिरी दोपहर को, 'तुम अगर साथ देने का वादा करो ' से दिल जीतने वाली यह मशहूर नायिका ने अपनी भूली हुई धुनों को अपने दिल की सुनसान सन्नाटे में दबा दिया. क्या उसने आत्महत्या करने की कोशिश की थी? या कोई उसे तिल तिल करके मार रहा था, यह राज आज तक कोई नहीं जान सका. विमी ने अपनी आखिरी सांस, गूंज चैरिटी स्टेशन मुंबई में ली. उनके अंतिम साँस लेने के समय, उनका हाथ पकड़े रहने वाला कोई नहीं था. ना माता पिता, ना भाई बहन, ना पति, ना बेटा, ना बेटी, ना कोई रिश्तेदार, ना कोई दोस्त, ना सहेली, ना कोई अपना, ना कोई फैन. उनके शव को सम्मान देने वाला कोई इंसान नहीं था. बहुत इंतजार के बाद आखिर म्युनिसिपालिटी वालों ने विमी के शव को एक ठेले में लादकर श्मशान ले गए. यह उस जीवन का अंतिम क्रूर अंत था जो इतने वादों के साथ शुरू हुआ था. विमी के जीवन की अर्श से फर्श तक की कहानी, एक क्षणभंगुर धधकती लौ जैसी थी जो बॉलीवुड की सबसे क्रूर छाया में लुप्त होने से पहले चमकी और बुझ गई . विमी की कहानी सिर्फ एक त्रासदी नहीं है, बल्कि बॉलीवुड के अंधेरी गलियों से एक भयानक चेतावनी भरी कहानी है. यह कहानी हम सबको याद दिलाती है कि सबसे चोटी का सितारा भी एक उल्का पिंड की तरह टूट कर गिर सकता हैं, और वो गिरना हृदयविदारक और पूरी तरह से अकेले होता हैं. यह एक स्पष्ट संकेत है कि प्रसिद्धि का चक्र रेगिस्तानी हवा की तरह मनमौजी, क्रूर और अक्षम्य हो सकता है, 32 वर्ष की छोटी उम्र में विमी का असामयिक पतन आज भी एक मूक रहस्य बन कर बॉलीवुड के गर्भ गृह में दफ्न है.