नूतन का जब जन्म हुआ था, तब नूतन शाम के 5 बजे से सुबह 5 बजे तक लगातार रोया करती थी। इस बारे में नूतन के माता-पिता ने जब डॉक्टरों से बात कि तो उन्होंने नूतन को एक दम दुरुस्त बताया। लेकिन, एक ज्योतिषी ने उनकी मां और अभिनेता शोभना समर्थ को बताया था कि वह एक पवित्र आत्मा है (Pure Soul), जो पुनर्जन्म नहीं लेना चाहती थी। लेकिन कुछ अधूरा रह गया था ... ” ये बात शोभना ने दिवंगत लेखिका ललिता तम्हाने को बताई थी, जिन्होंने नूतन पर किताब लिखी है, जिसका नाम "Asen Mi... Nasen Mi" (मैं हूं या नहीं)
नूतन ने शायद वही से फिर शुरु किया, जहां से वो छोड़ आई थी। यह एक सरल तरीके से, उस सहजता को बताता है, जिसके साथ नूतन जटिल चरित्र और क्रोध और पीड़ा का एक्ट किया करती थी। पछतावा करती थी, हर तरह का एक्ट कर वो एक भावनात्मक किरदार कर सकती थी।
नूतन का जन्म 4 जून 1936 को एक मराठी चंद्रसेनिया कायस्थ प्रभु परिवार में हुआ था। वो निर्देशक-कवि कुमारसेन समर्थ और प्रसिद्ध अभिनेत्री शोभना के घर जन्मी थी, वह अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं (अन्य तीनों में बहनें तनूजा और चतुरा और भाई जयदीप है)। जब नूतन बड़ी हुई, तो उनके माता-पिता अलग हो गए। शोभना ने नूतन को फिल्म हमारी बेटी (1950) में लॉन्च किया था। इसके बाद उन्होंने हम लॉग (1951) और नगीना (1951) जैसी फिल्में भी की। हालांकि, सौंदर्य की प्रतियोगिता की विजेता रही नूतन को बॉलीवुड के लिए शरीर से पतला माना गाया और कुछ काम नहीं दिया गया । इसलिए शोभना ने उन्हें 1953 में स्विस फ़िनिशिंग स्कूल, ला चेटेलाइन में भेज दिया था। जब नूतन वहां से लौटी तो उन्होंने अतिरिक्त 40 पाउंड वजन बढ़ा लिया था और बॉलीवुड में अच्छी तरह से शुरुआत की।
दिल्ली का ठग उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फिल्म सीमा (1955) में बहुत शानदार भूमिका निभाई और अपनी जिंदगी का पहला सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता। पेइंग गेस्ट (1957) और दिल्ल का ठग (1958) जैसी हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्मों से भी वह चमक गई। इसके साथ ही उन्होंने अपने दुशमनों के मुंह पर भी ताला लगा दिया।
बिमल रॉय की फिल्म सुजाता (1959) में एक उच्च जाति के लड़के से प्रेम वाले किरदार ने उन्हें दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार दिलाने में भूमिका निभाई। इसके बाद नूतन ने 1959 में लेफ्टिनेंट कमांडर रजनीश बहल से शादी की और अपने करियर से कुछ दिनों के लिए विराम ले लिया। दोनों को जिंदगी में 1961 में बेटे मोहनीश (बहल) की एंट्री हुई।
यह बिमल रॉय की फिल्म बंदिनी (1963) थी, जो उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ साबित हुई। जरासंध (चारु चंद्र चक्रवर्ती) द्वारा बंगाली उपन्यास, तामसी पर आधारित, कल्याणी के रूप में वह इस फिल्म में नजर आई। पहले प्यार से बंदी, फिर गुस्से से और बाद में पश्चाताप से ... वह तभी आज़ाद होती है, जब वह अपनी अंतरात्मा में आत्मसमर्पण कर देती है। उनके अतीत (अशोक कुमार) और भविष्य (धर्मेंद्र) के बीच फटे, नूतन की बारीकियों ने उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड दिलाया।
अन्य महत्वपूर्ण भूमिकाओं जिसने नूतन को फिल्मफेयर दिलाया उसमें मिलन (1967) जिसमें उनका डबल रॉल था , इसके अलावा सरस्वतीचंद्र (1968) और सौदागर(1973) जिसमें वह अमिताभ बच्चन के साथ नज़र आई थी। उनका करियर यहां नहीं रुका और राज खोसला की मैं तुलसी तेरे आंगन की (1986) में, जहां उन्होंने अपने बेटे और सौतेले बेटे के बीच एक महिला की भूमिका निभाई। इस रोल ने उन्हें फिर से एक फिल्मफेयर पुरस्कार दिला दिया। इसके अलावा मेरी जंग (1985) ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार भी दिलाया।
नूतन ने हमेशा अपने पति को अपने शानदार कारियर के लिए श्रेय दिया, क्योंकि इस के कारण ही वो शादी के बाद भी फिल्मों में नजर आती रही। इस पर उनके पति रजनीश ने एक साक्षात्कार में कहा था कि यदि आप एक चित्रकार या लेखक भी होती, तो भी मैं आपको अपना काम करने से नहीं रोकता। साथ ही रजनीश ने ये भी बताया कि, “नूतन के सिर्फ दो जुनून थे - फिल्में और परिवार। उसने पूरी ईमानदारी से खुद को इस रिश्ते में शामिल किया था और वह मुझ से और हमारे बेटे टिम्मी से बहुत प्यार करती थी। हाल ही हुए एक साक्षात्कार में, बेटे और अभिनेता मोहनीश ने भी इस बात को दोहराते हुए बताया कि एक मां के रुप में उन्होंने मेरे लिए सब कुछ किया और उसमें आनंद भी लिया। वो जमीन से जुड़ी इंसान थी।
नूतन को अपनी गंभीर बीमारी कैंसर को पता 1990 में चला, जब उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें कैंसर है। नूतन ने जिन फिल्मों को साइन किया था उनकी साइनिंग राशि लौटाई और जो फिल्मे बाकी थी उनके निर्माता से कहा कि जल्द ही बचे हिस्से को पूरा करें। मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। पति रजनीश ने बताया कि इन दिनों वो बेहद आध्यात्मिक हो गई थी। जब हमने ठाणे के पास मुंब्रा में एक खेत खरीदा था, तो उसने मुझे वहां एक मंदिर बनाने के लिए कहा था, और पूछने पर नूतन ने बताया कि उन्हें सपने में ऐसा करने के लिए कहा गया था।
जून-जुलाई 1990 के आसपास कैंसर धीरे-धीरे लिवर में फैल गया और उनकी तबियत और बिगड़ गई। अपने तरीके से, हमें उसके बाहर निकलने के लिए तैयार कर रही थी। मोहनीश ने आगे कही कि मां विशेष रूप से चाहती थी कि मैं उनसे स्वतंत्र हो जाऊं। मैं पूरी तरह से उन पर निर्भर था। उनके गुजर जाने के बाद, हमारे परिवार ने उनकी फोटो को दीवार पर लटका दिया। इसके नीचे एक खंभे पर पिता रजनीश ने एक दीया रखा था। खंभे के पीछे से, अपने आप एक तुलसी का पौधा उग गया। मोहनीश ने कहा, "ये तब तक रहा जब तक घर में आग नहीं लग गई।"
, रह गई यादें कोलाबा मुंबई में स्थित उनके 32 मंजिला सागर संगेत के पेंट हाउस में जब 3 अगस्त 2004 आग लग गई तो, आज में झुलसकर रजनीश बहल की भी मृत्यु हो गई। आग में सब कुछ जल गया लेकिन, उसमें एक खूबसूरत महिला की यादें हमेशा के लिए शामिल हैं।