raja karn singh

अलाउद्दीन ख़िलजी के सेनापति ने दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने से पूर्व रास्ते में एक छोटे से राज्य के राजा कर्णसिंह को अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा। बिना युद्ध किये एक क्षत्रिय पराजय स्वीकार करले, यह कैसे संभव हो सकता है ? 
    
        अत: कर्णसिंह ने यवनों से संघर्ष करने को तैयार हुआ। अंत:पुर में अपनी रानी से जब वह युद्ध के लिए विदा लेने गया तो उसकी रानी कलावती ने युद्ध में साथ चलने का निवेदन करते हुए कहा - " स्वामी ! मैं आपकी जीवनसंगिनी हूँ, मुझे सदा संग रहने का अवसर प्रदान कीजिये। सिंहनी के आघात अपने वनराज से दुर्बल भलें हों पर गीदड़ों व सियारों के संहार हेतु तो पर्याप्त हैं।" कर्णसिंह ने अपनी वीर पत्नी की भावनाओं को समझते हुए उसे साथ चलने की अनुमति दे दी।
छोटी सी सेना का विशाल यवन सेना से मुकाबला था। रानी कलावती शस्त्र-संचालन में निपुण थी। अपने पति की पार्श्व रक्षा करती हुई वह शत्रु का संहार कर रही थी। इधर स्वाधीनता की रक्षा करने वाले वीर राजपूत मृत्यु का वरण करने को उत्सुक थे और उनके सामने थे वेतनभोगी यवन सैनिक। घमासान युद्ध हो रहा था, इतने में एक आघात कर्णसिंह को लगा जिससे वे बेहोश हो गए। कलावती ने दोनों हाथों से शस्त्र संचालन कर पति के आस-पास स्थित सारे शत्रु सैनिकों का सफाया कर दिया। युद्ध उत्साही क्षत्रिय सैनिकों के आगे वेतनभोगी यवन सेना पराजित हुई। विजय हासिल कर रानी कलावती अपने घायल पति को लेकर वापिस लौटी। राजवैध ने परिक्षण कर बताया कि विषैले शस्त्र से आहात होने के कारण राजा कर्णसिंह बेहोश हुए है, उनके विष को चूसने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। विष चूसने वाले के जीवित रहने की सम्भावना कम थी क्योंकि शत्रु द्वारा प्रयुक्त जहर बहुत विषैला था। इससे पहले कि विष चूसने वाले की खोज की जाय, उसे तलाश करने का प्रयास किया जाय, रानी ने स्वयं उस मारक विष को चूस डाला। विष चूसने की विधि में कलावती निपुण नहीं थी फिर भी पति के प्राणों की रक्षार्थ उसने अविलम्ब यह कार्य किया। जब राजा कर्णसिंह की बेहोशी टूटी और उन्होंने अपने नेत्र खोले तो समीप ही पड़ी प्रेमप्रतिमा की मृत देह नजर आई। अपने प्राणोंत्सर्ग कर पति के प्राणों की रक्षा करने वाली रानी कलावती का त्याग अविस्मरणीय व वन्दनीय है।

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