वो जो सबको हंसाती थी। उसके खुद के दिल में दर्द का दरिया बहा करता था। आज टुनटुन जी के संघर्ष की कहानी कहने का दिन है। क्योंकि आज टुनटुन जी का जन्मदिन है। हालांकि ये पक्के तौर पर कोई नहीं जानता कि यही तारीख टुनटुन जी के जन्म की सही तारीख है। क्योंकि उन्हें खुद भी नहीं पता था कि उनका जन्म किस तारीख को हुआ था। पर चूंकि अब इसी तारीख को टुनटुन जी का जन्मदिन माना जाता है तो चलिए, हम भी यही मान लेते हैं।
एक रोज़ टुनटुन किसी पड़ोसी के घर पर बैठी रामलीला देख रही थी। अचानक उन्हें नींद आ गई। और वो नीचे गिर पड़ी। उनकी चीख सुनी तो रामलीला के मंच पर कोई किरदार निभा रहा टुनटुन जी का बड़ा भाई हरी बीच रामलीला मंच से उतरकर उन्हें बचाने दौड़ पड़ा। उस वक्त टुनटुन महज़ तीन-चार साल की थी। और उनका भाई बारह-तेरह साल का था। माता-पिता कब के दुनिया छोड़कर जा चुके थे। भाई हरी ही टुनटुन जी का इकलौता सहारा था। वैसे, उस ज़माने में ये टुनटुन नहीं थी। इनका नाम उमा था। इसलिए यहां हम इन्हें उमा ही कहेंगे।
वक्त ने कुछ ऐसा सितम किया कि उमा का इकलौता सहारा उनका भाई हरी भी दुनिया छोड़ गया। उमा अनाथ हो गई। रिश्तेदारों का घर ही अब उनका ठिकाना था। मगर दो वक्त की रोटी के बदले वो रिश्तेदार उमा से किसी नौकरानी की तरह काम लेते थे। हालत ये हो गई थी कि रिश्तेदारी में कहीं पर भी कोई शादी-ब्याह या अन्य कोई प्रोग्राम होता था तो वहां काम करने के लिए उमा को ही भेजा जाता था। एक इंटरव्यू में उमा जी ने कहा था कि उन्हें बस इतना याद है कि उनके गांव का नाम अलीपुर था। और वो दिल्ली के आस-पास कहीं था।
क्योंकि अक्सर दिल्ली के दरियागंज में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर उमा को काम करने के लिए जाना पड़ता था। एक दिन पड़ोसियों से उमा जी को पता चला था कि उनके पिता के पास काफी ज़मीन थी। मगर उस ज़मीन के लालच में रिश्तेदारों ने ही उनके माता-पिता का कत्ल कर दिया। बाद में भाई की हत्या भी ज़मीन के चलते ही हुई। इसलिए उमा जी को ये याद ही नहीं कि उनके माता-पिता कैसे दिखते थे। उन्हें बस अपने भाई का चेहरा याद रहा। और हमेशा याद रहा।
बचपन से ही उमा को गाने का शौक था। मगर रिश्तेदार इतने क्रूर थे कि अगर उमा को गुनगुनाते हुए भी सुन लेते थे तो पिटाई कर देते थे। एक दिन दिल्ली में उमा की मुलाकात एक्साइज़ डिपार्टमेंट के एक इंस्पैक्टर से हुई। उनका नाम था अख़्तर अब्बास काज़ी। उन्हें जब पता चला कि उमा को गाने का शौक है तो उन्होंने उमा का मनोबल बढ़ाया। उमा के भीतर आत्मविश्वास पैदा हुआ। मगर तभी देश का विभाजन हो गया। अख़्तर अब्बास काज़ी लाहौर चले गए। उमा भी अपने हालात से बहुत दुखी थी। सो एक दिन मौका पाकर वो भी आंखों में गायिका बनने का ख्वाब लिए बॉम्बे भाग आई।
उमा जब दिल्ली से बॉम्बे आ रही थी तब एक आदमी ने उन्हें डायरेक्टर नितिन बोस के असिस्टेंट जव्वाद हुसैन का पता दिया था। बॉम्बे आकर उमा जव्वाद हुसैन से मिली। उस वक्त उनकी उम्र मात्र चौदह बरस थी। जव्वाद हुसैन ने उमा को अपने घर में रहने की जगह दी। दूसरी तरफ अख़्तर अब्बास काज़ी, जो लाहौर चले गए थे, उनका मन भी वहां नहीं लगा। मौका मिलते ही वो भी भारत लौट आए। उन्हें पता चला कि उमा बॉम्बे में हैं तो वो बॉम्बे आ गए। और फिर उमा ने अख़्तर अब्बास काज़ी से शादी कर ली।
उमा गायिका बनने का अपना ख्वाब पूरा करना चाहती थी। उसे जीना चाहती थी। इसलिए वो कोशिश करती रही। एक दिन उन्हें पता चला कि ए.आर.कारदार एक नई फिल्म शुरू करने जा रहे हैं जिसका नाम है दर्द। मौका निकालकर उमा कारदार स्टूडियो पहुंच गई। वहां पहुंचकर उमा बेझिझक एक ऑफिसनुमा कमरे में घुसी और कुर्सी पर बैठे शख़्स से बोली,"कारदार कहां मिलेंगे?" उमा ने ए.आर.कारदार का नाम तो सुना था। मगर उन्होंने कारदार को कभी देखा नहीं था। कुर्सी पर बैठे उस शख़्स को उमा का वो बेधड़क अंदाज़ पसंद आया। उसने जवाब दिया,"मैं ही कारदार हूं।"
ए.आर.कारदार को जब पता चला कि ये लड़की गायिका बनने के लिए आई है तो उन्होंने नौशाद के असिस्टेंट ग़ुलाम मोहम्मद से उमा का टेस्ट लेने को कहा। ग़ुलाम मोहम्मद एक ढोलक लेकर बैठ गए। उमा ने उनसे कहा,"ठीक से बजाना।" ग़ुलाम मोहम्मद उमा के बेपरवाह अंदाज़ से बड़े हैरान हुए। फिर ग़ुलाम मोहम्मद ने ढोलक बजानी शुरू की। उमा ने फिल्म ज़ीनत का एक गीत गाया जिसे फिल्म में नूरजहां ने गाया था। उस गीत के बोल थे "आंधियां ग़म की यूं चली।" उमा, जिसने कभी गायकी की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी, उसके गाने के अंदाज़ का उस दिन वहां मौजूद हर इंसान कायल हो गया। कारदार तो इतना खुश हुए कि उन्होंने पांच सौ रुपए महीना पर उमा को अपने यहां बतौर गायिका काम पर रख लिया।
पहला फिल्मी गीत जो उमा देवी ने रिकॉर्ड किया था वो था साल 1947 की फिल्म दर्द का एक बहुत ही प्यारा व मशहूर गीत जिसके बोल थे "अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का।" उस फिल्म में उमा देवी ने और तीन गीत भी गाए थे। जिसमें से एक "बेताब है दिल" में उन्होंने सुरैया के साथ जुगलबंदी की थी। फिर तो उमा जी ने कई फिल्मों में गायकी की। शमशाद बेगम व और कई उस दौर की गायिकाओं के साथ भी उन्होंने गायकी की थी।
उमा जी ने कुल 45 गीत फिल्मों में गाए थे। पर चूंकि वो कोई ट्रेंड गायिका नहीं थी, और बच्चों की पैदाइश के बाद उन पर परिवार का बोझ बढ़ गया था तो गायकी का उनका करियर बहुत जल्दी खत्म भी हो गया। उस ज़माने में उमा जी के बारे में अफवाह उड़ी थी कि उनकी गायकी से दूसरी गायिकाएं इतनी घबराने लगी कि एक दफा उन्हें धोखे से सिंदूर खिलाकर उनकी आवाज़ खराब कर दी गई। मगर एक इंटरव्यू में खुद उमा जी ने उस अफवाह को खारिज किया था। उन्होंने कहा था कि ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ था।
उमा जी जब गायकी से दूर हो गई तो उन्होंने अपना पूरा ध्यान परिवार पर लगा दिया। उनके पति अख़्तर अब्बास काज़ी नौकरी करते थे। मगर जब परिवार बढ़ा तो उनकी तनख़्वाह कम पड़ने लगी। ऐसे में उमा जी ने फैसला किया कि वो एक दफा फिर से फिल्मी दुनिया में काम तलाशने की कोशिश करेंगी। उमा नौशाद से मिली। नौशाद उन दिनों एक फिल्म प्रोड्यूस करने जा रहे थे जिसका नाम था बाबुल। वो फिल्म एस.यू.सनी डायरेक्ट करने वाले थे। संगीत नौशाद खुद दे रहे थे। और फिल्म में मुख्य हीरो-हीरोइन थे दिलीप कुमार व नरगिस।
उमा जी को उम्मीद थी कि नौशाद उनसे कोई गीत गवाएंगे। लेकिन उस वक्त तक फिल्म इंडस्ट्री में प्लेबैक सिंगिंग पूरी तरह से बदल चुकी थी। लता मंगेशकर और आशा भोसले जैसी नई गायिकाएं अब सिंगिंग इंडस्ट्री पर राज कर रही थी। ये गायिकाएं पूरी तरह से ट्रेंड और बहुत सुरीली थी। ऐसे में उमा जी के लिए गायकी के क्षेत्र में फिर से एंट्री ले पाना नामुमकिन था। इसलिए नौशाद साहब ने उमा से कहा,"गायकी का चक्कर छोड़ो। वहां तुम अब टिक नहीं पाओगी। अब एक्टिंग करो।" चूंकि इस वक्त तक उमा जी का वज़न भी बहुत ज़्यादा बढ़ चुका था तो नौशाद ने उन्हें बाबुल में एक कॉमेडी रोल ऑफर किया।
नौशाद ने तो उमा देवी को दर्द फिल्म में भी एक रोल निभाने को कहा था। मगर तब उमा जी ने एक्टिंग करने से मना कर दिया था। मगर अब हालात दूसरे थे। उमा को पैसों की ज़रूरत थी। इसलिए काम तो उन्हें हर हाल में चाहिए था। उन्होंने बाबुल(1950) फिल्म में एक्टिंग करने की हामी भर दी। और इस तरह उमा देवी का एक्टिंग सफर शुरू हो गया। ये नौशाद ही थे जिन्होंने उमा देवी को टुनटुन नाम दिया था। जबकी इंटरनेट पर बहुत से लोग दावा करते हैं कि दिलीप कुमार ने उमा देवी को टुनटुन कहना शुरू किया था।
बाबुल में उमा देवी की कॉमेडी को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। और फिर तो उमा देवी यानि टुनटुन की गाड़ी चल निकली। कुछ ही वक्त में वो फिल्म इंडस्ट्री की सबसे व्यस्त हास्य कलाकारों में से एक बन गई। और भारत की पहली महिला कॉमेडियन कहलाई। उन्होंने एक से बढ़कर एक व लगभग हर बड़े स्टार की फिल्मों में कॉमेडी की। उनके सीन्स भले ही अधिकतर फिल्मों में एक या दो ही क्यों ना रहे हों, लेकिन उन सीन्स में भी टुनटुन वो कमाल कर जाती थी जिसकी उम्मीद डायरेक्टर-प्रोड्यूसर उनसे किया करते थे।
सत्तर के दशक के मध्य में टुनटुन ने फिल्मों में काम करना कम कर दिया। 80 के दशक में उनकी सक्रियता और कम हो गई। और आखिरकार 80 के दशक के आखिर में उन्होंने फिल्मों से खुद को रिटायर कर लिया। 1990 में रिलीज़ हुई कसम धंधे की नामक फिल्म टुनटुन जी की आखिरी रिलीज़्ड फिल्म थी।
टुनटुन जी के दो बेटे व दो बेटियां थी। 90 के दशक की शुरुआत में उनके पति अख़्तर अब्बास मिर्ज़ा की मृत्यु हो गई। पति के जाने के बाद टुनटुन अपने बच्चों संग रही। टुनटुन को जानने वाले लोगों का कहना है कि उनकी ज़िंदादिली में कभी कमी नहीं आई थी। वो जब तक ज़िंदा रही, हंसती रही, हंसाती रही, ठहाके लगाती रही। मगर जब भी उनके माता-पिता व भाई का ज़िक्र आता था तो वो उदास हो जाती थी। माता-पिता को कभी ना देख पाने का दुख उन्हें ताउम्र रहा। और बड़े भाई की याद भी उनके दिल से कभी नहीं निकली। 24 नवंबर 2003 को 80 साल की उम्र में टुनटुन जी ये दुनिया छोड़कर चली गई थी।