Sharada Sinha

छठ महापर्व के गीतों और भजनों से दुनिया भर में पहचानी जाने वाली मशहूर लोकगायिका शारदा सिन्हा जी अब हम सब के बीच नहीं रही। संयोग देखिये कि पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती शारदा जी का निधन ठीक छठ के पहले दिन हुआ है। उन्होंने दिल्ली एम्स में इलाज के दौरान 5 नवंबर को अंतिम सांस ली। शारदा सिन्हा कई सालों से मल्टीपल मायलोमा से पीड़ित थीं। डॉक्टर्स के मुताबिक यह बीमारी कैंसर का एक रूप होती है जो रीढ़ की हड्डी को प्रभावित करती है।
पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा अपने सादगी भरे जीवन के लिए जानी जाती थी। फ़िल्म 'मैंने प्यार किया' के गीत 'कहे तोसे सजना' से देश भर में मशहूर हुईं शारदा जी ने कई हिंदी व भोजपुरी फ़िल्मों के लिए भी गीत गाये हैं। हाल ही में शारदा सिन्हा के पति ब्रजकिशोर सिन्हा का भी निधन हुआ है। जिसकी सूचना उन्होंने ख़ुद सोशल मीडिया पर दी थी। अपने पति के जाने के बाद शारदा सिन्हा काफी टूट गई थीं हालांकि ख़ुद को हिम्मत देते हुए उन्होंने संगीत का सफ़र ज़ारी रखने का फ़ैसला किया था। शारदा जी ने अयोध्या में रामलला के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में भी अपनी प्रस्तुति दी थी और वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में अपनी एक और प्रस्तुति देने की इच्छा जताई थी। हालांकि उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी।
शारदा सिन्हा अपने पीछे  बेटी वंदना और बेटे अंशुमान सिन्हा को छोड़ गई हैं। इसके अलावा अंशुमान की एक बेटी भी हैं। शारदा सिन्हा ने अपने फ़ेसबुक पोस्ट पर 7 अक्टूबर को एक पोस्ट लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने पति के जाने के बारे में और अपनी आख़िरी मुलाक़ात के बारे में कई बातें शेयर कीं थीं। उस पोस्ट के ज़रिये उन्होंने अपने पति से कहा था मैं जल्द ही आउंगी। शारदा सिन्हा जी का वह भावुक पोस्ट आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं जिसे हमने NDTV राजस्थान की वेबसाइट से लिया है।

स्वर्गीय शारदा सिन्हा का अपने पति की याद में किया हुआ पोस्ट-
"जब सब घर में सो रहे होते थे, आज के दिन सिन्हा साहब , चुपके से उठ कर  फूल वाले के पास जाते थे, दो गुलाब और कुछ चटपटा नाश्ता, हाथ में लिए, एक नटखट सी हंसी अपने आंखों में दबाए, घर आते थे, बिना आवाज किए, मेरे सिरहाने में रखी कुर्सी पर बैठ कर, इंतजार करते थे कि कब मैं उठूं, और वो मुझे वो दो गुलाब दे कर कहें, 'जन्मदिन हो आज तुम्हे मुबारक, तुम्हे गुलसितां की कलियां मिले, बहारे न जाएं तुम्हारे चमन से, तुम्हे जिंदगी की खुशियां मिलें.' फिर मैं अर्ध निद्रा में, आंखे मलते हुए उठती, उन्हें हाथ जोड़ प्रणाम करती, और इससे पहले कि मैं अच्छी शब्दावली का चयन कर उन्हे धन्यवाद कहती, वे अधीर हो पूछ बैठते थे , ....'अरे भाई, आज तो कुछ खास होना चाहिए खाने में, फिर वो चटपटा नाश्ता मेरे ठीक सिरहाने रख कर कहते, हांजी ये सबके लिए है.' मैं उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखने के हिसाब से उन्हें मना करती, 'मत खाइए ये सब , तबियत खराब हो जाएगी....' 'अरे छोड़ो जी...मस्ती में रहो' कह कर चल देते . मैं बच्चों से कहती, 'उनको मत देना इस नाश्ते में से, वो पक्का पहले ही खा चुके होंगे...' चश्में के ऊपर से वो मुझे घूरते और कहते..'नही नही.' मैं उन्हें और जोर से घूरती तो चुप चाप कह देते थे, ...'थोड़ा खाया था मैंने.' फिर मैं बच्चों से उनकी दावा दिलवा कर उन्हे आराम करने को कहती थी. बिना सिन्हा साहब के ये दिन शूल सा गड़ता है मुझे, आज मैं क्या पूरी दुनियां ही उन्हें फूलों से सजा रही है . एकाद्शा/ द्वादशा की तैयारियां हैं, अब थोड़ा नाश्ता क्या पूरा भोज सामने है . 
ये कौन सा तोहफा दे गए सिन्हा साहब ?!? 
उनसे अंतिम मुलाकात 17 सितंबर की शाम हुई, जब मैंने कहा था, 3 दिनों में मैं लौट कर आ जाऊंगी, आप अपना ध्यान रखिएगा . उन्होंने मुझे कहा, '... मैं बिल्कुल ठीक हूं , आप बस स्वस्थ रहिए.. और जल्दी लौट जाईयेगा .' हाथ जोड़ कर ढब ढबाती आंखें मुझे आखरी बार देख रही थीं ये कौन जानता था . 
आज का दिन बहुत भारी है .
सिन्हा साहब की मौजूदगी का एहसास मुझे तो है ही , दोनो बच्चों वंदना और अंशुमन को तो ऐसा लगता है जैसे पिताजी कहीं गए हैं , थोड़ी देर से लौट आएंगे . 
ये चीरता सन्नाटा, ये शूल सी चुभन, हृदय जैसे फट कर बाहर आ जाएगा ! 
आखरी मुलाकात की एक तस्वीर बची है, सबके दर्शनार्थ यहां साझा कर रही हूं . 
पोती उनकी गोद में है, आंखे उनकी भरी भरी, मैं द्रवित सी, दिलासा देती साथ खड़ी हूं . मैं जल्द ही आउंगी ... मैने बस यही कहा था उनसे ......!"

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