वाल्मीकिरामायणमें मूर्तिपूजा
कुछ तथाकथित आधुनिक विद्वानोंका मानना है कि आदिकाव्य श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें मूर्तिपूजा नहीं है । किन्तु यह सिद्ध करेंगे श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें एक स्थान पर नहीं अपितु प्रत्येक काण्डमें मूर्तिपूजा है । पहले तो मूर्तिपूजा कहना ही प्रमाद है ,सनातनी मूर्ति नहीं अपितु ईश्वर की ही पूजा करते हैं । मूर्तिपूजा का अर्थ है परमात्माकी प्रतिकोपासना । प्रतीक अर्थात् चिन्ह जिसमें विग्रह ,चित्र व ध्वजादि किसी भी चिन्हमें ब्रह्म भावना करके उसकी पूजा की जाती है । श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें मूर्ति पूजा यहाँ विस्तारसे लिखना तो असम्भव है ,हम केवल सङ्केत में ही सभी उत्तरकाण्ड सहित सातों काण्डोंमें मूर्ति पूजा की विद्यमानता सिद्ध करेंगे ।
!! बालकाण्ड !!
श्रीरामके जन्मसे पूर्वही महाराज दशरथजी सम्पादित अश्वमेध यज्ञमें प्रतीकोपासनाके रूपमें यूप पूजन का विस्तृत वर्णन । बिल्व,खैर,पलाश ,बहेड़े व देवदारु वृक्षके काष्ठसे निर्मित २१ अरत्नीके २१ यूप यज्ञस्थल पर स्थापित किये गये व वस्त्र , धूप-दीप-पुष्प-चन्दन इत्यादिसे उन यूपोंकी पूजाकी गयी।
"एकविंशतियूपास्ते एकविंशत्यरत्नय: ! "(बा०१४/२४) "आच्छादितास्त्रे वासोभिः पुष्पैर्गन्धैश्चपूजिताः ! "(बा०१४/२७)
अयोध्यामें महाराज जनकके वंशज भगवान् शिव प्रदत्त महान् धनुषकी देवताओंके समान गन्ध-पुष्प-चन्दन आदिसे करते थे ।
"तद्धि यज्ञफलं तेन मैथिलेनोत्तमं धनु !(बा०३१/१२)" अर्चितं विविधैर्गन्धैर्धूपैश्चागुरुगन्धिभि: !! (बा०३१/१३)
!! अयोध्याकाण्ड !!
अनन्यश्रीरामचरणानुरागी भरतजी महाराज अयोध्याजीमें जगत् वन्दनीय बड़े भाई श्रीरामके चरणपादुकाओंकी श्रीरामके प्रतिकके रूपमें पादुकाओंका राज्याभिषेक करके
"ततस्तु भरतः श्रीमानभिषिच्यार्यपादुके !(अयोध्या०११५/२६)
उन चरण पादुकाओंको ही श्रीराम मानकर हर वस्तु उन्हें निवेदन कर स्वयं गृहण करते हैं -
"तदा हि यत् कार्यमुयैति किंचिदुपायनं चोपहृतं महार्हम् ! स पादुकाभ्यां प्रथमं निवेद्य चकार पश्चाद् भरतो यथावत् !! (अयोध्या०१५/२७)
भगवान् की प्रथम पूजा भी भरतजी द्वारा सिद्ध है ।
!! अरण्यकाण्ड !!
श्रमणा शबरी भगवान् श्रीरामको अपने गुरु महर्षि मतंगकी साधना स्थली दिखाते हुए बताती हैं । महर्षि मतंगने जो पूजा करते समय देव विग्रहोंको जो कमलकी मालायें और कमल पुष्प चढ़ाये थे वे अभी तक मुरझाये नहीं हैं ।
"देवकार्याणि कुर्वद्धिर्यानीमानि कृतानि वै !
पुष्पै: कुवलयै: सार्धं म्लानत्वंन नु यान्ति वै !!( अरण्य०७५/२७)
!! किष्किन्धाकाण्ड !!
पूर्णिमाके दिन इन्द्रध्वजकी पूजा होती है जो बड़े बड़े बांसोंके ध्वजोंमें कई पुरुषोंके द्वारा पूजास्थल पर ले जाकर खड़ा किया जाता है ! युद्धकाण्ड सेतु निर्माणके समयभी ऐसा उल्लेख मिलता है "इन्द्रकेतू निवोद्यम्य "(युद्ध०२२/५८) कि वानरों द्वारा सेतु निर्माणके समय इसी प्रकार अनेक वानरों द्वारा वृक्ष लाये गए जैसे इन्द्रध्वजको अनेक लोग उठाकर पूजास्थल पर ले जाते हैं । जिस तरह इन्द्रध्वजकी रस्सी कटने पर इन्द्रध्वज भूमि पर गिरता है उसी तरह श्रीरामके बाण लगने से वानरराज वाली भूमि पर गिर पड़ा ।
"इन्द्रध्वज इवोद्धूत: पौर्णमास्यां महीतले ! आश्वयुक्समये मासि गतश्रीको निचेतन: !!(किष्किन्धा०१७-३७)
!! सुन्दरकाण्ड !!
हनुमान् जी लङ्कामें माता सीताका अन्वेषण कर थे तब उन्होंने पुष्पक विमानको देखा जिसके अंदर बहुत सुन्दर लक्ष्मीजीकी मूर्ति देखी जिनके सुन्दर हाथोंमें पद्मपुष्पथे और सुन्दर हाथियोंके द्वारा जिनका अभिषेक होता रहता था और उन हाथियोंके सूंडमें पद्मपुष्प धारणकिये हुए थे । रावण द्वारा ऐसी सुन्दर कारीगरी की गयी थी कि माता लक्ष्मीका पूजन-अभिषेक कभी न बन्द हो ।
"नियुज्यमानश्च गजाः सुहस्ता: सुकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ता: !
बभूव देवी च कृतासुहस्ता लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पद्महस्ता !!" (सुन्दर०१७/१४)
!! युद्धकाण्ड !!
यद्यपि युद्धकाण्डमें इन्द्रजीत द्वारा देवी निकुंभिलाकी पूजा तो जगत् प्रसिद्ध है ही
"स होतुकामो दुष्टात्मा गतश्चैव्यं निकुम्भिलाम् !(युद्ध०८३-२४)!
तथापि श्रीराम द्वारा स्थापित रामसेतु पर भगवान् महेश्वरके श्रीरामेश्वर पूजन को कैसे अपलाप किया जा सकता है ? भगवान् श्रीराम यही बात माता सीता को बताते हैं कि देवी यही वह सेतुबन्ध है जहाँ मेरे द्वारा स्थापित महादेवने मुझपर अनुग्रह किया था और अब यह तीर्थ त्रिलोक द्वारा पूजित होगा !
"एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावार निवेशनम् !!
यत्र पूर्वं महादेव: प्रसादमकरोद् विभु !
एतत् तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मन्: !
सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम् !! (युद्ध०१२३/१९-२०)
!! उत्तरकाण्ड !!
रावण जहाँ कहीं भी जाता था वहां वहां भगवान् शिवकी स्थापना करके उनकी धूप-दीप-पुष्पों द्वारा पूजा करता था व ताण्डव नृत्य करता था -
"यत्र यत्र च याति स्म रावणो राक्षसेश्वर: !
जाम्बूनमयं लिङ्गं तत्र तत्र स्म नीयते !!
वालुकावेदि मध्ये तु तल्लिङ्गं स्थाप्य रावणः !
अर्चयामास गन्धैश्च पुष्पैपुश्चामृतगन्धिभि: !! (उत्तर०३२/४२-४३)