Meena Kumari by Manohar Mahajan

🌞ट्रेजिडी क़वीन-
माहजबीं :मीना कुमारी
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टुकड़े टुकड़े दिन बीता,
धज्जी धज्जी रात मिली,
जिस का जितना आँचल था,
उतनी ही सौग़ात मिली।

रिम-झिम रिम-झिम बूंदों में
ज़हर भी है अमृत भी है
आँखें हँस दीं दिल रोया
ये अच्छी बरसात मिली।

जब चाहा दिल को समझें
हँसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो
ले फिर तुझ को मात मिली।

मातें कैसी घातें क्या
चलते रहना आठ पहर
दिल सा साथी जब पाया
बेचैनी भी साथ मिली
होंटों तक आते आते
जाने कितने रूप भरे
जलती बुझती आँखों में
सादा सी जो बात मिली.

अपने करीब 33 साल के करियर में मीना कुमारी ने 90 से ज्यादा फिल्मों में काम किया.इनमें उनका सबसे उम्दा काम ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ (1962) में है. ‘पाकीज़ा’ (1972) भी,जो उनकी सबसे यादगार फिल्म है. इसके अलावा गुलज़ार के निर्देशन वाली ‘मेरे अपने’ (1971) तो मस्ट-वॉच फ़िल्म है.उनकी फिल्म ‘मझली दीदी’ (1967) भी थी जो भारत की ऑफिशियल एंट्री के तौर पर ऑस्कर अवॉर्ड्स में गई थी.उनकी ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (1960) फ़िल्म ‘शारदा’(1958),‘मिस मैरी’(1957) जैसी कई फिल्में भ हैं जो उनके अभिनय की चमचमाती मीनारें है.
बंबई की एक चॉल में उनकी मां इक़बाल बानो और पिता मास्टर अली बख़्श रहते थे.थियेटर आर्टिस्ट थे.पिता थियेटर में हार्मोनियम भी बजाते थे.बहुत तंगहाली थी.फिर 1अगस्त 1932 को उनके घर मीना जन्मीं. घर में दो बेटियां पहले से थीं इसलिए उनके पैदा होने पर कोई खुशी मनाने की संभावना नहीं थी. डिलीवरी करने वाले डॉक्टर को फीस देने तक के पैसे नहीं थे.बताया जाता है कि अली बख़्श इतने निराश थे कि बच्ची को दादर के पास एक मुस्लिम अनाथालय के बाहर छोड़ दिया. लेकिन कुछ दूर गए थे कि बच्ची की चीखों ने उन्हें तोड़ दिया. वे लौटे और गोद में उठा लिया.बच्ची के शरीर पर लाल चींटियां चिपकी हुई थीं. उन्होंने उसे साफ किया और घर ले आए.

मीना कुमारी का असली नाम नहीं था.उनका नाम था महजबीन बानो. उनका नाम बदला प्रोड्यूसर विजय भट्ट ने. दरअसल घर के हालात ठीक नहीं थे और फिल्मों में बच्चों को रोल मिला करते थे. तो उनकी मां इक़बाल बानो बेटियों के लिए रोल ढूंढ़ा करती थीं. एक बार वे 7 साल की मीना को भी एक फिल्म स्टूडियो लेकर गईं जहां तब के बड़े प्रोड्यूसर विजय भट्ट बैठे थे. उन्होंने कहा कि इस बच्ची के लायक काम हो तो दीजिए. महजबीन का चेहरा उन्हें पसंद आ गया. उन्होंने फिल्म ‘लेदरफेस’ (1939) में बाल भूमिका में उन्हें ले लिया. बाद में विजय ने कहा कि अभी फिल्में वो लगातार कर रही है तो ये नाम ठीक नहीं, कुछ और रखते हैं. तो बात करके उन्होंने नाम बेबी मीना कर दिया. फिर बड़ी होकर वे मीना कुमारी कहलाईं.

दादर में मीना का परिवार रहता था.सामने ही रूपतारा स्टूडियो पड़ता था जहां फिल्मों की शूटिंग होती रहती थी.एक बार वहां बड़ी बहन खुर्शीद काम कर रही थीं और कंपाउंड में मीना खेल रही थीं.पिता अली बख़्श उन्हें वहीं शूटिंग कर रहे सुपरस्टार अशोक कुमार के पास लेकर गए.अशोक कुमार उन्हें पहचान गए क्योंकि अली बख़्श छोटे-मोटे रोल किया करते थे.उन्होंने कहा कि साहब ये मेरी छोटी बेटी है.अशोक कुमार ने खुशी जताई.उन्होंने बेबी मीना की तरफ देखकर कहा कि बेटा अभी तो तुम बच्चों के रोल करती हो,जल्दी से बड़ी हो जाओ फिर हम तुम्हारे साथ काम करेंगे,तुम हमारी हीरोइन बनना.अपने इस बगैर सोचे किए मज़ाक पर वे हंसे और साथ बैठे लोग भी लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि एक दिन वाकई में ऐसा ही हो जाएगा.ये हुआ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘तमाशा’ (1952) में जिसमें मीना को कास्ट किया गया और उनके को-स्टार थे अशोक कुमार और देव आनंद. आगे चलकर ‘परिणीता’(1953), ‘बंदिश’ (1955), ‘शतरंज’ (1956), ‘एक ही रास्ता’ (1956), ‘आरती’ (1962), ‘बहू बेग़म’ (1967), ‘जवाब’ (1970) और ‘पाक़ीज़ा’ (1972) में भी दोनों ने साथ काम किया.

अपने दौर की सबसे ज्यादा फीस लेने वाली कुछ एक्ट्रेस में मीना कुमारी आती हैं.1940 के बाद के दौर में वे एक फिल्म के लिए 10,000 रुपए की मोटी फीस लेती थीं.बाद के वर्षों में वे बहुत बड़ी स्टार बन गईं और उनकी फ़ीस समय के साथ और मोटी हो गई.उनकी ऊंची फीस के बावजूद अपनी फिल्में ऑफर करने और रोल सुनाने के लिए प्रोड्यूसर्स उनके घर के बाहर लाइन लगाते थे.

उनकी कोई औपचारिक स्कूली पढ़ाई नहीं हुई थी, बावजूद इसके मीना कुमारी कई भाषाएं जानती थीं और बहुत सारी किताबें पढ़ती थीं.उन्हें शायरी और कविताएं लिखने का जुनून की हद तक शौक़ था.कैफ़ी आज़मी से भी उन्होंने सीखा.पोएट्री का पैशन ही उन्हें गुलज़ार के करीब ले आया था.मीना कुमारी अपने पीछे अपनी लिखी पोएट्री की डायरियां गुलज़ार के पास छोड़ गईं.

◆चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा।
◆हँसी थमी है इन आँखों में यूँ नमी की तरह,
चमक उठे हैं अंधेरे भी रौशनी की तरह।
◆यूँ तेरी रहगुज़र से दीवाना-वार गुज़रे,
काँधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे।
◆आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता,
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता।

मीना कुमारी एक बार एक मैगजीन पढ़ रही थीं और उसमें उन्होंने कमाल अमरोही की फोटो देखी जो तब हिंदी सिनेमा के जाने-माने राइटर-डायरेक्टर हो चुके थे.उन्होंने ‘महल’ (1949) जैसी सुपरहिट फिल्म बनाई थी. मीना उनके व्यक्तित्व,पढ़ाई लिखाई और सोच से बहुत प्रभावित हुई.जब मीना का एक्सीडेंट हुआ तो दोनों बहुत करीब आ गए थे.इसके बाद परिवार वालों के खिलाफ जाते हुए मीना ने छुपकर कमाल से शादी कर ली. वे बिना बताए ही कमाल के घर पहुंच गई थीं और वहीं रहने लगीं.कमाल और मीना का रिश्ता करीब एक दशक चला.बाद में इसमें खटास आने लगी. कमाल भी उन्हें लेकर बहुत पज़ेसिव थे और बहुत रूढ़िवादी थे.उन्होंने कई बंदिशें लगा रखी थीं.शर्तें बना रखी थीं.एक असिस्टेंट मीना कुमारी के साथ लगा रखा था ताकि वे हर पल नजर रख सके.लेकिन मीना ने हर नियम को तोड़ा.उसके बाद पति के घर से चली गईं और अपनी बहन के वहां रहने लगीं.

जिस शराब को छूती भी नहीं थीं उसी ने बाद में जान ले ली.शराबनोशी के दो कारण बताए जाते हैं.एक तो ये कहा जाता है कि उन्हें नींद लेने में दिक्कत होने लगी थी तो उनके डॉक्टर ने नींद की गोली की जगह ब्रांडी का एक पेग लेने की सलाह दी.दूसरी अटकल ये है कि डायरेक्टर अबरार अल्वी की फिल्म ‘साहब बीवी और ग़ुलाम (1963)  की शूटिंग की दौरान ये हुआ.उन्होंने फिल्म में जमींदार की बंगाली पत्नी छोटी बहू का रोल किया था जो अपने अय्याश पति का प्यार पाने और ध्यान आकर्षित करने की नाकाम कोशिशों में लगी है. वो उसे खुश करने के लिए शराब पीने लगती है और बाद में दूसरे पुरुष के पास प्यार ढूंढ़ती है.इस फिल्म की शूटिंग के दौरान अपने रोल में डूबने के लिए मीना ब्रांडी के छोटे पेग पीने लगीं. बाद में उन्हें इसकी लत लग गई और अपनी जान जीवन बैठी.

एक बार मीना अपनी बहन के साथ महाबलेश्वर से लौट रही थीं. रास्ते में उनकी कार का जोरदार एक्सीडेंट हुआ.एक हाथ बुरी तरह जख्मी हो गया,उनकी दो अंगुलियां काटनी पड़ी.अपने पूरे करियर में उन्होंने किसी फिल्म में दर्शकों को पता नहीं लगने दिया कि उनकी दो अंगुलियां नहीं हैं.वे खुद को ऐसे कैरी करती थीं और इतनी खूबसूरती से मूव करती थीं कि वो हाथ सामने होते हुए भी सबकुछ परफेक्ट लगता था.

फ़र्श से अर्श तक पहुंची इस महान अभिनेत्री/शायर को उनकी 91वीं सालगिराह कर दिल से नमन.
🙏🙏

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