भारतीय नवोत्थान के दार्शनिक नेता डॉ राधाकृष्णन
(डॉ राधाकृष्णन की पुण्यतिथि पर विशेष)
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर सन 1888 को तमिलनाडु के तिरुतनी गांव में हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा लूथरन मिशन हाईस्कूल से करने के बाद उन्होंने बेल्लूर के उरही कॉलेज तथा क्रिश्चियन मद्रास कालेज में उच्च शिक्षा ली।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्वतन्त्रता के बाद संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। प.जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर डॉ. राधाकृष्णन को 14 अगस्त को रात 12 बजे से पहले अपना आजादी का संभाषण प्रस्तुत करने का दायित्व सौंपा गया और निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके ठीक पश्चात 15 अगस्त शुरू होने पर नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी। वे अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति,सोवियत संघ में भारत के राजदूत व भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति रहे।
किसी देश के गर्भ में जो अनुभूतियां संचित रहती हैं उन्हें व्यक्त करने के लिए संत,कवि और दार्शनिक जन्म लेते हैं। भारत की पवित्र भूमि ने अपने सांस्कृतिक नवोत्थान के लिए संत रामकृष्ण परमहंस, कवि रविन्द्रनाथ टैगोर, कर्मयोगी महात्मा गांधी और दार्शनिक डॉ राधाकृष्णन को जन्म दिया।
भारत के मनीषियों का यह स्वभाव रहा है कि जब भी वे भारतीय दर्शन की उत्तेजना को नया रूप देते हैं तब वे गीता, उपनिषद व ब्रह्मसूत्र का सहारा लेते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि श्रेष्ठ अनुभूतियां केवल भारत की पुस्तकों में ही नहीं उनका सार हमारे खून व स्वभाव में भी समाया हुआ है।
डॉ राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन के नए क्षितिज को छुआ। उन्होंने गीता और प्रमुख उपनिषदों की व्याख्या लिखी यद्यपि वे ब्रह्मसूत्र की स्वतंत्र व्याख्या नहीं लिख पाए परन्तु उनके सभी लिखित ग्रंथों में ब्रह्मसूत्र के शंकर भाष्य की झलक परिलक्षित होती है। भारतीय इतिहास ने उन्हें शंकर और रामानुज की पंक्ति में बिठाकर हमेशा के लिए अमर कर दिया।
शंका नए विचारों को जन्म देती है और दर्शन सात्विक संदेह को जन्म देता है। जब समाज के प्रचलित मत पर शंका उठने लगती है तब विचारकों को कल्पना की ऊंची उड़ान व उत्तेजना मिलती है। इसलिए दर्शन की मुद्रा में जाने के लिए जरूरी है कि हमारे अंदर जिज्ञासा और शंका करने का नैतिक साहस हो।
हिन्दूधर्म का अध्ययन करते करते डॉ राधाकृष्णन उसी निष्कर्ष पर पहुंचे जिसपर रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी , रवींद्रनाथ टैगोर व महर्षि अरविंदो पहुंचे थे। भारत में हिन्दू धर्म को जो अपयश प्राप्त हुआ है वह इस कारण नहीं कि धर्म में बुराई है अपितु इस कारण है कि धर्म बुरे मनुष्यों के हाथों में पहुंच गया है। भारतीय दर्शन केवल भारत के पुनरुत्थान के लिए नहीं अपितु अखिल भूमण्डल के कल्याण के लिए जरूरी है।
डॉ राधाकृष्णन को दर्शन की उत्तेजना विज्ञान से नही धर्म के द्वारा हुई। बावजूद इसके वे यूरोप के वैज्ञानिक कोलाहल से भरे समय में भारत की आत्मा बनकर उभरे। उन्होंने भारत की आध्यात्मिकता की व्याख्या यूरोप के समक्ष और यूरोप के विज्ञान का आख्यान भारत के समक्ष किया।लेकिन इतना कहने भर से उनके योगदान की इतिश्री नहीं हो जाती। अपनी 'ईस्टर्न रिलीजन एंड वेस्टर्न थॉट' पुस्तक में वे लिखते हैं कि- नए विश्व दर्शन का जन्म अभी नहीं हो पाया है उसका जन्म होना ही चाहिए। विचारों की टकराहट से एक नई चेतना जन्म ले रही है। आदमी चाहे पूर्व का हो या पश्चिम का उसकी शारीरिक आवश्यकताएं एक हैं, उसकी आत्मीय आवश्यकताएं एक हैं। देशों की दीवारें खींचकर हम एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग नहीं कर सकते। नई पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि वह इस नई चेतना में अपनी आत्मा का प्रवेश कराए।
जिस धर्म की दार्शनिक व्याख्या डॉ राधाकृष्णन ने की है वह गांधीजी के सत्य और शांति का नया अनुसंधान है। वे शंकर मत के प्रबल समर्थक और निराकार ब्रह्म के साधक थे। उनका मानना था कि गांधी जैसी ऊंचाई के पायदान पर पहुंचने के बाद ब्रह्म निराकार ही दिखाई देता है, उसके नीचे पायदान पर वह साकार होता है तथा उससे भी नीचे जाने पर उसमें अंधविश्वास और जड़ता आ जाती है। और सबसे नीचे जाने पर वह दूसरे धर्म के धार्मिक स्थलों के आगे हुडगंड करने लगता है।
17 अप्रैल सन 1975 को भारतीय नवोत्थान के महान दार्शनिक नेता डॉ राधाकृष्णन का चेन्नई में देहांत हो गया।
साभार फेसबुक गांधी दर्शन
