गैर भोजपुरी क्षेत्र के गायको ने भोजपुरी के मान कोे बढ़ाया और भोजपुरी क्षेत्र के कुछ गायको ने इसे अश्लीलता का जामा पहनाया

 गैर भोजपुरी क्षेत्र के गायको ने भोजपुरी के मान कोे बढ़ाया और भोजपुरी क्षेत्र के कुछ गायको ने इसे अश्लीलता का जामा पहनाया

अन्जनी कुमार उपाध्याय/देवरिया

भारतवर्ष में पहली सवाक् फिल्म आलमआरा मैजेस्टिक सिनेमा हाल में रीलीज हुई थी। तब भारतवर्ष के हर व्यक्ति में यह कौतूहल उत्पन्न हुआ कि चलती, फिरती और बोलती तस्वीर कैसी होगी? किसी ने यह नही सोचा होगा कि हम जिसे इतनी उत्सुकता से देख रहे हैं, आने वाले समय में मेरी इस उपलब्धि को इतना गन्दा कर दिया जायेगा कि हमें शर्मिन्दगी की इन्तहाॅ से गुजरना पड़ेगा। आलमआरा हिन्दी उर्दू मिश्रित फिल्म थी। प्रारम्भिक फिल्मों में भाषा का प्रयोग मिश्रित रूप में होता था। भोजपुरी फिल्म में भी प्रथम बार भाषा के रूप में हिन्दी भोजपुरी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया था। सन् 1948 में फिल्मीस्तान लिमिटेड बाम्बे से किशोर साहू के निर्देशन में पहली बार भोजपुरी फिल्म ‘नदिया के पार’ बनी। इसके नायक दिलीप कुमार और नायिका कामिनी कौशल थीं। यह फिल्म कैसे बनी, यह एक रोचक प्रसंग है। उन दिनों किशोर साहू के दिन अच्छे नहीं थे। डन्हें श्री मोती बी0 ए0 ने भोजपुरी फिल्म बनाने की राय दी और उन्हें सफलता का आश्वासन भी दे डाला। किशोर साहू ने यह साहस करने का फैसला कर लिया। फिल्म के सारे गीत मोती बी0 ए0 ने लिखे। गायिकाओं में ललिता देवलकर, सुरेन्द्र कौर, शमशाद बेगम, लता और गायकों में सी0 रामचन्द्र तथा मो0 रफी थे। संगीत सी0 रामचन्द्र का था। सहज कल्पना की जा सकती है कि कोई भी कलाकार भोजपुरी क्षेत्र का नहीं था, सिर्फ मोती बी0 ए0 को छोड़कर। दिलीप कुमार को भोजपुरी बोलने में दिक्कतें आ रहीं थी, इसलिए उनके संवाद हिन्दी में लिखे गये। आश्चर्य तो इस बात का कि गैर भोजपुरी कलाकारों ने सर्व प्रथम भोजपुरी फिल्मों के गीत गाए, संगीत दिया और संवाद बोले। इस फिल्म ने सफलता की बुलंदियों को प्राप्त किया और भोजपुरी क्षेत्र में आश्चर्यजनक धूम मचायी। सामंत वर्ग और बंजारों के परिवार की असफल प्रेम कथा पर आधारित यह फिल्म डरावनी और खलनायक प्रधान है, जिसमें कई भोजपुरी गीत खलनायक पर फिल्माए गये है । इस फिल्म में सात भोजपुरी गीत हैं। इसमें मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार, कठवा के नइया बनइहे मलहवा,अँखिया मिला के अँखिया , बजरिया में अइहो, जुलुम करे हो गोरी इत्यादि आज भी प्रसिद्ध हैं। स्पष्ट हे कि भोजपुरी को फिल्म में स्थापित करने का श्रेय भोजपुरी क्षेत्र के गीतकार श्री मोती बी0 ए0 और उनके गैर भोजपुरी क्षेत्र के सहयोगी कलाकार मित्रों का था।

भोजपुरी गीतो का स्वर्णिम काल

  सन् 1950 से लेकर 1960 के बीच जब फिल्म नदिया के पार ने भोजपुरी क्षेत्रों में सफलता की धूम मचाई थी तब इसकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर कई निर्माताओं ने भोजपुरी मे फिल्मों के निर्माण की होड़ लगा दी। यह कहना मुश्किल है कि कौन सा पुराना संगीतकार या गायक इन गीतों से दूर रहा? सन् 1961 में शक्ति फिल्म द्वारा ‘आईल बसन्त बहार’ दूसरी भोजपुरी फिल्म बनी जिसमे हेमन्त कुमार ने संगीत दिया था तथा मन्ना डे, गीता दत्त, आशा ने कई गीत गाये थे। इसका गीत ‘तेरे नैना से मिल गइलें नैना हमार’ ने काफी लोकप्रियता प्राप्त की थी। सन् 1962 में ‘निर्मल पिक्चर्स’ के निर्देशक कुन्दन कुमार द्वारा ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ में संगीतकार चित्रगुप्त के संगीत निर्देशन में भोजपुरी गानों की रिकार्डिंग हुई। इसके गीत ‘‘हे गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबो, काहे बसुरिया बजवले, लुक छुप बदरा में, सोनवा के पिंजरा में बन्द भइले’’ ने इतनी लोकप्रियता हासिल की कि आज भी यह लोगों के दिलों में अपना घर बनाए हुए है। सन् 1963 में ‘फ्रैण्ड मुवीज’ के बैनर तले कुन्दन कुमार के निर्देशन में उच्च वर्ग और असहाय वर्ग के प्रेम  कथा पर आधारित फिल्म ‘लागी नाही छूटे रामा’ बनीं। 



इसके नायक असीम कुमार और नायिका कुमकुम थी। यही जोड़ी ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ में भी थी। इसकी लोक प्रियता भी कुछ उससे कम नहीं थी। इसके गीत ‘‘जारे जारे सुगना जा रे, लाले लाले होठवा से, पटना के बाबू’’ ने अलग ही अपनी पहचान बनायी। इसके गीत मजरुह सुल्तानपुरी तथा गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो के गीत शैलेन्द्र ने लिखे थे। 1963 में ‘बिहार फिल्मस’ के बैनर तले एस0 एन0 त्रिपाठी के निर्देशन में ‘बिदेशिया’ बनी जिसमें संगीत भी इन्हीं का था तथा गीत राम मूर्ति चतुर्वेदी का था। इस फिल्म का गीत ‘हॅसि हॅसि पनवा खियवले बेइमनवा’ ने भोजपुरी का परचम पूरे भारत में लहराया और भारत के कोने कोने में लोग भोजपुरी भषा के नाम से परिचित हो गये। उसके बाद 1964 में कई भोजपुरी फिल्में आयीं जैसे कब होइहें गवनवा हमार, जेकरा चरनवा में लगले परनवा, सीता मइया, नैहर छूटल जाय, नाग पंचमी, सैया से भइले मिलनवा, बलमा बड़ा नादान। शायद यह अवधारणा बन गयी कि यदि भोजपुरी फिल्में बनायी जाय तो शायद ही असफलता मिले। 

लोकप्रियता की बुलन्दियों पर भोजपुरी

भोजपुरी फिल्मों में जैसे ही इन श्रेष्ठतम् फिल्मों का निर्माण बढ़ा, उसी समय कुछ ऐसी भोजपुरी फिल्में बनीं जिसने हर वर्ग में भोजपुरी के प्रति एक ललक पैदा कर दी । 1965 में ‘सोलहो सिंगार करे दुलहिनिया’ रोशनी डे के निर्देशन, बाबू सिंह के संगीत निर्देशन और मधुकर बिहारी के गीतों के साथ बनी। इसका गीत ‘‘तूॅ ही बन जा गाॅधी बाबा तूॅ ही बन जवाहर लाल’’ कमल बारोट के आवाज में जनता को भा गया। इसी वर्ष ‘जोहरा फिल्मस’ के बैनर तले ‘सैया से नेहा लगइबे’ बनी। इसमें गीत शेलेन्द्र के और संगीत गुलाम मुहम्मद का था। इसमे रफी का गाया गीत ‘‘फुलवा नीयर नारि सुकुवार, गगरिया छल छल छलकेला’’ ने फिल्म को काफी शेाहरत दिलायी। भोजपुरी फिल्मों का यह दौर गंगा के जल की तरह निर्मल और पवित्र था। इसी समय ‘हमार संसार’ बनी और इसी समय ‘कुन्दन फिल्मस’ के बैनर तले ‘भौजी’ बनी। इसमें गीत मजरुह सुल्तानपुरी और संगीत चित्रगुप्त का था। इस फिल्म के गीतो ने हिन्दी मेलोडी फिल्मों के गानों से भी बेहतर मैलोडी का प्रदर्शन किया। इसके गीत ‘‘अॅगुठिया निशानी ले जा मोरे राजा, हम गरीबन से भइल प्यार, ए चन्दा मामा आरे आव पारे आव’’ आज भी अमर गीत की तरह जन-जन में छाये हुये हैं। इन गीतों ने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ डाले। इसी वर्ष गंगा फिल्म का गीत ‘बनवा फुलेला बसन्त रे, बउराईल मोरा जियरवा’ भी काफी लोकप्रिय रहा। 

भोजपुरी गीतों की प्रतिष्ठा नही बच पायी

उसके बाद तो जैसे भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ सी आ गयी, पर भोजपुरी की वह आत्मा जो इन संगीतकारों और गीतकारों के प्रयत्न से जीवन्त थी, कुछ वर्ष रूक कर फिर मलिन होने लगी। दसके बाद जो फिल्में आयी उनमें ‘‘जोगन, लोहा सिंह, विधिना नाच नचावे, मितवा, गंगा जमुना’’ ने भोजपुरी गीतों की बुलन्दियों को बढ़ाया तो नहीं लेकिन दो दशक तक उसे गिरने नही दिया। फिर एक लम्बे अन्तराल तक यादगार फिल्में नही आयीं। लम्बे अन्तराल बाद बलम परदेशिया और दंगल ने वह मिठास को पुन पाना चाहा लेकिन जो दिल में जगह चाहिए थी वह पूरी तरह नही मिली। कुछ समय बाद भोजपुरी फिल्म निर्माताओं ने भोजपुरी गानों और संवादो के द्वारा भोजपुरी फिल्मों के सभ्यता का निर्मल वस्त्र उतारना शरू कर दिया। 

आधुनिक भोजपुरी गीतो में वह मार्मिकता नही

कितनी बड़ी बिडम्बना है कि गीत साहित्य की रचना के इतिहास में भोजपुरी गीतो का प्रभाव पुराने जमाने में ऐसा स्थान लिये हुए था जैसे गीत न होकर यह मन की शान्ति के लिए एक मन्त्र हों। भोजपुरी क्षेत्र में कजरी, सोहर, लोकगीत और होली के पवित्र गीतो ने अपनी पवित्रता ऐसे बरकरार रखी थी जैसे वह अपने विशेष पर्व के मंगल स्तोत्र हों। आज इन पवित्र गीतो को अश्लील कर इन पर नग्नता और अश्लीलता का प्रदर्शन किया जा रहा है। वह भी स्तरहीन तरीके से। आज सभ्य परिवार इससे दूर होते जा रहे हैं। इसे सुनना भी नही चाहते। 1960 से 70 के दशक के भोजपुरी गीत का सुन्दर स्वरूप जो दिलो में श्रद्धा और पवित्रता का संचार कर देता था आधुनिक समय के अधिकंाश फिल्मी गीतो ने नष्ट कर दिया है। कभी ये गीत पूजे जाते थे आज अश्लीलता के पर्याय बने हुए हैं। यद्यपि आज भी कुछ निर्माता इसे पुनरोस्थापित करने के प्रयास में लगे हुए हैं, लेकिन आज की विकृति मानसिकता उसे स्वीकार नही कर पा रही है। 1985 के आसपास रवीन्द्र जैन के संगीत निर्देशन में मोती बी0ए0 ने हेमलता, तलत महमूद, अलका याज्ञनिक के सहयोग से एकबार पुनः वही मधुरता लाने का प्रयास किया था और ‘‘ठकुराईन, चंपा चमेली और गजब भइले रामा’’ नामक फिल्में बनायी, पर वो मधुरता पुनः स्थापित नही हो पायी। । कितनी बड़ी विडंबना है कि गैर भोजपुरी प्रान्तों के गायक और अन्य कलाकारों ने इसे अलंकृत कर अमृत सदृश निर्मल बनाया और भोजपुरी क्षेत्र के गायकों ने इसे निर्वस्त्र कर अश्लील बनाया। वह दिन दूर नही जब आधुनिक जमाने के यह अश्लील गीत हमारी नयी पीढ़ी में विकृतियों से भरी गंदी मानसिकता को पूरी तरह भर देंगे। आज आवश्यकता है ऐसे कलाकारो और निर्माताओं की जो इसे पुनः एक बार इसके निर्मल स्वरूप को पुनरास्थापित कर सकें। 

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