देवरिया की कविता भाग 01

देवरिया की कविता
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   कविता का फलक बहुत व्यापक है,जाहिर है उसे खास मानकों, खाँचों, विचारधाराओं,रुझानों
 विधाओं और शिल्पों में बाँटकर देखना और उसपर  बात करना  बेमानी है,सूरज की रश्मियों के सात रंगों से भी आगे आज की कविता के हज़ारों रंग और शेड्स  हैं। 
            यहाँ हम कुछ किश्तों में देवरिया के कवियों और  कवयित्रियों  की एक- एक कविताओं की बानगी देते हुए उनके  शेड्स देखेगें। कवि  और कविताओं का चयन यादृच्छ
(Randomly)  उनके  प्रकाशित संकलन अथवा फेसबुक / ह्वाट्सप से किया गया है।
अपनी राय प्रगट करने के लिये आप सभी स्वतंत्र हैं--    प्रस्तुत है पहली किश्त--

              अस्सी  पार के  तीन कवि 
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         कवि : गिरधर करुण 
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ज्योति पर्व पर जगमग जगमग दीप जलेंगे 
लक्षमिनियां के घर चूल्हा जालना मुश्किल है 
खेद चुकी है वह भी सालों साल दलिद्दर 
पलट ना पाया लेकिन उसका कभी मुकद्दर।
 अंत्योदय के लाल कार्ड के लिए अभागिन 
हार चुकी है दौड़ धूप कर दफ्तर दफ्तर ।।
सुघरी का गौना गोधन के बाद पड़ेगा,
 रेहन को फिर रेहन पर रखना मुश्किल है 
महल सजाएंगे सतरंगी झिलमिल झालर से 
नई तिजोरी भर जाएगी फिर डॉलर से 
गोबर के गणेश जी लड्डू पेड़ा खाकर 
क्षीर सभी पी जाएंगे काले सागर से।।
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 (कविके काव्य संग्रह 'मन  का हिरना' से)

           कवि : जयनाथ मणि 
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कोहरे के गिरफ्त से बचकर 
चढ़ी मुंडेर धूप ,
डरी डरी सी धूप।।
 
चिड़ियों के पंखों पर चढ़कर 
पेड़ों की फुनगी फुनगी पर 
तुहिन  कणों को चूम चूम कर 
भाँप रही है धूप नाप रही है धूप ।।
हरी हरी सी धूप 
डरी डरी सी धूप।।

मैना मुनरी और कबूतर
तोते मोर गिलहरी  तीतर
फुदक  रहे करते किलोल सब
झूम रही है धूप घूम रही है धूप
खरी खरी सी धूप
डरी  डरी  सी धूप।।

 ठिठुरन  गलन साथ में धाएँ 
 धूप पकड़ने को ललचाए 
किकुरी सिमटी सभी लताएँ 
लगी सजाने रूप
 सेंक गुनगुनी धूप।।
भरी भरी सी धूप 
डरी डरी सी धूप।।

चली किलकती पर फैलाए
 इंद्रधनुष सी छटा  जमाए
आंगन की हर अलगनियों के 
वस्त्र सुखाती धूप मन को भाती धूप
 मोरछरी सी धूप ।।
सोनपरी सी धूप।।

शाम हुई दिन लगा दुबकने
ठंडक से फिर लगा सुबकने 
कोहरे की पाती निकालकर
बाँच रही है धूप,नाच रही है धूप
मरी मरी सी धूप
डरी  डरी  सी धूप।।
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(कवि के संकलन'नहीं मैं सच नहीं बोलूँगा से)

  कवि : ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण'
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 ओट  घूंघट की हटाकर
 नवोढ़ा  ने तनिक 
 बाँकी अदा से 
 परदेश से लौटे पिया को
 परिजनों से घिरा देखा 
मौन के संगीत सा 
कुछ लहरा- /
शिराओं में 
नेह की भाषा अवर्णा  
गूँजी   दिशाओं में/
औचक मिलीं आँखे 
अधरो में खिली 
 खिलखिल
 दिखी पिया को प्रिया की झलक
 शमशेर की कविता सरीखी
 बादलों की झिलमिली से झाँकती 
ज्यों तड़ित रेखा 
प्रिय-प्रिया को प्रणय- आतुर 
परिजनों ने अचानक 
सस्मित  स्नेह से देखा।।
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(कवि के संकलन 'सरगम के सुर साधे'से)
  सम्मानित कवि गण से विनम्र अनुरोध कि यदि
यहाँ  प्रस्तुत आपकी कविताओं के कंटेंट  में वर्तनी को छोड़कर  भूलवश कोई शब्द या पंक्ति मूल कविता से भिन्न लगे तो उसे अवश्य इंगित कर दें ताकि उसमें सुधार कर लिया जाय।
       प्रस्तुतकर्ता :---
       इन्द्रकुमार दीक्षित,  देवरिया।
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