देवरिया की कविता
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कविता का फलक बहुत व्यापक है,जाहिर है उसे खास मानकों, खाँचों, विचारधाराओं,रुझानों
विधाओं और शिल्पों में बाँटकर देखना और उसपर बात करना बेमानी है,सूरज की रश्मियों के सात रंगों से भी आगे आज की कविता के हज़ारों रंग और शेड्स हैं।
यहाँ हम कुछ किश्तों में देवरिया के कवियों और कवयित्रियों की एक- एक कविताओं की बानगी देते हुए उनके शेड्स देखेगें। कवि और कविताओं का चयन यादृच्छ
(Randomly) उनके प्रकाशित संकलन अथवा फेसबुक / ह्वाट्सप से किया गया है।
अपनी राय प्रगट करने के लिये आप सभी स्वतंत्र हैं-- प्रस्तुत है दूसरी किश्त--
सम्मानित कवि गण से विनम्र अनुरोध कि यदि
यहाँ प्रस्तुत आपकी कविताओं के कंटेंट में वर्तनी को छोड़कर भूलवश कोई शब्द या पंक्ति मूल कविता से भिन्न लगे तो उसे अवश्य इंगित कर दें ताकि उसमें सुधार कर लिया जाय।
प्रस्तुतकर्ता :---
इन्द्रकुमार दीक्षित, देवरिया।
देवरिया की कविता : चार कवयित्रियाँ
श्रीमती पार्वती देवी
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जीवन भर
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जीवन भर हम
कितना मेहनत करते हैं
क्या कुछ कमाने के लिए
और पाने के लिए।
नाम, प्रतिष्ठा,धन ऐश्वर्य या
मानसिक सुख ,सब
पाने के लिए।
पा भी जाते हैं , मेहनत से
किन्तु! किन्तु!
एक समय ऐसा
आता है जीवन में कि
सब ही कुछ
लगने लगता है,बेकार सा
निरर्थक सा।
उनका नहीं रह जाता
कोई मोल थोड़ा सा ।
निष्प्रयोज्य सी लगती हैं
सारी की सारी
ही वस्तुएं
इसलिए जीवन में बहुत ,
बहुत , बहुत
अधिक न भागें, संतोष रखें
क्योंकि,जो आना है,
वह आयेगा ही, दौड़ते -भागते
या धीरे-धीरे चलते।
जिसे जाना होगा
वह नहीं रुकेगा
नहीं रुकेगा,
लाख कोशिशों पर भी।
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(पार्वती देवी देवरिया)
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वन्दना गुप्ता
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परिवर्तन
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(1)
परिवर्तन शाश्वत नियम
नियम में परिवर्तन शाश्वत सत्य
और सत्य का परिवर्तन
सत्या सत्य की भटकी हुई परिभाषाएं ।।
(2)
नियम एक बन्ध है
बंध के अपने नियम
औरतोड़े जाने के लिए
नियमों पर नियम गढ़े जाते हैं।।
(3)
सत्य है अभेद्य और
सत्य है नियमों के आर पार
इसीलिए नियमों की कसौटी
असत्य से कतराती है
(4)
परिवर्तन के जिन सांचों में
सत्य नए-नए ढंग रूपों में ढलता है
उनकी उपादेयता सिद्ध होते ही
असत्य उन्हें साँचों से
अपनी सूरतें गढ़ने लगता है।।
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(कवयित्री की पुस्तक 'शब्दों के पार' से)
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श्वेता राय
तुम अनुबंध निभाना
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साँझ ढले की बेला में आ
तुम अनुबंध निभाना।।
फूलों की खुशबू
भी मुझ से जब
लगती हो रूठी
कोमल कोमल शाखाएं भी
हो जाए जब ठूँठी ।।
सूरज की किरणोंमेंघुल
तब प्रेम रंग बिखराना ।।
सूने सूने मन में मेरे
कितने भाव उमगते
हाथों में ले हाथ चलूँ
मैं, सपने ऐसे जगते
मुस्कानों से फटे हृदय पर
तुम पर बंद लगाना ।।
प्रश्नों की आवाजाही में
उत्तर जब हो उलझें
रेशम सी जीवन डोरी भी
सुलझाये ना सूलझे ।।
अंधियारे के उसे पल में
तुम दीपक बन जल जाना ।।
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( कवयित्री के संकलन 'तुमअनुबंध निभाना'से)
कवयित्री : प्रियंबदा पांडेय
कविता : 'सोचती है वह'
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हर बार सोचती है वह
अबकी तनख्वाह मिलेगी तो
माँग लेगी कंगन हाथों की पति से
बन्धक हैं जो बेटी की पढाई के लिये
या बनवा लेगी छुटकी के लिये
एक बाली कान के लिये
या ले देगी कुछ कपड़े
चुनमुन के लिये
नहीं, पूजा के लिये एक बाल्टी
और कुछ सामान
नहीं देगी पैसे मकान माल्किन
के जो बाकी हैं
इससे भी आवश्यक है
सास की दवाई
ननद की बिदाई
बच्चों की पढ़ाई
दिखने लगता है उसे
पति का मासूम चेहरा
नहीं, नहीं देख सकती परेशान उन्हेँ
फिर सभी खयालों का विसर्जन कर
वह लौट आती है
अपनी सिलाई मशीन के पास
सुई की टोप से
टांकने लगती है
भविष्य अपना
और सिलने लगती है
फूटा हुआ भाग्य।।
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( कवयित्री की सद्य: प्रकाशित
पुस्तक 'बंद दरवाजे का मकान' से )