हाज़रीन! साहिर साहब की प्रस्तुत नज़्म को आपने पहले भी सुना होगा। फ़िल्म है 'ग़ुमराह' (1963), संगीत ... रवि व आवाज है ... महेंद्र कपूर जी की। इस नज़्म में साहिर साहब ने 3 पैराग्राफ लिखे थे। पर प्रस्तुत नज़्म में सवाल जवाब के रूप में तीन पैराग्राफ और जोड़े गए हैं, और साथ में उसके पहले अमृता और साहिर जी की आपसी गुफ़्तगू ... इन अतिरिक्त शब्दों व नज़्म के लेखक हैं ... ज़नाब #अजय_सहाब जी ... आज अमृता प्रीतम जी की पुण्यतिथि (31 अक्टूबर 2005) भी है। इस पोस्ट के माध्यम से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि 🙏
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#अमृता ,,,, साहिर ... मेरी ज़िंदगी की एक ही कहानी है, एक ही अफ़साना है। और उस कहानी का सिर्फ़ एक ही क़िरदार है। और वो क़िरदार हो ... तुम। लेकिन मैं कभी कभी ये सोचती हूँ कि इस सफ़र की मंज़िल क्या है? ... क्या इस रात की कोई सुबह नहीं? ... क्या इस ख़्वाब की कोई ताबीर नहीं?
#साहिर ,,,, अमृता ... ये रिश्ता ख़्वाब की तरह ख़ूबसूरत है, ख़्वाब की तरह मुलायम है। कुछ ख़्वाबों का ख़्वाब ही रहना अच्छा होता है। अगर हम हक़ीक़त के हाथों से उनको छू दें, तो वो मैले हो जाते हैं। हम इस अफ़साने को इस मोड़ पे छोड़ देते हैं, अजनबी बन जाते हैं, इसे ख़ूबसूरत मोड़ दे देते हैं ...
#अमृता ,,,, ख़ूबसूरत मोड़ साहिर ... वो मोड़ जो तुम्हें मुझसे दूर करता है? ... वो मोड़ जो तुमसे मेरे हाथों को ज़ुदा करता है? ... तुमसे दूर होने का तसव्वुर भी जिस मोड़ पर है, वो मोड़ चाहे जो भी हो। यक़ीनन ख़ूबसूरत तो नहीं हो सकता ...
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चलो इक बार फ़िर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
चलो इक बार फ़िर से ...
न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल-नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
बता'ओ किस तरह अब अजनबी बन जाएं हम दोनों
बताओ किस तरह अब ...
जला दे किस तरह कोई मुहब्बत का हंसी गुलशन
ज़िगर का ख़ून भी डाला था हमने जिसको बोने में
बना कर यूँ ही ग़र पल में इन्हें हम तोड़ डालेंगे
तो फ़िर क्या फ़र्क रह जायेगा रिश्तों और खिलौनों में
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं
मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं
भला तू दूर कैसे जाएगा मुझ से जुदा हो कर
मेरी आँखों मेरी धड़कन मेरी हर सांस में तू है
तेरा ही रक़्स है मेरे लबों के हर तबस्सुम में
मेरे अश्क़ों मेरे दर्दों के हर अहसास में तू है
तआ'रुफ़ रोग हो जाए तो उस का भूलना बेहतर
त'अल्लुक़ बोझ बन जाए तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूब-सूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
तेरा रिश्ता मेरी इस रूह की गहराइयों से है
ज़ुदा मुझसे तू अब कैसी भी सूरत हो नहीं सकता
किसी भी मोड़ पर ग़र हाथ छूटे गा तेरा मुझ से
कभी भी मोड़ ऐसा ख़ूबसूरत हो नहीं सकता
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
बता'ओ किस तरह अब अजनबी बन जाएं हम दोनों
प्रस्तुति : आर के गुप्ता