संगीतकार इकबाल कुरैशी

हिंदी सिनेमा की माया नगरी में गुमनामी की गणित समझ से परे है। ख़ासकर उन फ़नकारों के लिए जो पर्दे के पीछे रहते हैं। मसलन सिनेमेटोग्राफर, कहानीकार, संवाद लेखक, गीतकार व संगीतकार। आज आपको एक ऐसे ही संगीतकार से मिलवाते हैं, जिन्होंने अपने संगीत व धुनों से ज़माने को ख़ूब झुमाया। पर क़ामयाबी उन पर नहीं झूमी। ये थे ज़नाब "इक़बाल क़ुरैशी" ... जिन्हें कई लोकप्रिय गीतों के बावजूद आख़री समय गुमनामी में बिताने पड़े।

12 मई 1930 को औरंगाबाद में जन्मे क़ुरैशी साहब अपनी स्कूली पढ़ाई के लिए हैदराबाद आये, और यहीं पर उन्होंने शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा प्राप्त की। पर आर्थिक जरूरतों की वज़ह से एक सरकारी विभाग में स्टोर-कीपर की नौकरी शुरू की। कुछ समय बाद इनका तबादला मायानगरी बम्बई में हो गया। संगीत के प्रति लगाव तो था ही, इत्तफ़ाकन इनका संपर्क इप्टा के कुछ सदस्यों से हुआ। जहां उन्हें इप्टा के कुछ नाटकों में संगीत देने का मौका मिला। इनका फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ राजकुमार/श्यामा व मनोज कुमार की डेब्यू फ़िल्म 'पंचायत' (1958) से। इस फ़िल्म में इनकी स्वरों और वाद्यों के संयोजन पर जबरदस्त पकड़ व लता जी व गीता दत्त के गाये "ता थैया करते आना ..." ने ख़ूब धूम मचाई।

इस क़ामयाबी के बाद इन्हें 1960 में (AVM) की फ़िल्म 'बिंदिया' मिली। इसके भी गीत "इतना न सता की कोई जाने ...", "नशा सा छा गया ..." (लता जी), "मैं अपने आप से ..." (मो रफी) व "देखिये, यूँ न शर्माइयेगा ..." ( मुकेश/उषा खन्ना) बेहद पसंद किए गए। इसके बाद इसी साल आई, जॉय मुख़र्जी/साधना अभिनीत 'लव इन शिमला' जो ब्रिटिश फ़िल्म 'जेन स्टेप्स आउट' से प्रेरित थी। (साधना की डेब्यू फ़िल्म) इस फ़िल्म की क़ामयाबी में क़ुरैशी साहब की धुनों का अहम योगदान रहा। ख़ासकर "दिल थाम चले हम आज किधर ...", "हुस्नवाले वफा नहीं करते ...", "किया है दिलरुबा प्यार भी कभी ..." और "दर पे आए हैं ..." अपने समय में खूब चले। इसके बाद कई फ़िल्मों में इनका संगीत हिट रहा ... 'उमर क़ैद' (1961), 'बनारसी ठग' (1962), 'ये दिल किसको दूँ' (1963) और 'चा चा चा' (1964) ... जिसके तीन गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पे हैं, "सुबहा न आई, शाम न आई ...", "वो हम न थे वो तुम न थे ..."इक चमेली के मंडवे तले ..."

उन्हें शास्त्रीय और लोक संगीत की कितनी गहरी समझ थी। ये 'चा चा चा' की तीन जादुई रचनाएं इसका पता देती हैं। आशा भोसले और मुबारक़ बेग़म की आवाज वाले "हमें दम दइके सौतन घर जाना ..." (ये दिल किसको दूँ) में उनके संयोजन की ख़ूबियाँ छन छनकर महसूस होती हैं। रफ़ी साहब की आवाज में "मैं अपने आप से घबरा गया हूं ..." (बिंदिया) या मुकेश की आवाज में "मुझे रात दिन ये ख़्याल है ..." जैसे गीत झूमने पे मजबूर कर देते हैं। 1962 के इंडो-चाइनीज वॉर के दौरान उन्होंने अपने मित्र व कवि 'मख़्दूम मोइनुद्दीन' के लिखे एक ग़ैर फ़िल्मी गीत "चलो सिपाही चलो ..." का संगीत दिया। जिसे 'महेंद्र कपूर' जी ने गाया था।

बाद में चलने को तो अन्य फ़िल्मों के "इक बात पूछता हूं ग़र तुम बुरा न मानो ...", "फिर आने लगा याद वही प्यार का आलम ...", "जाते जाते इक नजर भर देख लो ...", "मेरे जहां में तुम प्यार लेके आए ..." इत्यादि भी चले। पर उनके हिस्से में बी और सी ग्रेड की फ़िल्में ही ज्यादा आईं। फ़िल्मों से दूर होने के बाद गुमनामी का आलम यह था कि नए जमाने के लोगों को उन्हें बताना पड़ता था कि वह कभी फ़िल्मों में संगीत दिया करते थे। अंततः 21 मार्च 1998 को मुंबई में उनका इंतक़ाल हो गया।

तस्वीर साभार : सिनेमाज़ी

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.