क्रांतिकारी सूर्यसेन

#विनम्र_श्रद्धांजलि...

#क्रांतिकारी_सूर्यसेन: अंग्रेजों ने नाखून उखाड़े, दांत तोड़े ताकि मरते वक्त न बोल सकें वंदेमातरम

हमारे देश को आजादी यों ही नसीब नहीं हुई है। भारत की स्वाधीनता की पृष्ठभूमि में कई महान क्रांतिकारियों ने अपने देश की आजादी की खातिर खून के कड़वे घूंट पीये हैं। ऐसे ही एक महान देशभक्त क्रांतिकारी थे सूर्यसेन। जिन्हें अंग्रेजों ने मरते दम तक असहनीय यातनाएं दी थीं। अविभाजित बंगाल के चटगांव चिट्टागोंग अब बांग्लादेश में में स्वाधीनता आंदोलन के अमर नायक बने सूर्यसेन उर्फ सुरज्या सेन का जन्म 22 मार्च, 1894 को हुआ था। क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी सूर्यसेन को द हीरो ऑफ चिट्टागोंग के नाम से भी जाना जाता है।

अंग्रेजी हुकूमत क्रांतिकारी सूर्य सेन से इतना खौफ खाती थी कि उन्हें बेहोशी की हालत में फांसी पर चढ़ाया गया था। अंग्रेजों के जुल्म ही दास्तां सिर्फ इतनी ही नहीं है। ब्रितानी तानाशाही की अमानवीय बर्बरता और क्रूरता की हद तब देखी गई जब सूर्यसेन को फांसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था। फांसी के ऐन वक्त पहले उनके हाथों के नाखून उखाड़ लिए गए। उनके दांतों को तोड़ दिया गया, ताकि अपनी अंतिम सांस तक वे वंदेमातरम का उदघोष न कर सकें। सूर्यसेन के संघर्ष की बानगी पढ़कर ही रूह कांप उठती है। लेकिन उन्होंने यह सब मातृभूमि हंसते हुए झेला था। 

1930 की चटगांव आर्मरी रेड

पेशे से शिक्षक रहे बंगाल के इस नायक को लोग सूर्यसेन कम मास्टर दा कहकर ज्यादा पुकारते थे। 1930 की चटगांव आर्मरी रेड के नायक मास्टर सूर्यसेन ने अंग्रेज सरकार को सीधी चुनौती दी थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर चटगांव को अंग्रेजी हुकूमत के शासन के दायरे से बाहर कर लिया था और भारतीय ध्वज को पहराया था। उन्होंने न केवल क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत की संचार सुविधा ठप कीं बल्कि रेलवे, डाक और टेलीग्राफ सब संचार एवं सूचना माध्यमों को ध्वस्त करते हुए चटगांव से अंग्रेज सरकार के संपर्क तंत्र को ही खत्म कर दिया था

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान युगांतर से जुड़े 

सूर्यसेन की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा चटगांव में ही हुई। उनके पिता रामनिरंजन भी चटगांव के ही नोअपारा इलाके में एक शिक्षक थे। 22 वर्ष सूर्यसेन जब इंटरमीडिएट के विद्यार्थी थे, तभी अपने एक शिक्षक की प्रेरणा से वह बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य बन गए। इसके बाद उन्होंने बहरामपुर कॉलेज में बीए कोर्स में दाखिला ले लिया। यहीं वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन युगांतर से जुड़े। वर्ष 1918 में चटगांव वापस आकर उन्होंने स्थानीय युवाओं को संगठित करने के लिए युगांतर पार्टी की स्थापना की।
असम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा
शिक्षक बनने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की चटगांव जिला शाखा के अध्यक्ष भी चुने गए थे। उन्होंने धन और हथियारों की कमी को देखते हुए अंग्रेज सरकार से गुरिल्ला युद्ध करने का निश्चय किया। उन्होंने दिन-दहाड़े 23 दिसंबर, 1923 को चटगांव में असम-बंगाल रेलवे के ट्रेजरी ऑफिस को लूटा। किंतु उन्हें सबसे बड़ी सफलता चटगांव आर्मरी रेड के रूप में मिली, जिसने अंग्रेजी सरकार को झकझोर दिया था।

भारतीय प्रजातांत्रिक सेना का गठन...

मास्टरा दा ने युवाओं को संगठित कर भारतीय प्रजातांत्रिक सेना नामक संगठन खड़ा किया। 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने  के नेतृत्व में दो दल बनाए। इन्होंने चटगांव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया।

अंग्रेजी सरकार को छकाते रहे...

अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा अंग्रेजी सरकार को छकाते रहे। ऐसी अनेक घटनाओं में 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारी और उनके लगभग 220 सहायकों की हत्याएं की गईं। इस दौरान मास्टर सूर्यसेन ने अनेक संकट झेले।

लालची साथी ने दिया धोखा...

अंग्रेज सरकार ने सूर्यसेन पर 10 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया था। इसके लालच में एक धोखेबाज साथी नेत्रसेन की मुखबिरी पर 16 फरवरी, 1933 को अंग्रेज पुलिस ने सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया
मृत देह बंगाल की खाड़ी में फेंक दी गई
12 जनवरी, 1934 को चटगांव सेंट्रल जेल में सूर्यसेन को साथी तारकेश्वर के साथ फांसी की सजा दी गई, लेकिन फांसी से पूर्व उन्हें कईं अमानवीय यातनाएं दी गईं। ब्रितानी हुकूमत की क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी की उनकी मृत देह को भी धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। आजादी के बाद चटगांव सेंट्रल जेल के उस फांसी के तख्त को बांग्लादेश सरकार ने बनाया मास्टर सूर्यसेन स्मारक घोषित किया था।

मास्टर सूर्यसेन का अंतिम पत्र...

सूर्यसेन ने फांसी के एक दिन पूर्व 11 जनवरी, 1934 को अपने एक मित्र को अंतिम पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की और बह रहा है। मेरे लिए यह वह पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में, मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूं? सिर्फ एक चीज - मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रो, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी। 

साभार पोस्ट: अमर उजाला
महेंद्र सिंह विष्ट

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