कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण

मनुष्यता' की प्रतिष्ठा के लिये संघर्षरत 
               कवि 'पाषाण'
        (जन्मदिन  : 09 सितम्बर)
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कविता की कई  पीढियाँ अपनी कविताओं में जीते, सँजोते,सोते- जागते  सृष्टि की रचना में हुई 
विधाता की भूल को सुधारने का संकल्प लेते,
हिंस्र  पशुता के ऊपर मनुष्यता को  प्रतिष्ठित करने की चिंता करते ,प्रकृति और प्रेम के शाश्वत
संबंधो को खुली आँखों से देखकर प्रफुल्लित होते ,आसपास हो रहे अनाचार ,कदाचार, भ्रष्टाचार पर मुट्ठियाँ कसते, आग और अनुराग के राग को एक साथ साधते कवि ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण' से मिलना  और उनसे बात  करना साहित्य के विशाल समंदर में गोते लगाना है।लेकिन हाँ,मोती पाने के लिये  गहरे डूबने का जोखिम तो उठाना ही पड़ता है,पर कभी कभी    समंदर के नमकीन खारे पानी जैसी उनकी कविताओं का घूँट पीते हुए---। उनकी  कविताई और लेखन में  में यह खारापन  अथवा कसैलापन अकारण नहीं आया है। इसके लिये नवनीत के समान  कोमल हृदय कवि  को अपने जीवन  और साहित्य में  वर्षों तक पग पग पर  न केवल कठोर संघर्ष करना  पड़ा  है वरन अपने वसूलों के लिये जेल यात्रा भी करनी पड़ी है। शायद अपने नाम  के साथ  'पाषाण' जैसा कठोर तखल्लुस भी उन्हें इन्हीं परिस्थितियों  ने रखने पर विवश किया हो।
       उनके  व्यक्तित्व में अजीब सा चुम्बकीय 
आकर्षण है जो उनके सम्पर्क में आने वाले किसी भी शख्स को अपना मुरीद बना लेता है।
 उनके   पास जाकर आप उनकी बातों को सुने बिना नहीं रह सकते, कविताएं और कविताओं जैसे अनुभव में पगे जीवन- सूत्र जो आपको मुग्ध कर देंगे।मैने अनुभव किया है कि  अगर किसी एक कवि  में कबीर,तुलसी, सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला ,मुक्तिबोध,बाबा नागार्जुन,केदार नाथ अग्रवाल और शमशेर का समुच्चय देखना हो तो वह कवि कोई और नहीं बल्कि ध्रुव देव  मिश्र पाषाण  ही हो सकते हैं।उनकी एक कविता का कबीरानाअंदाज तो देखिये--
  न जीता बख्शीश की जिन्दगी 
न खात हराम की रोटी 
न मुड़ाता  मूंड  न बढ़ाता  चोटी 
न लडाता  लुंगी को लंगोट से
न ढंकता असलियत को खोटी  से
न टेकता माथा को मूरत के आगे
न मोड़ता घुटने इबादत के बहाने
न पिलाता सूरज को पानी
न दिखाता चाँद  को दीपदानी
न खतने की फिक्र न जनेऊ का झमेला
न रहता अकेला न जुटाता मेला।।
    ऐसे कवि  जो  सोते हुए भी जागते रहते हैं,पहरा देते रहते हैं,कविता और साहित्य में  मनुष्यताको विलुप्त होने से बचाने केलिये,सम्पूर्ण प्रकृति में जीवन का संवेदन और स्पंदन  का  राग सुनाने के लिये,   विश्व को युद्ध की विभीषिका से उबार कर मानवता को  सृजन की अमृत धार  से सींचने के लिये।उसे शोषण,अत्याचार ,अनाचार और अन्याय के अन्धकार से मुक्त कराकर ममता,समता ,प्रेम,सद्भाव  ,सहकार के प्रकाश लोक  में  ले चलने के लिये  जिन्होने विप्लव की आग से मानवता के  राग तक का सफर अपनी कविताओं में तय किया है,
बातचीत में कहते हैं-'दुनिया की कोई भी भाषा हो अथवा साहित्य सबका लक्ष्य मनुष्यता को बचाने का होना चाहिये, सम्वेदना साहित्य का मूल तत्व है जो पीड़ा,प्रसन्नता,उल्लास,दुख औरसहानूभूति
का ही नाम है।
         यही स्वार्थपरता,  पशुता,क्रूरता ,दबंगई ,
अराजकता ,अधिनायकत्व और दमन के विरुद्ध मनुष्य को खडा करती है तथा उसकी चेतना को आज़ाद सोच के लिये पंख प्रदान करती है।'
  कविवर पाषाण जी  कहते हैं कि ' मैं भाग्यशाली हूँ  कि  मेरा जन्म उसी दिन होता है जिस दिन हिन्दी के युग प्रवर्तक साहित्यकार  और हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भावना की जीवन - रेखा बनानेवाले भारतेंदुबाबू हरिश्चंद्र  का जन्म होता है।"तुलसी,टैगोर,प्रेमचन्दनिराला,मुक्तिबोध,नागार्जुन ,राम विलास शर्माऔर भवानी प्रसाद मिश्र की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए समय के सच को वाणी  देते हुए अंगारों पर चलने का दुस्साहस रखनेवाले कवि पाषाण की गणना अब दुर्लभ कवि  प्रजाति की श्रेणी में  हैं।उम्र के चौरासी पायदान पार करने के बावजूद इनकी कलम विश्राम करनेको तैयार नही है। अभिव्यक्ति और सृजन के अत्याधुनिक  मंच सोशल मीडिया (फेसबुक)के जरिये प्रतिदिन  अपनी जीवंत कविताओं,तथा बेबाक टिप्पणियों के द्वारा सक्रिय रहते हुए युवा लेखकों को प्रेरणा दे रहे हैं ।
                   उनके काव्य संग्रहों से  चुनी गई  कविताओं की कुछ बानगियां देखने लायक हैं--'

"कविता की आँखों के बगैर नामुमकिन है देखकर भी पहचान पाना आदमीं के हाथों और पांवों की दिशा'
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'गूंजती है परिवर्तन   की पहली चाप कविता में
जिन्दगी के रिश्तों को सोने के कफन में दफनाने 
की साजिशों केखिलाफ संस्कार गढ़ती है कविता
लगातार चलती है आदमी दर आदमी ,आदमी के मुकम्मल होने की तलाश कविता में'
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'सेन्सर  की कैंची से सत्य नहीं कटता है
प्रैस जब्त होने से संवाद  नहीं रुकते हैं
बात फैल जाती है सभी जान जाते हैं,
विचारों की धारा में लोग नहा जाते हैं।।'
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'कहाँ चीख पाते हैं वे जब दौड़ा दिये जाते हैं
उनके  घरौंदों पर बुलडोजर।'
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'क्योंकि मैं कवि  हूँ  मेरी नसों में प्रवाहित जीवन रस उस धरती का है  जिसकी नाभि का अमृत कभी नहीं सूखता।'
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 ' असहमति के द्वार बंद  चाहे जो करता है संस्कृति के द्वंद्वों का समाधान अधिनायक
 वृत्ति से चाहे जो करता  है, नरता  का विकास पथ  हिंसा के काँटों से स्वयं वह भरता है'
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गुम होजाते हैं सोहर के कोरस में
लड़की के सवाल! उसकी आँखों में उतर आती है
झर झर बरसात।
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  ये काव्य पंक्तियाँ  हैं, कवि पाषाण के अंतस से निकली  मानवता  के विरुद्ध  रचे जा रहे मानव
रूपी दानव  के षड्यंत्र पर प्रतिकार की।                       'धारदार शीशा' संपादक -लक्ष्मण केडिया तो कभी आलोचना पुस्तक 'ध्रुवदेव मिश्रपाषण की कविताओं में  राजनीतिक चेतना' -शोध-नीरज कुमार सिंह के माध्यम से विद्वान समीक्षकों   द्वारा 'पाषाण' जी  के समग्र कृतित्व और व्यक्तित्व के मूल्यांकन का प्रयास किया गया है।  अपनी लेखनी से दर्जनों काव्य कृतियाँ--- विद्रोह,लौट जाओ चीनियों,बन्दूक और नारे,मैं गुरिल्ला हहूँ ,कविता तोड़ती है,विसंगतियों के बीच,धूप के पंख,  पतझड पतझड वसन्त, वाल्मीकि की चिंता,चौराहे पर कृष्ण, खेल- खेल में,तथा सरगम के सुर साधे हिन्दी साहित्य जगत को देने वाले देवरिया जनपद की साहित्य प्रसूता सारस्वत तीर्थ भूमि इमिलिया के सपूत पाषाण  जी जब तन्मय होकर कोलकाताके  संघर्ष के पुराने दिनों के अपने संस्मरण सुनाते हैं तो रोंगटे खड़े  हो जाते हैं।बात चीत के क्रम में जयप्रकाश के आन्दोलन और आपात काल  के काले दिनों को याद करते हुए  कहते हैं कि -- 'काश,सभी वामपंथी उस आन्दोलन में खुले मन से जयप्रकाश नारायण के साथ शरीक हो पाये होते तो भारत आज के दुर्दांत  जाल से बच गया होता'।जन सम्बद्धता के प्रतिमान बाबा नागार्जुन याद आते हैं- जन पक्ष बुलेटिन में छपी उनकी कविता जिसे उन्होंने जयप्रकाश नारायण की कोलकाता जन सभा में पढा था जो कुछ याद आ रहा है ,सुना रहा हूँ-
"हर शासक डायर है और हरशहर जालियाबाग है
अधिकारों की प्यास नबुझती गोली औ बारूद से
बढ़ने लगती लता क्रांति कीआँसू की हर बूंद से
असन्तोष कीआगअचानक दावानल बन जाती है
शोषक औ शोषित में जिस क्षण विप्लव की ठन
जाती है।
ढहने लगतीं मीनारें जब जंजीरों की होली है,
कभीनहोती क्षीण जुल्मसे इन्किलाब की बोली है
दमन वेग उनमादी चलता पशुता उठती जाग है
सोई जनता जगकर करती अधिकारों की माँग है
कंठ कंठ से फूटा पड़ता  एक बगावत राग है।।''
      आगे  कहते है- "आपातकाल में मीरा सिन्हा के पति ने सहयोग किया उनके  करियर का सवाल था ,उन्होँने  कोलकाता में साहित्य सम्मेलन'बुलाया कुमारेंद्र पारसनाथ ने अध्यक्षता किया।कोलकाता के बड़े  बड़े  कम्युनिस्ट नेताओं
ने मुझे रोका पर मेरे लिये देश की जनता के अधिकारों की वापसी  का सवाल था।अस्सी लेखक गये थे जिनमें पचास मार्क्सिस्ट थे,जो हमारे करीब थे सी पी एम  माले के लोग भी मिलतें  जुलते  रहे,जो जनवादी  लेखक संघ से जुड़ना नहीं चाहते  थे।सी पी आई के प्रलेस और सी पी एम  के जलेस में विभाजन हुआ।विनोद मिश्रा  वाली संस्था  नक्सलियों के साथ थी,गोरख पांडेय कोलकाता मुझे जोड़ने के लिये गये,मैने मना कर दिया।मैनेजर पाण्डेय से मैने कहा कि 
'मैने कविताओं में वही कुछ कहा जिससे  जन तन्त्र मुखर हो।संसदीय वाम पंथ ने भारत की जनता को धोखा दिया,मंच पर क्रान्तिकारी बनना
और पीछे सुख सुविधा का लाभ लेना संसदीय वामपन्थियों का चरित्र बन  गया।मैं परम्पराओं
में निहित पाखंडों को नहीं ढोता।कबीर और बुद्ध
को छोड़कर बात नहीं की जा सकती यह नहीं कि एक कीर्तन छोड़ कर दूसरे कीर्तन  में लग जाऊं।
आचरण के द्वैध  को पारकर मुक्तिबोध भी झील
में नहीं उतरे बाहर से ही लहरेँ गिनते रहे पर मैने ऐसा नहीं किया है। देश की वर्तमान  दुरवस्था पर   कटु टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि  "भारतीय जनता गहरे द्वंद्व में फँस  चुकी है,जब श्वेत आतंक सामने  होगा तो लाल आतंक सामने  आयेगा ही।आज क्या पुलिस का चरित्र बदल गया है आप बिना दलाल के थाने के अंदर  जा सकते हैं?,दावों के बाद भी कुछ भी तो नहीं बदला है,आज दुर्भाग्य से  कार्यपालिका और न्याय पालिका दोनो जनता से विमुख हो चुकी हैं।कभी अकेली आवाज भी भारी पड  जाती है जन आक्रोश के आगे कौन टिक  सकता है।तिकड़म वालों से कुछ होना नहीं है।" आगे साहित्य और संस्कृति पर प्रहार  करते हुए कहते हैं कि  " साहित्येषणा से प्रेरित और ग्रसित लोग अयोध्या काशी में जाकर जय का नार लगाते हैं,मैं साहित्येष्णा से नहीं मानवेषणा  से प्रेरित हूँ और  साहित्य में मनुष्यता की प्रतिष्ठा के लिये जी रहा हूँ ।मैं उस व्यवस्था का पोषक हूँ जिसमें किसी ब्राह्मण की शिकायत पर शम्बूक का वध न हो न ही किसी धोबी की शिकायत पर सीता का वनवास  हो,इसका उत्तर क्या है  राम के पास? इसके प्रायश्चित स्वरूप राम यदि सरयू में डूबे तो  तो उन्हें डूबना ही चाहिए  था।राम का कीर्तन गलत है तो मार्क्स का कीर्तन सही कहाँ से होगा? मुझे सन्तोष है कि 'पाषाण' को गांधी और मार्क्स  दोनो मिले हैं,आज देश जहाँ खड़ाहै, वहाँ बौद्धिकों का दायित्व बहुत बढ़  गया है"।
               है कोई कवि  या लेखक जो इतनी       खरी खरी बात कह सकता हो, कवि  'पाषाण' का यही कबीराना और फक़ीराना   अंदाज़  उनकी ऊंचाई  और उनकी ताकत है।
     नंदी ग्राम मोवमेंट के बारे मे बताते हुए पाषण जी कहते हैं-''नंदी ग्राम के जुलूस में मैं पार्टनर था
वहाँ  दो चमत्कार हुए,एक तो अशोक कुमार सेक्सरिया सन्त व्यक्ति थे एकाएक मेरे पास आये
अनायास ही आशीर्वादों की झड़ी लगाते हुए बोले-'पाषाण जी! आपने हिन्दी जगत की लाज़ रखली '' दूसरा उसी समय मेधा पाटकर  जी आईं
 मंच पर बुलाकर जब सेकसरिया जी ने मेरा परिचय दिया तो वे बोलीं-'तुम्हीं पाषाण हो'।
          कवि  पाषाण  कविता को 'करुण - व्यथा' बनाकर नहीं बल्कि 'संघर्ष की कथा' बनाकर जीते हैं।वह कहते हैं--'कविता---------
  "तुम्हारा फैलाव शून्य का फैलाव है
तुम्हारा माधूर्य प्रिया का पहला स्वीकार है
--------       ------------     --------------
मगर यह सब तब 
जब तुम आदमी के लिये हो
तुम आदमी से बड़ी  नहीं हो।"।
 लेकिन इसका मतलब यह कतई  नहीं
कि प्रेम,सौंदर्य और करुणा  उनकी कविताओं
में है ही नहीं।उनकी कई  कविताएं  प्रेम रस से लबा- लब भरी हुईं और नैसर्गिक सौंदर्य की मिसाल कही जा सकती हैं--
   'दुनिया को नफरत के अन्धेरे से 
     बाहर ला रहे होते हैं फूल और सूरज
     या पेड को इन्तजार है 
       हवाओं की परस का
      जिससे  मुग्ध हो ठहर जाये
        विदा होता हरापन 
  ××× ×       ×××××         ××××
    उगो कि  झूमते  दिखें
     खेत- खेत नये अंकुर
      उगो कि  तुम पृथ्वी के
     प्यार हो सूरज !
 करुणा  की पराकाष्ठा  क्या इन  पंक्तियों
में दिखाई नहीं देती---
   त्रेता से कलियुग तक
    सीता क्यों काँटो पर चलती है
      लपटों में जलती है
      फंदे से झूलती 
        पानी में डूबती
      पत्थरों से  मरती है
       धरती की दुहिता क्यों
        धरती में धंसती है
      ×××××          ×××××××
   पाषाण  को समझने के लिये संवेदना की
उस तरलता की गहराई तक की यात्रा  तय करने का तप करना होगा जहाँ  से पाथर का सीना चीरकर झरने फूटते हैं। पतझर की उस पीड़ा  को सहना होगा जहाँ  से सूखी निपत्र शाख की ग्रंथियों से नये कोमल कल्ले फ़ूट  पड़ते हैं।
       तात्पर्य यह है कि  ध्रुव देव  मिश्र पाषाण  की रचना का संसार इतना व्यापक, विशाल,और बहुरंगी है जैसे सूरज की किरणों  का वर्णक्रम।
उसमें समाए हुए एक रंग को अलग करते ही दूसरा छूट  जाता है,अत: उनकी कविताओं को
समग्रता में देखते हुए बार बार पाठ और मूल्यांकन जरूरी है जो कि अब तक नहीं हुआ है।
        आज अपने प्रिय कवि  के पचासिवें जन्म दिन पर उनके स्वस्थ ,सक्रिय और समृद्ध जीवन 
के साथ दीर्घायुष्य की कामना करते हुए मैं उन पर लिखी अपनी कविता के माध्यम सेआत्मीय बधाई देता हूँ।

बह रहा अविरल न लेता है तनिक विश्राम थक कर,
आवरण 'पाषाण' पर भीतर छलकता मधुर निर्झर।।
यद्यपि पथ के ठीकरों पर पांव जीवन भर चला है,
सहजता को भांप ,पग पग पर मुखौटों ने छला है।
पर न की परवाह चलता जा रहाहै, बद्ध परिकर।।आवरण पाषाण___

बन हथौड़ा तोड़ता है मानसिक परतन्त्र्ता को,
मुक्त करता है उन्हें जो तरसते स्वच्छन्दता को।
सींखचों को काटकर पंछी उड़ा देता छितिज़ पर।।आवरण पाषाण___

बजबज़े साहित्य का कूड़ा हटा,सोना बनाया,
क्रांतिधर्मी भावना को शब्द दे दोना बनाया
फिर परोसा काव्य जो साहित्य-प्रेमी पियें छक कर।।आवरण पाषाण---

रक्त-वसना से कभी तो हरित-वसना हो धरित्री,
मुक्त हो दु:शासनों से बन सके,पावन  पवित्री।
जिन्दगी भर कवि लडा यह युद्ध खुद हथियार बनकर।। आवरण पाषाण---

क्या कोई कवि के हृदय की समझता संवेदना है,
युग- युगों से सह रहा अनवरत कितनी वेदना है।
सृजन रत  है क्योंकि ,यह दुनियां न हो जाए अनुर्वर।। आवरण पाषाण  पर भीतर छलकता मधुर निर्झर।।
            इन्द्र्कुमार दीक्षित,देवरिया ।
                     9 सितम्बर 2023

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