31 दिसंबर 1918 की ठिठुरन भरी सुबह ग्वालियर के महाराजा माधवराव सिंधिया प्रथम का टेलीफोन संयुक्त प्रांत के डिप्टी गवर्नर हरकोर्ट स्पेंसर बटलर को बधाई देते हुए आया कि" सांगा" को डिप्टी एसपी फ्रेड यंग ने पुलिस मुठभेड़ में भिंड जिले के मिहोना जंगल से गिरफ्तार कर लिया है।"सांगा"के महत्व का अंदाजा आप इस से लगा सकते हैं कि उस समय उसके सिर पर 5लाख रुपए का इनाम था।
"सांगा "का असली नाम पंडित गेंदालाल दीक्षित था। उनका जन्म 30 नवंबर 1888 को आगरा के बाह तहसील के मई गांव में हुआ था। बचपन से अति क्रांतिकारी स्वभाव के गेंदालाल दीक्षित जी ने मात्र 21 वर्ष की अवस्था में चंबल के प्रसिद्ध डाकू पंचम सिंह और ब्रह्मचारी डाकू को अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए राजी किया और ग्वालियर रियासत के हथकान थाना पर हमला कर 21 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी और सारे हथियार लूट लिए। घबराई अंग्रेज हुकूमत ने उनके सर पर 5 लाख रुपए का इनाम घोषित किया। इस हमले में उनकी दाईं आंख चली गई इसी कारण वे "सांगा"नाम से प्रसिद्ध हो गए। डाकू पंचम सिंह और ब्रह्मचारी डाकू के साथ मिलकर उन्होंने 142 अंग्रेज पुलिस कर्मियों की हत्या की।
1915 में उन्होंने प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन"मातृदेवी"की स्थापना की और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्रांतिकारी आंदोलन की नीव रखी। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान , चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी उन्हें अपना गुरु मानते थे। रासबिहारी बोस की प्रेरणा से उन्होंने ग्वालियर राज के तख्तापलट की योजना बनाई जिसका केंद्र उन्होंने मैनपुरी को बनाया। लाखों रुपए के हथियार इकट्ठा कर उन्होंने करीब 800 युवकों की एक सेना बनाई और तख्तापलट की तैयारी करने लगे। उनके सेनापति पंडित दम्मी लाल पांडे थे। 31 दिसंबर की रात जब वह भिंड के मिहोना जंगल में रुके थे तो उनकी ही सेना के एक गद्दार दलपत सिंह ने अंग्रेजों को उनकी खबर दे दी। सिंधिया राज और अंग्रेज पुलिस की संयुक्त मुठभेड़ में 35 क्रांतिकारी मारे गए और 60 क्रांतिकारी गिरफ्तार हुए। इस मुठभेड़ में 54 ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी मारे गए। यह मुठभेड़ गुलाम भारत की सबसे बड़ी मुठभेड़ कही जाती है। पंडित गेंदालाल दीक्षित और दाम्मी लाल पांडे गिरफ्तार हुए उनके ऊपर मुकदमा चला।
यह मुकदमा प्रसिद्ध"मैनपुरी षड्यंत्र केस"के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सभी लोगों को सजाएं हुई। पंडित गेंदालाल दीक्षित सजा के बावजूद जेल से फरार हो गए और दिल्ली में जाकर क्रांतिकारी संगठन बनाने का प्रयास करने लगे। 21 दिसंबर 1920 को दिल्ली के बाड़ा हिंदू राव अस्पताल में उनकी गुमनाम मृत्यु हो गई।
आज कितने दुर्भाग्य की बात है कि उनकी मृत्यु के 100 साल पूरे होने के बाद भी उनका कोई नाम लेवा भी नहीं है जबकि उन्होंने अपना सारा जीवन इसी भारतवर्ष की आजादी के लिए समर्पित कर दिया। इस महान आत्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि।