वे डरते हैं
किस चीज़ से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और ग़रीब लोग
उनसे डरना बंद कर देंगे।
यह प्रसिद्ध पंक्तियां महाकवि गोरख पांडे द्वारा उकेरी गई हैं. महाकवि गोरख पांडे मेरे सबसे प्रिय कवि रहे हैं. आज से 34 वर्ष पूर्व उन्होंने 29.01.89 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के झेलम छात्रावास में आत्महत्या कर ली थी और 30.01.89 को उनका अंतिम संस्कार हजारों लोगों की उपस्थिति में दिल्ली के निगमबोध घाट पर हुआ था. आज के दिन ही उनका नश्वर शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया था.
मैंने निश्चय किया था कि आज के दिन उनके गांव जरूर जाऊंगा. तो मैं चल पड़ा उनके गांव पंडित मुंडेरा देउरवा जो मेरे ही क्षेत्र के थाना रामपुर कारखाना जनपद देवरिया में गंडक नदी के एकदम किनारे बसा हुआ गांव है. पतले रास्ते, हरे भरे खेतों , बड़े-बड़े आम और सागौन के बगीचों से गुजरता हुआ उनके घर पर पहुंच गया. घर पर मेरी मुलाकात उनके छोटे भाई बलराम पांडे और उनके भतीजे विष्णु पांडे से हुई. उनके घर पर पहुंचने के उपरांत मेरे अंदर उसी प्रकार की लघुता का भाव जगा जो भाव सुदामा को द्वारकाधीश के महल पर पहुंचने के बाद आया था. हम लोग इस मृत्य संसार में चाहे जो भौतिक उपलब्धि प्राप्त कर लें वह महाकवि गोरख पांडे की लिखी किसी एक कविता की बराबरी भी नहीं कर सकती. उनके छोटे भाई बलराम पांडे ने जब उनकी स्मृतियों को साझा करना शुरू किया तो लगा जैसे कि हम दोनों उसी दुनिया में वापस पहुंच गए हैं जिस दुनिया में गोरख पांडे रहा करते थे. बातचीत के क्रम में यह भी पता चला कि उनका विवाह 1962 में श्रीमती नगीना देवी से हुआ था जिनकी 1976 में मृत्यु हो गई. वह भी हेतिमपुर देवरिया की रहने वाली थी. मैं आज तक महाकवि गोरख पांडे को अविवाहित ही जानता था शायद समूचा साहित्य जगत भी अविवाहित ही जानता है. जब मैंने उनकी डिग्रियां देखी, उनके पत्र देखे, पत्र में उनकी अभिव्यक्ति को देखा तो लगा कि कभी-कभी ईश्वर भी कितना बड़ा अन्याय करता है. जिस व्यक्ति के आगे पूरे साहित्य संसार को झुक जाना चाहिए था वह चंद पैसे के लिए कितना मोहताज था.
मैंने उनकी तीनों कविता संग्रह स्वर्ग से विदाई, लोहा गरम हो गया है और समय का पहिया पढ़ी है और मुझे यह लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि दुष्यंत कुमार हो या सुदामा पांडे वे इनकी लेखनी के आगे कहीं भी नहीं टिकते हैं.
समाजवाद, स्त्री सशक्तिकरण और आर्थिक समानता गोरख पांडे की कविताओं के केंद्र बिंदु थे. इसी कारण जब वह किसी मजदूर की आंखों के दर्द को देखते थे तो उनकी लेखनी सहज कह उठती थी कि.
"ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिए।"
लोकतंत्र में सत्ता लोलुपता को वे सदैव अपनी लेखनी से दुत्कारते रहते थे. वे लिखते हैं कि.
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।
मुझे इस बात की बहुत तकलीफ है कि जिस देवरिया की धरती पर वह पैदा हुए वहां के लोग ही उनको भूल गए. मुझे आशा नहीं वरन पूरा विश्वास है कि वह दिन भी आएगा जब देवरिया के लोग अपने इस सपूत को याद करेंगे और गर्व से कहेंगे कि गोरख पांडे हमारी पूंजी हैं हमारी विरासत हैं हमारी पहचान हैं.