रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।
गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।
जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था.
भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों में हल्दीघाटी महाकाव्य की यह प्रसिद्ध कविता हनुमान चालीसा और सुंदरकांड की तरह जन-जन के हृदय में निवास करती है. यह वह पहली कविता है जिसे मेरे आदरणीय दादा जी मुझे गा गा कर सुनाया करते थे. यह कविता हमारे आत्मसम्मानी पूर्वजों के बलिदान और वीरता का प्रसिद्धतम उदाहरण है.
इस महाकाव्य हल्दीघाटी के लेखक पंडित श्याम नारायण पांडे का जन्म 05 अगस्त 1907 को रामाज्ञा पांडे और
बतासी देवी के छठवें पुत्र के रूप में मऊ जनपद के छोटे से गांव डुमरांव में हुआ था. क्रांतिकारियों के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ से साहित्याचार्य की उपाधि लेने के उपरांत उन्होंने देश की राष्ट्रभक्ति को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य बना लिया. उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत में हल्दीघाटी जैसा महाकाव्य 1937 ईस्वी में लिखा. यह महाकाव्य इतना प्रसिद्ध हुआ कि समस्त उत्तर भारत में यह सर्वाधिक बिक्री वाला महाकाव्य उस समय बन गया. राणा प्रताप के वीरता और बलिदान को जन-जन में पहुंचाने वाला यह महाकाव्य आज भी उतना ही जोश पाठकों के मन में भर देता है.
1939 ईस्वी में उन्होंने जौहर महाकाव्य लिखा. रानी पद्मिनी पर लिखा गया यह महाकाव्य भारत के सबसे प्रसिद्ध महाकाव्य में से एक है. इन दो महाकाव्यों के अलावा वीर हनुमान, परशुराम, तुमुल, आरती, माधव, रिमझिम, आंसू का कण, गोरा वध उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियां है.
राजस्थान के मेवाड़ को वह अपना आदर्श मानते थे. उनका यह मानना था कि मेवाड़ भारत के स्वाभिमान की रीढ़ थी. हल्दीघाटी महाकाव्य में जब अकबर के आक्रमण का समाचार जब महाराणा प्रताप को मिलता है उस समय श्याम नारायण जी की लेखनी कह उठती है-
यह एकलिंग का आसन है¸
इस पर न किसी का शासन है।
नित सिहक रहा कमलासन है¸
यह सिंहासन सिंहासन है.
यह सम्मानित अधिराजों से¸
अर्चित है¸ राज–समाजों से।
इसके पद–रज पोंछे जाते
भूपों के सिर के ताजों से.
इसकी रक्षा के लिए हुई
कुबार्नी पर कुबार्नी है।
राणा! तू इसकी रक्षा कर
यह सिंहासन अभिमानी है.
श्याम नारायण जी की इसी देशभक्ति का मैं अपने विद्यार्थी काल से ही कायल रहा हूं. इसी कारण 5 अगस्त को मैंने उनके गांव डुमराँव,मऊ जाने का फैसला किया. जब मैं उनके गांव पहुंचा तो मेरी मुलाकात उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमावती पांडे से हुई. 100 वर्ष से ऊपर की इस महान महिला के दर्शन से मेरा हृदय धन्य हो गया. आत्मीयता और ममत्व भाव से परिपूर्ण माता जी में जहां एक तरफ अपने पति के महान विरासत का गर्व कूट कूट कर भरा हुआ था वहीं दूसरी तरफ एक साधारण महिला की तरह अपने परिवार के भविष्य की चिंता भी थी. माता जी को देखकर मन में यह कसक उठी कि जिनके पति का साहित्य राष्ट्रीय विरासत है,जिन्होंने अपना सारा जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया उनकी पत्नी को यह देश उस समर्पण का कण भर भी लौटा नहीं सका.
श्याम नारायण पांडे जी के प्रपौत्र रितेश और परिवार के अन्य सदस्यों से भी काफी स्नेहिल मुलाकात हुई.
पंडित श्याम नारायण पांडे जी ने जो अपना मकान अपने गांव में बनवाया उसका नाम उन्होंने कविता रखा था. इसी मकान में 1991 में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली.
मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य हुआ कि 5 अगस्त पर जब श्याम नारायण पांडे का जन्म दिवस था तो किसी ने भी उनको श्रद्धांजलि देने तक की जहमत नहीं उठाई लेकिन फिर यह सोच कर अपने हृदय को शांत कर लिया कि अपने पूर्वजों को कोई सम्मान न देना यह हम हिंदी भाषी लोगों की महान परंपरा ही है.
जब हम लोग कक्षा 4 के विद्यार्थी थे तो हम लोगों को पंडित श्याम नारायण पांडे जी की यह कविता पढ़ाई जाती थी जो उनके वीरों की भूमि मेवाड़ के प्रति अगाध प्रेम को प्रदर्शित करता है.
थाल सजाकर किसे पूजने
चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का
पीताम्बर तन पर डाले?
इधर प्रयाग न गंगासागर,
इधर न रामेश्वर, काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा?
कहाँ चले तुम संन्यासी?
मुझे न जाना गंगासागर,
मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को
मेरी आँखें प्यासी॥
वहीं जा रहा पूजा करने,
लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा,
वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥
मनोज मुंतशिर ने पंडित श्याम नारायण पांडे के हल्दीघाटी को अपने आवाज में गाया है वह भी बहुत जोश के साथ. आप लोग उसको यूट्यूब पर भी सुन सकते हैं उसको सुनना ही श्याम नारायण पांडे जी को सच्ची श्रद्धांजलि देना है.
पंडित श्याम नारायण पांडे जी के जन्मदिवस पर मेरी ओर से उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि.