Super Star Banmala

एक सुपरस्टार हीरोइन जिसे पिता की नाराज़गी ने सन्यासिनी बना दिया। नाम है इनका वनमाला। और 1940-50 के दौर में ये फिल्म इंडस्ट्री की बहुत बड़ी अदाकारा हुआ करती थी। आज किस्सा टीवी आपको वनमाला जी की कहानी बताएगा।  
वनमाला जी का जन्म हुआ था 23 मई 1915 को उज्जैन में। इनके पिता का नाम था राय बहादुर कर्नल बापूराव आनंदराव पंवार। भारत को आज़ादी मिलने से पहले वनमाला जी के पिता मालवा प्रांत के कलैक्टर हुआ करते थे। बाद में वो शिवपुरी के कमिश्नर बन गए। वनमाला जी के पिता ग्वालियर के राजा माधवराव सिंधिया प्रथम के विश्वासपात्र थे। और करीबी सलाहकार भी। वनमाला जी की परवरिश ग्वालियर रियासत में हुई थी। वो भी एकदम राजसी तौर-तरीकों से। उनकी स्कूलिंग हुई थी सरदार डॉटर्स स्कूल से। ये वो स्कूल था जो शाही परिवार से जुड़े बच्चों के लिए विशेषतौर पर स्थापित किया गया था। ग्वालियर के ही एक कॉलेज से वनमाला जी ने बीए की डिग्री भी ली थी। जो उस ज़मान में बहुत बड़ी बात समझी जाती थी।

वनमाला जी की मौसी उन दिनों पुणे में रहती थी। वो वहां नामी मराठी साहित्यकार व रंगकर्मी आचार्य अत्रे के एक स्कूल में प्रींसिपल की हैसियत से काम कर रही थी। उस स्कूल का नाम था अगरकर हाईस्कूल। बीए पास करने के बाद वनमाला जी मौसी के पास पुणे आ गई। और उसी स्कूल में टीचिंग करने लगी। टीचिंग के साथ-साथ वनमाला जी ने पुणे से ही बी.टी का कोर्स भी किया। टीचिंग की उस नौकरी के दौरान वनमाला जी की जान-पहचान आचार्य अत्रे से भी हो गई। और उस जान-पहचान का नतीजा ये हुआ कि वनमाला जी को वी.शांताराम, मास्टर विनायक व बाबूराव पेंढारकर जैसी उस दौर के सिनेमा की दिग्गज  हस्तियों से मिलने का मौका भी मिला। उन्हीं दिनों मास्टर विनायक अपनी एक फिल्म पर काम कर रहे थे जिसका नाम था लपनडाव। 

चूंकि मास्टर विनायक को लपनडाव के लिए एक हीरोइन की तलाश थी तो उन्होंने वनमाला जी को उस फिल्म में मुख्य हीरोइन का किरदार ऑफर किया। वनमाला जी चाहती तो नहीं थी कि वो फिल्मों में काम करें। लेकिन मास्टर विनायक सहित अन्य हस्तियों के बहुत ज़्यादा कहने पर वो उस फिल्म में काम करने को राज़ी हो गई। साल 1940 में लपनडाव रिलीज़ हुई। उसी वक्त वनमाला जी को सोहराब मोदी की फिल्म सिकंदर में काम करने का ऑफर आया। उन्होंने वो ऑफर भी स्वीकार कर लिया। सिकंदर के मुख्य हीरो थे पृथ्वीराज कपूर। वनमाला जी उन्हीं की हीरोइन थी। उनके किरदार का नाम था रुख़साना। वो फिल्म ज़बरदस्त हिट रही। ब्लॉकबस्टर साबित हुई। इस फिल्म की सफलता ने वनमाला जी को स्टार बना दिया।

इस तरह दूसरी ही फिल्म से वनमाला जी फिल्म इंडस्ट्री की कामयाब एक्ट्रेस बन गई। लेकिन एक कीमत भी इस कामयाबी के बदले में वनमाला जी को चुकानी पड़ी। वनमाला जी के परिवार के लोगों ने उनकी खूब आलोचना की। उनके फिल्मों में काम करने का बहुत विरोध किया। वनमाला जी के पिता तो उनसे इस कदर नाराज़ हुए कि उन्होंने वनमाला जी से अपने रिश्ता खत्म कर लिया। और कह दिया कि वनमाला कभी ग्वालियर ना आएं। वनमाला जी को इस सबसे दुख तो बहुत पहुंचा। लेकिन उन्होंने फिल्मों में काम करना जारी रखा। अगले कई सालों तक वो फिल्मों में काम करती रही। और तकरीबन 22-23 फिल्मों में वनमाला जी ने अभिनय किया। 

अभिनय करने के अलावा वनमाला जी फिल्में भी प्रोड्यूस करने लगी थी। आचार्य अत्रे के साथ मिलकर वनमाला जी ने कुछ हिंदी फिल्में प्रोड्यूस की थी। हिंदी फिल्मों के अलावा आचार्य अत्रे जी के साथ मिलकर ही वनमाला जी ने कुछ मराठी फिल्में भी प्रोड्यूस की। इनमें से एक थी श्यामची आई। इस फिल्म को मराठी साहित्य का बहुत बड़ा नाम रहे साने गुरूजी के इसी नाम के उपन्यास पर बनाया गया था। इस फिल्म में वनमाला जी ने अभिनय भी किया था। श्यामची आई फिल्म बहुत सफल रही थी। साल 1953 में इसी फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का प्रथम राष्ट्रपति पुरस्कार भी जीता था। इस समय वनमाला जी अपने करियर के शिखर पर थी। लेकिन इसी समय कुछ ऐसा भी हुआ कि श्यामची आई वनमाला जी की आखिरी फिल्म भी साबित हुई।

वनमाला भले ही फिल्म इंडस्ट्री का बहुत बड़ा नाम, बहुत बड़ी स्टार बन गई हों। लेकिन उनके पिता अभी भी उनसे नाराज़ थे। वो उनसे बात करना ज़रा भी पसंद नहीं करते थे। वनमाला जी के पिता के कुछ बहुत करीबी दोस्त थे जो इस बात से दुखी थे। और उन्हें वनमाला जी की काफी फिक्र भी होती थी। ये दोस्त थे ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया और गुजरात की सचिन रियासत के नवाब हैदर अली खां। वनमाला जी के पिता के ये दोस्त उन्हें अक्सर समझाया करते थे कि अपनी बेटी से नाराज़गी आपको खत्म करनी चाहिए। उनके काफी समझाने पर वनमाला के पिता ने फैसला किया कि वो बेटी को माफ कर देंगे। लेकिन उनकी एक शर्त है। वो शर्त थी वनमाला जी का फिल्म इंडस्ट्री से पूरी तरह दूर होना।

वनमाला जी के पिता चाहते थे कि बेटी फिल्म इंडस्ट्री से कोई रिश्ता ना रखे। अपने सभी रिश्ते खत्म कर ले। वनमाला जी ने पिता की शर्त मान ली। उन्होंने खुद को फिल्म इंडस्ट्री से पूरी तरह से दूर कर लिया। और इस तरह श्यामची आई वनमाला जी के करियर की आखिरी फिल्म साबित हुई। हालांकि इनकी आखिरी रिलीज़्ड फिल्म थी अंगारे, जो साल 1954 में वनमाला जी के मुंबई छोड़ने के बाद रिलीज़ हुई थी। वनमाला जी के पिता उन्हें अपने साथ ग्वालियर ले आए। फिर प्रायश्चित कराने के लिए पिता उन्हें अपने साथ ही बद्रीनाथ धाम की यात्रा पर भी ले गए। बद्रीनाथ यात्रा से लौटकर वनमाला जी वृंदावन आ गई। और वहां सन्यासिनी बनकर जीवन बिताने लगी। उन्होंने अपना नाम भी वनमाला से सुशीला बाई कर लिया था।

वृंदावन में रहकर भी वनमाला जी का कला के प्रति प्रेम कम नहीं हुआ। वो मथुरा स्थित बृज कला केंद्र की अध्यक्ष बनी। साथ ही वृंदावन गोवर्धन में उन्होंने स्वामी हरिदास कला संस्थान की स्थापना की। इस संस्थान में बच्चों को संगीत व नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। जीवन के आखिरी साल वनमाला जी ने मुंबई में अपनी बहन सुमित्रा देवी धनवटे के पास बिताए थे। हालांकि मृत्यु से कुछ वक्त पहले वनमाला जी ग्वालियर आ गई थी। ग्वालियर में ही 29 मई 2007 को वनमाला जी का निधन हो गया। जिस वक्त वनमाला जी का निधन हुआ था उस वक्त उनकी उम्र 92 साल थी।

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