utara huaa chehara, book of Dr Ved Prakash Tiwari

कविवर मित्रवर यशस्वी चिकित्सक डॉ.वेदप्रकाश तिवारी जी उ.प्र.के देवरिया जनपद के भाटपार तहसील अन्तर्गत परसौनी आनंदघन ग्राम के निवासी हैं।लगभग पांच-छ: वर्ष पूर्व पोपुलर होम्यो हाल भाटपार में उनसे मुलाकात हुई व परिचय आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त हुआ।हमारी यह अभिन्न मित्रता उसी मुलाकात का प्रतिफल है।
           उनके तिसरे काव्य संकलन "उतरा हुआ चेहरा" के प्रकाशित होने की सूचना उनके द्वारा मिली तो मैनें विद्यालय से लौटते वक्त बंगरा बाजार में स्थित उनके चिकित्सालय पर उनसे मिलने का मन बना लिया और इस मुलाकात के दौरान उन्होंने इस पुस्तक की एक प्रति मुझे सप्रेम भेंट किया।आज मैनें इसे पढ़ना आरंभ किया और संकलित कविताओं के सघन भावों की गहराई ने मुझे ऐसा डुबोया कि अंतिम कविता के पूर्ण पठन तक मैं डुबा ही रह गया।मैं दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि एक बार इस पुस्तक को पढ़ना आरंभ करने के बाद कोई पाठक तब तक नहीं रूक सकता जब तक इसे पूरा न पढ़ ले।सामाजिक राजनीतिक विषमताएँ,विडंबनायें,मार्मिक परिस्थितियों पर इनकी
दृष्टि अचूक है।ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी प्रणम्य साहित्यिक साधना एवं श्रम हेतु अजस्र ऊर्जा की प्राप्ति ये इन्हीं दिव्य स्रोतों से प्राप्त करते हैं।
                
           इनकी कविताओं में भटकाव से सन्मार्ग की ओर वापसी कराने की सक्षमता है।इनकी कवितायें स्वार्थ व भ्रम से भावित स्वयं में व्यस्त रहने वाले संसारिक दुर्वृति की दुरावस्था वाले युग में जीवन मूल्यों के संरक्षण हेतु सजग रहने का पाठ पढ़ाती हैं।इनकी काव्य कृतियों की एक-एक पंक्तियों से यह प्रमाणित होता है कि कविवर लोकपीड़ा व स्वपीड़ा में कोई अंतर नहीं रखते।लोग भले हीं अपने लिए जीतें हों परंतु जग के लिए जीने वाले कवि हैं डॉ.वेदप्रकाश तिवारी जी।इनकी "युद्ध" नामक कविता की इन प्रारंभ की निम्नलिखित चार पंक्तियों-
"अहिंसक होने की भ्रांति में
और धार्मिक होने के अहंकार में
तीन हजार सालों में 
पांच हजार युद्ध‌ लड़े गये.."
को पढ़ते हीं मन पुनर्विचार हेतु संकल्पित हो जाता है।
"युग पुरुष" कविता के माध्यम से त्रेता,द्वापर और कलियुग में क्रमश: सीता,द्रौपदी के साथ किए गये अन्याय एंव  समाज में वंशवाद,परिवारवाद,हत्या,लूट जघन्य पापादि कुकृत्यों द्वारा साम्राज्य विस्तार को बढ़ावा देने वाले दृश्यों को उपस्थापित करते हुये प्रश्न करते हैं कि,
"अब क्या बचा है कलियुग के प्रथम चरण में
जो अंतिम चरण में घटित होगा?....
और अंतिम पंक्तियों में कहते हैं कि,
"युग निर्माण के लिए नहीं है आवश्यकता
 किसी अवतार की
उसके लिए मनुष्य की असीमित संभावनाएं ही पर्याप्त हैं।
इनकी रचनाओं के प्रारंभ की पंक्तियों में जहाँ एक तरफ निरुपाय समस्यायें हैं वहीं उनकी अंतिम पंक्तियों में उन समस्याओं के सरल समाधान भी हैं।
"विकल्प" कविता में इनका संवेदनशील हृदय,पुल बन जाने के कारण पटना के गायघाट पर वर्षों से उपेक्षित व खड़े जहाज को देखकर मर्माहत है,ये पीड़ित हैं यह सोंचकर कि इस जहाज के तरह ही हमारे-आपके परिवार में बड़े-बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है।
"घिसे हुए पांव" कविता में ये जीवन की समस्याओं से निजात पाने हेतु अंधविश्वास,टोटके अपनाने व सफलता हेतु शार्टकट मारने वालों को संदेश देते हुए कहते हैं कि,
"घोड़े के पांव के घिसने से 
निकला हुआ नाल
तुम टांग देते हो घर के दरवाजे पर
इस भोले विश्वास के साथ
कि इससे आएगा जीवन में कोई बदलाव
पर तुम भूल जाते हो यह बात
कि बदलाव के लिए पहले जरूरी है
कि हमारे पांव कितने घिसे हैं"
"ढलती उम्र" कविता में ढलती उम्र के नकारात्मक पक्ष से अधिक उसके सकारात्मक पक्ष की सार्थकता को सिद्ध करते हुए अथवा उस अवस्था के अपरिमित आघात जन्य वेदना को छुपाने की कोशिश करते हुए कहते हैं कि,
              "जब होने लगे धुंधली नजरें
               पड़ने लगे याददाश्त कमजोर
               देने लगे सुनाई कम
               तो ढलती उम्र का असर जानकर
               मत होना असहज,असंतुष्ट
               बल्कि खुश होना यह सोचकर
             अब नहीं होगा उनकी बातों का असर
             जिनको सुनकर उठती है मन में पीड़ा
कुछ आगे की पंक्ति में कहते हैं,
              आसान होगा भूलना 
              उन चेहरों को भी
              जिनकी ममता घेरे रहती है 
              प्रतिपल
              इन बंधनों से मुक्त होकर ही
              मिलता है अवसर 
              अपने आप को जानने का
और अंतिम पंक्तियों में घोर निराशा की स्थिति में भी प्रबल आत्मविश्वास जगाते हुए कहते हैं कि,
              "यदि छुट भी जाए 
              सबका साथ 
              तो थोड़े कष्ट में भी
              मन नहीं होगा उदास
              आपको जीवित रखेगा
              आपके भीतर का उजास"
इनकी लेखनी के स्याह रंग में अनेक रंगो के साथ मर्म,करूणा व वैराग्य के रंग भी सन्निहित हैं।
ये "विरासत" नामक कविता में कहते हैं कि,
 "बाबूजी के गुजरने के कुछ दिन बाद
 तहसील का एक कर्मचारी 
 मेरे नाम का पत्र लेकर आया
 जिसमें लिखा था-
 आपके पिता की जमीन और मकान से
 हटाकर उनका मालिकाना हक
 अब उसे किया जाता है आपके नाम।
 पत्र पढ़ने के बाद
 मैनें नम आँखों से देखा
 घर की तरफ,
 सोचने लगा
 पुरखों की यह विरासत
 जिसके निर्माण में
 नहीं रहा कभी मेरा कोई योगदान
 आज सब कुछ है मेरे नाम
 एक दिन जब मैं भी नहीं रहूँगा
 तो यह सब किसी और का होगा
 मैं सोचते हुए ऐसे लोक में डूब गया
 जहाँ नहीं है कुछ भी अपना
 छुट जाना ही जिसकी नियति है
 उसके छुटने का इंतजार 
 क्या करना।"
"पिता का ममत्व" नामक कविता इनके जीवन का दर्शन है।
"योद्धा", "माँ की अनुकृति"और "रोटियां" शीर्षक माँ को समर्पित कविताएँ सिर्फ अनूठी ही नहीं बल्कि अनवरत पठनीय व वंदनीय भी हैं।
इस कृति के नाम से संदर्भित रचना "उतरा हुआ चेहरा" में कवि,श्रम व पूंजी के अंतर्विरोध जन्य वेदना को सार्वजनिक करते हुए कहते हैं कि-
"धंसी हुई आँखें
 झुके हुए कंधे
 बलगम से जकड़ी छाती
 टूटता हुआ दम
 खींच रहा है ठेला
 तोड़ रहा है पत्थर
 कई दशकों से
 इस उम्मीद के साथ
 कि श्रम और पूंजी के
 इस अंतर्विरोध का 
 कभी तो होगा अंत..
 कविवर कुछ आगे की पंक्ति में कहते हैं-
 हाशिये पर खड़ा आदमी अब आना चाहता है
 मुख्य धारा में
 इसलिए सिर्फ सरकारी दस्तावेजों तक
 वह नहीं रखना चाहता सीमित अपना नाम
 और अंत की पंक्ति में जिस मर्म को व्यक्त करने के लिए इस पुस्तक को यह नाम दिया और इस रचना का सृजन किया उसे व्यक्त करते हुए कहते हैं कि -
 "इक्कीसवीं सदी में भी 
  यदि नहीं आ पाई
  उन उतरे हुए चेहरों पर मुस्कान
  जिनसे निर्मित है पूरी दुनिया,पूरा हिंदुस्तान 
  तो आजादी के इतने वर्षों बाद भी
  कराहती रहेगी मनुष्यता।"
  सचमुच आज हम चाहे अपने विकास का जितना भी ढिंढोरा पीट लें परंतु सच्चाई यही है कि हाशिए पर खड़े व्यक्ति को आज भी इंतजार है मुख्य धारा में आने का।यह रचना प्रश्न खड़ा करती है कि कब आयेगी मुस्कान उन उतरे हुए अनगिनत चेहरों पर?
इनकी रचनाओं,पुस्तकों के पठनोपरांत मन इस सार्वभौमिक तथ्य को सहर्ष स्वीकार करता है कि कवि को माँ वागीश्वरी का विशिष्ट अनुग्रह प्राप्त है क्योंकि इसके अतिरिक्त इतनी सारगर्भित व समृद्ध रचनाओं के सृजन का कोई अन्य मुख्य आधार नहीं हो सकता।पुस्तक में 74 कविताएँ हैं एवं सारी की सारी कविताएँ उत्कृष्ट हैं।सबमें मौलिकता है।सबकी पकड़ मजबूत है।वे हमें पकड़ती हैं और जोर-जोर से झकझोरती हैं।मैं इनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।मुझे विश्वास है कि आने वाले समय में ये काव्याकाश में अहर्निश चमकने वाले सितारे के रूप में स्थापित होंगें।इनका यश दशों दिशाओं में प्रसारित होगा।
                     एक निवेदन मैं यह करना चाहता हूँ कि मुझे समीक्षा शिल्प का ज्ञान नहीं,कई पुस्तकें अब तक प्राप्त हुईं परंतु अपनी इसी अज्ञानत व कमजोरीवश अब तक किसी एक भी पुस्तक पर समीक्षा लेखन का साहस नहीं जुटा पाया परंतु मित्रवर ने मुझे यह पुस्तक भेंट करते हुए मुझे उत्साहित करते हुए कहा कि इस पर आपको कुछ लिखना है।पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद यह मैनें जो लिखा है यह समीक्षा है भी या नहीं मैं यह नहीं जानता।वस्तुत: समर्पित है इस अपेक्षा साथ आपके समक्ष कि मेरी त्रुटियों का अन्वेषण कर आप मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
                        अंतत: जिनकी पावन स्मृति में यह उत्कृष्ट कृति "उतरा हुआ चेहरा" समर्पित है उन परम श्रद्धेय शिवध्यान पांडेय जी को अनवरत नमन,पुस्तक के प्रारंभ में "ये कविताएं" शीर्षक पठनीय भूमिका के लेखक आदरणीय राजकिशोर राजन जी को सादर नमन एवं परम मित्र कविवर वेदप्रकाश तिवारी जी को पुनर्पुन: हार्दिक शुभकामनाएँ व बधाइयाँ।

      विशेष आग्रह:- पुस्तक " उतरा हुआ चेहरा" अमेजन पर उपलब्ध है,कृपया आप अपनी प्रति आज ही सुरक्षित करायें।
              इन्हीं शुभेच्छाओं के साथ आपका
                                🙏🙏
                       रामेश्वर तिवारी 'राजन'
                     माध्यमिक शिक्षक सिवान

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