Gangotri dham

Part-4
गंगोत्री ( माँ गंगा के उद्गम स्थल) धाम की यात्रा
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    पिछले  आख्यान में हम  आपको बता चुके हैं कि किस प्रकार उत्तराखंड  राज्य के पर्वतीय इलाके में रात आठ बजे के बाद यात्रा की मनाही है।इसके बावजूद भी हमारी बसों ने बरकोट से मनेरी की करीब 100 कि मी की यात्रा के लिये
रात 8:30 बजे चल पडीं  और 10 बजे ब्रह्म खाल नामक  स्थान पर पुलिस द्वारा रोक ली गईँ 
बाद में निकट ही स्थित एक होटल मालिक ने हमारी परिस्थिति को समझ कर रात रुकने के लिये न केवल रियायती  दर पर जगह दिया,अपितु भोजन की व्यवस्था भी कराई।
         ब्रह्म खाल से मनेरी की दूरी 65 कि मी के करीब थी,सुबह पांच बजे तैयार होकर जब हम
बस में बैठे तो बताया गया कि  आगे का रास्ता खराब है उस पर काम चल रहा है,हमारी बसें दसेक  कि मी चली होंगी की धरासू नामक कस्बे के समीप रास्ता क्षतिग्रस्त  हो गया था,क्योंकि बड़ी  बड़ी  माशीनों द्वारा  पहाड़ों को काट कर रास्ता चौडा  किया जा रहा था,मशीनों की गड़ गडाहट से कान फटे जा रहे थे। हमें यह अहसास 
हुआ कि  ईश्वर जो करता  है अच्छा ही करता है
क्योंकि रात में यदि पुलिस चौकी पर हम न रोक लिये जाते और इस बियाबान तक आ जाते तो हमारी क्या गति हुई होती।बस बुरी तरह हिच कोले ले लेकर बहुत धीमी गति से चल रही थी
लगता था कि  कमर टूट जायेगी।यहाँ  के पहाड़ भी ठोस न होकर भुरभूरे थे जिन्का काफ़ी मलबा
सड़क पर फैल गया था।करीब 5-7 कि मी ऐसे ही चलने के बाद अच्छी सड़क मिल गई  संकरे और घुमावदार मोड काटती बसें पूरी स्पीड में दौड़ने लगीं।सबके जान में जान आई।
        दो घन्टे की लगातार यात्रा के बाद हम  उत्तर काशी जनपद के मुख्यालय पहुंच गये,शहर  से बाहर निकलते ही हमने देखा कि सड़क के किनारे एक चौड़े मैदान के बीच दर्जनों गाडियाँ रुकी हैं,पास ही पुलिस का कैम्प लगा था और दो लम्बी कतारों में औरतें और मर्द खड़े  थे।हमारी बसें भी एक तरफ रक गईँ,पता लगा कि  यहां
आगे की यात्रा के लिये यात्रियों का बायोमैट्रिक 
पहचान पत्र बनाया जा रहा था।हम भी अपने आधार कार्ड लेकर लाइनों में पीछे खडे हो गये
इसी समय उत्तरकाशी के डी  एम  और एस पी का काफिला आ गया,उन्हों ने निरीक्षण किया और विडियो ग्राफ़ी कराया।
लगभग एक घन्टे में सबका पहचान पत्र बन कर
मिल गया,वहीं एक रेस्तरां में सब लोग चाय पिए फिर हम आगे  रवाना हुए। रास्ते से गुजरते  हुए हम ने देखा कि  पहाड़ों पर कटीली झाडियों में रंग बिरंगे फूल खिले हुए हैं,खिल ती धूप के साथ
पहाड़ों का रंग भी बदल रहा था, कभी पूरी पर्वत
शृंखला पीताभ आभा से मंडित हो उठती ,अगले ही पल बादलों के साये में वे धुंधले और स्याह रंग के दिखाई देते।कहीं ठोस चट्टानी पहाड़ तो कहीं
चूने के पत्थर वाले सफेद रंग के पहाड़ दिखाई देते जिन्हें काटकर ट्रकों  में भर भर कर कहीं ले जाया जा रहा था।दिन के ग्यारह बजे के करीब
हमारी बसें  मनेरी कस्बे से होकर गुजरीं,हम अपने रात्रि विश्राम स्थल नारायण पैलस  होटल
को छोड़ते हुए आगे निकल गए।दूसरे ग्रुप के लोग कुछ आगे निकल आए थे,इसलिए  उन्हों ने  रुक कर होटल में ही अपना सामान रख दिया था क्योँकि  आज शाम को यहीं रुकना था। देर हो जाने के कारण हमारी बस होटल पर नहीं रुकी।
          ।कस्बे के बाहर एक ढाबे में  हम लोगो ने
रुक कर नाश्ता किया।यहाँ  उत्तराखंड के ढाबों और रेस्तरों में रोटी  के चौगुने आकार के बड़े  बड़े आलू के पराठे और सब्जी  मुख्य नाश्ता है,एक खा लो पेट भर जाय।चाय पीकर हम आगे निकले ,अब हमारी बस भागीरथी नदी के किनारे
सड़क से चल रही थी।रास्ते में जहाँ  पहाड़ कुछ कम ऊंचाई  के थे,उनकी तल्हटी  में भेड़  बकरियों के झुंड के झुंड  नजर आ रहे थे, जिनके  चरवाहे  सर पर रंग बिरंगी  पहाड़ी  टोपी 
लगाए  कुर्ते  पाजामें पहने कमर में सफ़ा बांधे
और हाथ में बांस की पतली छड़ी लिये उनकी रखवाली  कर रहे थे।औरतें घाघरा कुर्ती  पर ओढ़नी डाले अथवा ओढ़नी को माथे पर बांधे
पीठ पर टोकरी लट्काए,गले और वक्ष पर स्फटिक पत्थर की दर्जनों मालाएं  पहने,नाक में नथ डाले,  हाथ में हंसिये लिये झाडियों से ईंधन और चारे  इकट्ठी कर रही थीं।ये पहाड़ी  लोग बड़े परिश्रमी और स्वाभिमानी होने के साथ साथ  कठोर जीवन  के आदी होते हैं।
     रास्ते में भागीरथी के किनारे ऊंचाई  पर करीने से बसा हर्शिल गाँव  देखने को मिला।यहां से गंगोत्री धाम की दूरी चालिस कि मी है।आगे का रास्ता  अधिक तीखे मोड़ वाला,संकरा और
खतरनाक नजर आने लगा,हम  ऊँची ऊँची डरावनी चट्टानों  के बीच से गुज़र रहे थे जिनकी 
दूसरी ओर खोह और खाइयों की गहराई बढ़ती जा रही थी।अब  कहीं बस्तियां भी नजर नहीं आ रहीं थी,ऊँची खड़ी चट्टानों की चोटियों पर पतले लम्बे चीड़  के वृक्ष नजर आ रहे थे,जिनके बीच से
स्वच्छ निर्मल पानी के झरने  फूट कर गिर रहे थे
दूसरी ओर सैकड़ों फिट नीचे दूध की धार की तरह बहती भागीरथी।अद्भुत दृश्य देख रहे थे हम।चीड़ के वृक्षों को छोड़ और कोई वनस्पति नजर नहीं आ रही थी।हम  सहमे हुए मौन धारण कर बढ़े  चले जा रहे थे।आगे लंका नामक छोटे
से कस्बे को पारकर सबसे खतरनाक माने जाने वाली भैरो घाटी के दर्शन हुए।तीखे मोड़ों के कारण बस की गति भी धीमी हो चली।ऊँचे ऊँचे
शिलाखंडो से रास्ता बनाते  जगह जगह झरनों का शीतल जल सड़क पर गिर रहाथा,एक दो जगह चौडा स्थान देख बस वाले ने बस रोका तो
लोग बाट्ल लेकर झरने का पानी भरने और पीने
के लिये दौड़ पड़े।आह! कितना  मीठा और शीतल पानी।पीकर मन तृप्त हो गया।मैने अगल बगल के सुन्दर दृश्यों को मोबाइल कैमरे में कैद किया और आगे की मंजिल की ओर चल पड़े।
इसी इलाके में गंगोत्री धाम के रक्षक  भैरो देवता 
का सुन्दर मंदिर दिख पड़ा।हम  बस में से ही प्रणाम  करके  आगे बढ़  गये।अब हंम इतनी
ऊँचाई  पर चल रहे थे कि  नीचे नदी के किनारे 
चलने वाले वाहन खिलौनो की तरह नजर आ रहे थे और सामने  दूर काले सफेद शिखरों पर  झरने, जमी बर्फ  के बीचसे चांदी की पतली रेखा की तरह दिखाई पड़  रहे थे मानों शिव की जटाओं से गंगा की असंख्य धाराएं  फूट रहीं हों। लगता था कि  इन्हीं पर्वत शृंखलाओं में से कोई गोमुख शिखर भी होगा जहाँ  से पाप ताप हारिणी  गंगा भी निकली होंगी।
      आगे गाड़ियों का काफिला मानो रुक सा 
गया शायद कहीं जाम  लगा हुआ था।हालांकि यहां पर मार्ग कुछ अधिक चौड़ा  और सपाट हो गयाथा।पता चला कि  आगे पुलिस की चेक पोस्ट
है और गाड़ियां वन- वे पास की जा रही हैं,हम  गंगोत्री धाम से तीन  कि  मी  की दूरी पर थे।20 मिनट की प्रतीक्षा के बाद चढ़ाई वाली गाड़ियों को बढने की इजाजत मिली ,थोड़ी ही देर में बस
गंगोत्री  कस्बे के पार्किंग पर पहुँच  गई,इस समय
दिन का डेढ़  बज रहा था।सब लोग  अन्य सामान बस में छोड़ केवल नहाने और पूजा की सामग्री
साथ में लेकर उतर पडे।बताया गया कि  गंगोत्री की धारा  और मंदिर की दूरी वहां से एक डेढ कि मी है,समूह के अधिकांश लोग  पैदल ही मंदिर की दिशा में चल पडे।मेरी पत्नी और त्रिभुवन 
जायसवाल की पत्नी इतनी दूर चल पाने में अस मर्थ थीं इस लिये हमें किराए पर ह्वील चेयर साइकिल लेनी पड़ी जिस पर उन्हें बिठाकर साथ
साथ हम भी चले।मार्ग के दोनों तरफ पूरा बाज़ार
सजा था और खूब रौंनक थी,स्टैंड पर चेयर चालक ने उतार दिया जहाँ  से दो सौ मीटर की सीढियां उतरकर गंगोत्री घाट  पर पहुंच गये। घाट  के किनारे सुन्दर चौड़ा  पाट  और एक प्रशस्त चबूतरा  बना हुआ था,बगल में कपड़े बदलने के  लिये जगह बनी हुई थी।
        अद्भुत दृश्य आँखों के सामने था।बाये  तरफ के पहाडों के बीच से उछ्लती कूदती  हरहराती किसी अल्हड़ बालिका की भांति अठखेलियां करती भागीरथी गंगा तीव्र वेग से उतर रहीं थी।हिम  मंडित शिखरों
की शोभा तो देखते  ही बनती  थी।चबूतरे के ऊपर स्नान के बाद पण्डा लोग  संकल्प और पूजन अर्चन करा रहे थे। गलन की ठंड  थी।जल का स्पर्श करने पर लगता था कि  अंगुलियां गल जायेन्गी।हमने  भी अपने कपड़े उतारे और सीढियों पर बैठे बैठे लोटे से जल भर कर स्नान किया। सीढियों पर पाँव तिकाना मुश्किल  था पर कुछ हिम्मती लोग वेगवती धारा के ढाई  तीन  फिट भीतर लगी हुई जंजीरों को पकड़ कर नहा रहे थे,न जाने कितने वस्त्र और साड़ियां इंन जंजीरो
से अटके नजर आ रहे थे।चारों ओर हर हर गंगे भागीरथी का स्वर
सुनाई दे रहा था।यह अलौकिक दृश्य देखकर मुझे भी गंगा स्तुति
की कुछ पंक्तियाँ  स्मरण हो आईं--
देवि  सुरेश्वरि भग्वति  गंगे त्रिभुवन तारिनि  तरल तरंगे
शंकर मौलि  विहारिनि विम्ले मम मति रास्तं तव पद कमले।।
भागीरथि सुखदाइनि  मातस्तव जल महिमा निगमे ख्यात:
नाह्ं  जाने तव महिमान्न पाहि  कृपामयि मैम ज्ञानम।।
      कहा जाता है कि  इच्छ्वकु  वंशी राजा सगर के जो बंगाल सागर तट पर कपिल मुनी के शाप से भस्म हो गये थे उनका उद्धार
करने के लिये सगर  के वंशज भगीरथ ने यहीं गंगोत्री तट पर एक पैर
पर खडे होकर हजारों साल तप किये और शिवजी  को प्रसन्न किये
फिर उनके  कंहने पर गंगा जी की स्तुत्ति  करके  उन्हें पृथ्वी पर उतरने
के लिये  राजी किये,जब ब्रह्मा जी ने उन्हें कमण्डल से छोड़ा तो वे 
शंकर जी की जटारूपी पहाडियों में उलझ गईँ। बाद में यहीं गंगोत्री धारा  के रूप में शिवजी  ने गंगाजी को अपनी जटाओं की लट  से मुक्त किया जो आगे भागीरथी  कहलाती हैं। जो आगे 2500 कि मी की दुर्गम यात्रा करते मार्ग में बसे अनेक नगरों महानगरों , वनखंडों,
मैदानों कछारों को सिंचित करते हुए कपिल मुनी के आश्रम में
शापित पड़े  भगीरथ के पूर्वजों को तारती पूर्व सागर में विलीन हो जाती है जिसे बंगाल की खाड़ी  कहा जाता है ,सागर में मिलने  के पहले अनेकों उथली धाराओं में विभाजित होकर  विश्व प्रसिद्ध वन्यजीव संकुल सुन्दर वन  का डेल्टा बनाती हैं।
       गंगोत्री धारा के समीप ही भागीरथी शिला स्थित है जिस पर
खडे होकर भगीरथ ने तपस्या की थी।हमने भी स्नान के पश्चात तीर्थ पुरोहित से पूजन अर्चन और संकल्प कराया तथा दानदक्षिणा  देकर
मंदिर की ओर दर्शन के लिये चल पड़े।वहाँ  पहले से ही दर्शनार्थियों की बडी  लम्बी लाइन लगी थी जिसे देखकर हमारी हिम्मत जवाब
दे गई,पर हिम्मत नहीं हारे,मंदिर के समीप पहुंचकर अस्वस्थ पत्नी
का हाल  गेट पर खडे एक पुजारी जी को बताया वे दयालु निकले 
और बाड़ा हटाकर  हमें प्रवेश करा दिया हमने आराम से दर्शन पूजन किया।वर्तमान मंदिर का निर्माण करीब ढाई  सौ वर्ष पूर्व अठारहवीं
शताब्दी में  गोरखा  कामाण्ड़र अमर सिंह थापा  द्वारा कराया गयाथा
जिसका जीर्णोद्धार  जयपुर दरबार ने कराकर वर्तमान स्वरूप प्रदान किया।गंगोत्री मंदिर में श्री गंगाजी,यमुना जी,सरस्वती जी,लक्ष्मीजी पार्वतीजी के अलावा अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ  हैं जिनके समक्ष
हाथ जोड़े मुद्रा में खड़ी  राजा भगीरथ की मूर्ति है।शीत काल में गंगाजी की पूजा ' मुखवाधाम में की जाती है तथा पूजा का अधिकार
सेमवाल जाति  के ब्राह्मणों को ही है।बताया गया कि  गंगा का प्राकृतिक उद्गम गंगोत्री धाम से 18 कि मी ऊपर गोमुख ग्लैशीयर से है
जहाँ  ठंड और अधिक तथा मार्ग भी दुर्गम है जिस पर पैदल अथवा
घोड़े से ही जाया जा सकता है।यह स्थान समुद्र तट से 10300 फिट 
की ऊंचाई  पर अवस्थित है।वैसे इस मंदिर में 500 और 2100 रु
जमा करके  वी आई पी दर्शन की व्यवस्था भी है।
      मंदिर से बाहर आकर हम पति पत्नी ने सबसे पहले जलपान किया
चाय पिए और वहाँ  घूम रहे फोटो ग्राफर से फोटो खिचवाया जिसे उसने दस मिनट में दे भी दिया,क्योंकि  यहाँ  आने का यही तो प्रमाण
रह जाने वाला था।ऊपर बाजार में आकर पत्नी के साथ छोटी मोटी 
चीजों की खरीदारी की और बस पार्किंग स्थल पर साढ़े  चार बजे तक
लौट आये।धीरे  धीरे और सहयात्री भी आ गये।करीब पाँच  बजे हमारी बस वापस अपने रात्रि पड़ाव  के लिये रवाना हुई।बीच में दो तीन जगह लम्बा जाम  झेलते हुए हम मनेरी स्थित नारायण पैलस
होटल पहुँचते  रात के ग्यारह बज गये।शरीर थक कर चूर हो रहा था,बगल स्थित रेस्तरां में किसी तरह भोजन करके  बिस्तर पर आते ही नींद आ गईं।अगली सुबह रुद्र प्रयाग जिले में स्थित  करीब 300 कि मी की यात्रा करके हमें गुप्त काशी पहुँचना था जो भगवान केदार नाथ जी के मार्ग में हमारा  अगला रात्रि पड़ाव  था।
                ।।जय माँ  गंगे।।
इंद्र कुमार दीक्षित नागरी प्रचारिणी सभा देवरिया।

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