ज़ेबुन्निसा का मज़हब /
(आज मेरे वाल पर मेरे द्वारा अनुदित औरंगज़ेब की बेटी और मुहब्बत की अप्रतिम शायरा ज़ेबुन्निसा उर्फ़ मख्फी की एक कविता पढ़कर कुछ मित्रों ने उनके बारे में विस्तार से जानना चाहा है। ज़ेबुन्निसा के बारे में मेरा एक विस्तृत आलेख गूगल पर मौज़ूद है।
जो मित्र उसे पढ़ना चाहें वे गूगल पर 'ज़ेबुन्निसा : अंतहीन इंतज़ार की ख़ामोध कविता' सर्च कर पढ़ सकते हैं। यहां मैं प्रेम को मज़हब और इबादत का दर्जा देनेवाली ज़ेबुन्निसा की एक रुबाई का अपना अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूं।)
मैं मुसलमान नहीं
एक बुतपरस्त हूं
अपने प्रिय की छवि के आगे
मैंने सर भी झुकाया है
और उसकी पूजा भी करती हूं
मैं ब्राह्मण भी नहीं हूं
मैंने अपना पवित्र धागा उतारकर
कब का फेंक दिया है
और लपेटे फिरती हूं गले में
अपने प्रिय के लंबे, घुंघराले बाल !