सब मेरे चाहने वाले हैं, मेरा कोई नहीं /
उर्दू को मुहब्बत की भाषा ऐसे ही नहीं कहा गया है। यह जो तहज़ीब, जो बांकपन, जो नाज़ुकमिजाज़ी और दिलों में उतर जाने की अदा उर्दू में है, वह और कहीं नहीं। मुझे इस बात का अफसोस रहा है कि मैं कभी उर्दू का शुद्ध उच्चारण नहीं कर सका। ज़ुबां में वैसी लोच कभी आ ही नहीं पाई। एक दफ़ा एक उस्ताद शायर को मैंने अपनी तकलीफ़ सुनाई तो उन्होंने कहा - 'बस मुहब्बत कर लीजिए ज़नाब, उर्दू अपने आप आ जाएगी।' आज यह देखकर अफ़सोस होता है कि एक ही भाषा से जन्मी और हिन्दी की सगी बहन कही जाने वाली मुहब्बत की यह भाषा आज अपने ही वतन में उपेक्षा झेल रही है। देश के विभाजन का दंश दोनों तरफ के लोगों के साथ उर्दू ने भी झेला है। यह मुसलमानों की भाषा बनती गई और हिंदी हिंदुओं की। हमारे देश में उर्दू बोलने, सीखने और इसकी क़द्र करने वाले लोगों की संख्या में तब से लगातार कमी आई है। उर्दू का यह वर्तमान परिदृश्य देखकर मुझे शायर मित्र Hasan Kazmi जी का यह शेर याद आ जाता है - 'सब मिरे चाहने वाले हैं मिरा कोई नहीं / मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूं !' सभी हिंदीभाषियों के बीच उर्दू की स्वीकार्यता बढाने के लिए बहुत लोग यह सुझाव देते हैं कि उसे फारसी लिपि छोड़कर देवनागरी लिपि अपना लेनी चाहिए। आपको नहीं लगता कि अगर ऐसा हुआ तो उर्दू अपनी नफ़ासत, लोच, कोमलता ही खो बैठेगी ?
आज विश्व उर्दू दिवस पर उर्दू प्रेमी दोस्तों को बधाई, अब्बास ताबिश के इस खूबसूरत शेर के साथ -चांद-चेहरे मुझे अच्छे तो बहुत लगते हैं / इश्क़ मैं उस से करूंगा जिसे उर्दू आए !