उन आंसुओं की हक़ीक़त को कौन समझेगा।
जिनमें मौत नहीं ज़िन्दगी का मातम है।।
ताज़िन्दगी आदमी इस मुग़ालते में जीता है कि उसकी इच्छाएं पूरी होंगी, पर वह ख़ाली हाथ इस दुनिया से चला जाता है.उसके जाने के बाद ही उसकी क़ीमत समझ में आ पाती है. अनजान मगर महान संगीत निर्देशक ग़ुलाम मोहम्मद की भी यही नियति रही.समूचा जीवन संगीत पर वार देने के बावजूद उन्हें कुछ न मिला. भारतीय सिनेमा की भ्रष्ट और कीचड़ सनी राजनीति के एक बड़े शिकार ग़ुलाम मोहम्मद भी थे. यह भीअजीब संयोग ही है कि जिस तरह संगीतकार आर. डी. बर्मन फिल्म "1942 : ए लव स्टोरी" के संगीत की सफलता देखने के लिए जीवित नहीं रहे, बिल्कुल वैसी ही स्तिथि संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद की भी रही.वे भी अपनी बड़ी फिल्म "पाकीज़ा" की बेमिसाल कामयाबी देखने के लिए जिंदा नहीं थे.
संगीत प्रेमियों के कानों में ‘पाकीज़ा’ के गीत आज भी किसी ताज़ा हवा के झोंके की तरह तैरा करते हैं.भारतीय सिने-संगीत के ये वो 'मील पत्थर' हैं जिन्हें ग़ुलाम मोहम्मद ने एक कुशल संगतराश की तरह तराशा,संवारा और संगीत के कोहनूरों में तब्दील कर दिया एवं ख़ुद के लिये भी अमरत्व का दर्जा हासिल किया.
18 मार्च, 1968 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी और पाकीज़ा इसके चार वर्ष बाद रिलीज़ हुई.पाकीज़ा का संगीत देते समय उनकी माली हालत अच्छी नहीं थी और वह हृदयरोग से ग्रस्त थे.ग़रीबी और तंगहाली ने उन्हें मुम्बई के एक दूर के सबर्ब 'बोरीवली' में रहने को मजबूर कर दिया था. फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के लिए राष्ट्रपति सम्मान पाने वाले संगीतकार गुलाम मोहम्मद के करिअर में एक वक्त ऐसा भी आया था,जब एक पठान ने अपने 10 रुपए वसूलने के लिए उन्हें 12 किलोमीटर पैदल चलाया था. पर पाकीज़ा ने ग़ुलाम मुहम्मद का नाम सबकी ज़ुबान पर ला दिया.इस फ़िल्म ने उन्हें उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया जो हर संगीतकार का दिव्य-स्वप्न होता है.
देखा जाए तो इस फ़िल्म का हर गीत, संगीत की दुनिया का एक मुकम्मल चैप्टर है. मुजरे को इतने दिलकश अंदाज़ में इससे पहले सिने-संगीत में पेश नहीं किया गया था.'यमन' पर आधारित 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ में लता की खनक और तबले की गमक अपने चरम पर नज़र आती है.'मांड' की अपनी परिचित राजस्थानी शैली में कंपोज़ किए गए : 'ठारे रहियो ओ बांके यार’ में जहां दिल को चीर देने वाले स्वर की तड़प है तो 'यमन कल्याण' और 'भूपाली' का सम्मिश्रण लिए 'चलते-चलते, यूं ही कोई मिल गया था’ में पार्श्वसंगीत और आवाज़ के अनोखे मेल की जादूगरी का एहसास होता है.'आज हम अपनी निगाहों का असर देखेंगे’ में प्यार की आज़माइश को आज़माते स्वर उभरे हैं. वहीं इन चारों धुनों के सामने 'मौसम है आशिकाना’ साधारण धुन लगने लगती है क्योंकि पाकीज़ा का संगीत था ही इतना अज़ीममुशान.ये तथ्य भी कम रोचक नहीं कि पाकीज़ा के 'थीम-मुज़िक' के लिए गायक भूपेन्द्र ने बारह कॉर्ड्स वाले 'गिटार' को 'सरोद' की तरह बजाया था.
ऊपर बताए गए गानों को हर कोई जानता है. इन पर काफी चर्चा और वाहवाही भी हो चुकी है. पर ग़ुलाम मुहम्मद द्वारा कंपोज़ किए गए पाकीज़ा के उन गानों का भी जवाब नहीं जो फ़िल्म में शामिल नहीं हुए.इन गानों को "पाकीज़ा रंग-बिरंगी" नाम से एक अलग एलपी रेकॉर्ड में एच.एम.वी. ने रिलीज किया था. 'पी के चले हम हैं शराबी’ में लता की आवाज की कोमलता और तबले की ठमक के बीच गुलाम मुहम्मद ने जो 'हार्मनी’ पैदा की वह अद्भुत है. लता की एकल आवाज में पहाड़ी पर कंपोज किया 'चलो दिलदार चलो’ फिल्म में शामिल किए गए लता-रफ़ी के युगल गीत से कहीं बेहतर बन पड़ा है.अन्य गीतों में 'प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई’ (लता) और 'कोठे से लम्बा हमारा बन्ना’ (शमशाद) पारंपरिक विवाह गीतों की धुनें हैं,'ये किसकी आंखों का नूर हो तुम’ (रफी) पारंपरिक मुशायरे की शैली का एक संगीतमय विस्तार है. 'जाएं तो अब कहां (रफी, शमशाद) कव्वाली शैली में है तो 'बंधन बांधो न’ (शोभा गुर्टू) राग भूपाली पर आधारित शास्त्रीय रचना है। सुमन कल्याणपुर की आवाज में पारंपरिक मुजरे को पुन: जीवंत करता 'गिर गई रे मोरे माथे की बिंदिया’ अनूठी रचना है और सुमन के आवाज पर नियंत्रण और फैलाव दोनों को ज़ाहिर करती है. इसी तरह 'तन्हाई सुनाया करती है’ (लता) कविता की तरह नरम और छूने वाली रचना बन पड़ी है। यह कहना अनुचित न होगा कि पाकीजा के लिए ग़ुलाम मुहम्मद ने अपनी क्षमता का बहुआयामी उपयोग किया और संगीत की हर विधा की बानगियां पेश कीं. यह दोहरे अफसोस का विषय है कि पाकीज़ा गुलाम मुहम्मद के जीवनकाल में न बन सकी और जब बनीऔर रिलीज़ हुई तो इसमें कई खूबसूरत और दिलकश गीत शामिल न हो सके.
क़ायदे से तो फ़िल्म पाकीज़ा के विशिष्ट संगीत के लिए गुलाम मुहम्मद को मरणोपरांत 'फिल्म फेयर अवार्ड' दिया जाना चाहिए था पर फ़िल्मों की दुनिया में राजनीति इस क़दर हावी थी कि पुरस्कार फ़िल्म 'बेईमान' को मिला, जिसका संगीत 'पाकीज़ा' के पासंग में भी नही ठहरता था.यहां ये बताना भी ज़रूरी है कि पाकीज़ा के पार्श्वसंगीत का ज़्यादतर हिस्सा ग़ुलाम मुहम्मद की मौत के बाद नौशाद साहब ने ही रिकॉर्ड किया था और परवीन सुल्ताना, राजकुमारी,वाणी जयराम, एवं नसीम बानो चोपड़ा के स्वरों में कई बेहद सुरीली ठुमरियां और बंदिशें गवाईं थीं जो फ़िल्म संगीत के माथे के चंदन तिलक से कम नहीं.
ग़ुलाम मोहम्मद को संगीत विरासत में मिला था उनके वालिद नबी बख़्श मशहूर तबलानवाज़ थे.पिता-पुत्र की जोड़ी ने:अलबर्ट थियेटर' में असंख्य बार परफ़ॉर्मेंस दी थीं. ग़ुलाम मोहम्मद को इस थियेटर में पक्की नौकरी मिलते ही अलबर्ट थियेटर की माली हालत डगमगा गयी और उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा. अब उन्होंने एक दूसरी कम्पनी के ऑर्केस्ट्रा में काम हासिल किया आख़िरकार 1924 में ग़ुलाम मोहम्मद बंबई चले आए. मूक फिल्मों में उनका प्रवेश हुआ, वे तबला,ढोलक, पखावज, खंजरी जैसे साज़ बजाने में कुशल थे. और जब फ़िल्में बोलने लगीं,तो बतौर वादक गुलाम मोहम्मद को काम मिलने लगा.आठ साल के संघर्ष के बाद उन्हें 'सरोज मूवीटोन्स प्रोडक्शन' की ‘राजा भर्तृहरि’ में काम करने का अवसर मिला. उनके काम को पहचाना गया और वे लोकप्रिय हुए. उन्होंने अनिल बिस्वास और नौशाद जैसे महान संगीत निर्देशकों के साथ काम किया. फ़िल्म ‘संजोग’ से लेकर ‘आन’ तक वे नौशाद के असिस्टेंट रहे.और उन्ही के नाम से पहचाने गए. नौशाद के संगीत में उनके बजाए तबले और ढोलक के पीसेज़ सिग्नेचर-ट्यून का दर्जा रखते हैं.
‘आन’ के बाद ग़ुलाम मोहम्मद ने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में काम करना शुरू किया.‘पारस’, ‘मेरा ख्वाब’. ‘टाइगर क्वीन’ और ‘डोली’ जैसी फिल्मों से ग़ुलाम मोहम्मद ने अपनी जगह बनानी शुरू की.उन्होंने ‘पगड़ी’, ‘परदेस’, ‘नाजनीन’, ‘रेल का डिब्बा’, ‘हूर-र-अरब’, ‘सितारा’ और ‘दिल-ए-नादान’ 'गृहस्थी' 'अम्बर' 'शायर' नाजनीन, शीशा, लैला मजनूं, कुंदन,मिर्ज़ा ग़ालिब,दो गुंडे,शमा में बेमिसाल संगीत दिया. उनकी धुनों को संजीदगी से सुनने पर उनके गीतों की खुसूसियत ज़ाहिर होना शुरू हो जाती और सुनने वालों पर एक तिलिस्म से तारीं होने लगता है.
फ़िल्मी गीतों में "मटके" को बाकायदा एक वाद्य की तरह प्रयोग करने वाले ग़ुलाम मोहम्मद पहले संगीतकार थे.उन्होंने संगीतकार नॉशाद के संगीत निर्देशन में बनी फिल्म शारदा (1942) में सर्वप्रथम 13 वर्षीय सुरैया के गाये गीत:"..पंछी जा,पीछे रहा ज़माना." में मटके का इस्तेमाल किया था. ये सुरैया का भी पहला गाना था जिसे DN मधोक ने लिखा था. ‘पारस’ और ‘शायर’ फिल्मों के गीतों में मटके स्पष्ट प्रयोग और प्रभाव देखा जा सकता है. बतौर तबला वादक उनके तबले का जादू शंकर जयकिशन की डेब्यू फ़िल्म 'बरसात' (1949) के शीर्षक गीत "बरसात में हमसे मिले तुम ओ सजन तुमसे मिले हम" में देखा जा सकता है.
🎡 मात्र 65 वर्ष की आयु में इस फ़ानी दुनिया को अलबिदा कहने वाले महान संगीतकार ग़ुलाम मुहम्मद की 56 वीं बरसी पर हम संगीतप्रेमी उन्हें दिल से याद करते हुए, सिने संगीत में उनके योगदान को सलाम करते हैं जो हमारी रग रग में समाया हुआ है.
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