💝 सितार का दूसरा नाम है: पंडित रविशंकर.
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कुछ लोग दुनिया में एक बार आते हैं तो जाते नहीं.उनके रचे हुए संसार में बस एक क़दम रखने मात्र से आप उन्हें अपने आसपास महसूस कर सकते हैं.ऐसे ही लोगों में से एक है- भारतरत्न पंडित रविशंकर.रेडियो सिलोन के कार्यकाल के दौरान 1971 में मुझे पंडित रविशंकर और तबले पर उनकी संगत करने वाले महान तबलनवाज़ अल्लारखा को इंटरव्यू करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था.उस इंटरव्यू को जब मैं प्रोसेस करने के लिये लाइब्रेरी में बैठा तो आश्चर्यचकित रह गया.मैंने पाया कि पंडित रविशंकर ने विश्व भर में न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत को संजोने,लोकप्रिय बनाने और फैलाने का महान कार्य तो किया ही फ़िल्म-संगीत की दुनिया को भी अपनी कुछ गिनी चुनी फ़िल्मों के ज़रिये मालामाल किया है.अपनी आदत के अनुसार जब उनके योगदान का मैं मूल्यांकन करने करने लगा तो ताज्जुब के भंवर में गोते लगाने लगा। मैंने पाया कि रविशंकर ने अपने आरंभिक दिनों में यथार्थवादी फ़िल्मों के माध्यम से फ़िल्म संगीत का एक5 नया व्याकरण गढ़ना शुरू किया था।उन्होंने पहले-पहल चेतन आनंद निर्देशित प्रगतिशील फ़िल्म 'नीचा नगर' (1946) के माध्यम से फ़िल्मों की दुनिया में प्रवेश किया. ये वो दौर था जब नाटकीयता और भारी-भरकम आवाज़ों के द्वारा फ़िल्म संगीत रचने का काम एक रूटीन सा बन चुका था.ऐसे दौर में रविशंकर ने शास्त्रीय रागों के सहारे धुनों में प्रगतिशील बुनावट के काम को अनूठे ढंग से अंजाम देना शुरू किया.नतीजा? फ़िल्म 'नीचा नगर' के गाने जो इनका आदर्श उदाहरण हैं,जिन्हें यू-टूयूब पर सुनकर समझा जा सकता है
वे अपनी फ़िल्मों के संगीत में धुन रचते वक्त उसके 'साउण्ड-ट्रैक' को तमाम पार्श्वध्वनियों से भी समृद्ध कराते थे जिनमें आलापों,तानों और सितार के बहाव की छोटी-छोटी युक्तियाँ भी असरकारी दिखाई देती थीं.उनके द्वारा यह काम फ़िल्म 'नीचा नगर' और 'धरती के लाल' से लेकर सत्यजित रे की फ़िल्म 'पाथेर पांचाली' तक में देखा जा सकता है.
एक दिलचस्प तथ्य यह भी गौर-तलब है कि जहाँ अधिकांश संगीतकार अपनी धुनों को रचने का काम पियानो,आर्गन और हारमोनियम को आधार बनाकर करते थे,वहीं पंडित रविशंकर की अधिकांश धुनें सितार के धरातल से विकसित होती थीं.
रविशंकर के संगीत से सजी तीन फ़िल्में: 'अनुराधा', 'गोदान' और 'मीरा' हिन्दी सिनेमा में अमर संगीत का पर्याय बन चुकी हैं,जिनके माध्यम से हम एक पूरा 'रविशंकर-युग' बनता हुआ देख सकते हैं. तीनों ही फ़िल्मों के द्वारा वे लता मंगेशकर,मोहम्मद रफ़ी,मुकेश और वाणी जयराम की आवाज़ों को एक नया रूप प्रदान करते हैं जिसके पहले यह काम किसी दूसरे संगीतकार ने नहीं किया था.फ़िल्म'अनुराधा' को तो पंडित रविशंकर की सबसे महानतम रचना के रूप में देखा जा सकता है,जिसमें लता मंगेशकर की आवाज़ भी अद्भुत ढंग से कोमलता और शास्त्रीयता के बीच दोलन करती है.'..कैसे दिन बीते कैसे बीते रतियाँ,पिया जाने ना..' की भावनात्मक कोमलता और सहजता अभूतपूर्व है. ‘हाय रे वो दिन क्यों ना आये’, ‘सांवरे’ और सबसे सुंदर गीत—‘जाने कैसे सपनों में खो गयीं अंखियां’.. सुनकर संगीत-प्रेमी ‘उफ़-उफ़’ कर उठते हैं.
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘गोदान’ हिंदी में पंडित रविशंकर की बतौर फिल्म-संगीतकार शायद सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म थी जिसके बेहद लोकप्रिय हुए थे औरआज भी हर आम-ओ-खास की ज़ुबान पर हैं।काम था। पंडित रविशंकर ने ‘गोदान’ के गीत और उसके कुछ इंस्ट्रूमेन्टल वर्ज़न तैयार किये उसका कोई दूसरा जोड़ आज भी नहीं है। ‘गोदान’ में जहां एक तरफ ‘पिपरा के पतवा’, ‘ओ बेदर्दी क्यों तड़पाये’ और ‘होली खेलत नंदलाल’ जैसे खूब जोशीले गीत हैं वहीं दूसरी तरफ है ‘जनम लियो ललना’ और ‘हिया जरत रहत दिन रैन’ जैसे गीत भी हैं.
फ़िल्म 'मीरा' के माध्यम से उन्होंने इस विरहणी कवयित्री के भजनों का जो प्रामाणिक-संगीत रचा है,वह बार-बार सुनने को प्रेरित करता है.राजस्थानी सन्दर्भों को शास्त्रीय-ढंग से आत्मसात करते हुए, जिस तरह पंडित रविशंकर ने 'बाला मैं बैरागन हूँगी', 'प्यारे दर्शन दीजो आज', 'श्याम मने चाकर राखो जी', 'मैं सँवारे के रंग राची', 'बादल देख डरी' और 'मेरे तो गिरधर गोपाल' जैसी अमर धुनें और गीत रचे, वह हिन्दी फ़िल्म-संगीत को उनके महानतम योगदान के रूप में स्थापित करता है.फ़िल्म 'अनुराधा', 'गोदान' और 'मीरा' के संगीत के ज़रिये भी पंडित रविशंकर का स्थान स्थाई तौर पर एक मौलिक संगीतकार के रूप में हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास में सुनहरे हर्फों में दर्ज़ रहेगा.
मांझ-खमाज, तिलक-कामोद, जन-सम्मोहिनी, जयजयवन्ती,मल्हार, गुर्जरी तोड़ी,देश और भैरवी जैसे रागों पर आधारित करके उन्होंने इन तीनों फिल्मों में जो विलक्षण संगीत रचा, वह कहीं न कहीं उनकी शास्त्रीय तैयारी और 'मैहर-घराने' की उस परम्परा को रेखांकित करता है, जिसमें उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब की सोहबत और तालीम मिली हुई थी.
पंडित रविशंकर के संगीत को इसी अर्थ में देखने की ज़रूरत है कि वह शास्त्रीयता, लोक-व्याप्ति और परम्परा के बीच से मार्ग बनाते हुए अपनी एक बिलकुल नई ज़मीन तैयार करता है,जहाँ सितार अपने पूरे सौंदर्य में मौजूद है.वर्ष 1983 में रिचर्ड एटेनबरो की फ़िल्म 'गांधी' के संगीत के लिये पंडित रविशंकर को "सर्वश्रेष्ठ मौलिक स्वरलिपि" के लिए जॉर्ज फेंटन के साथ 'ऑस्कर' से नवाजा गया.
पंडित रविशंकर के रचना संसार की लड़ी के अतीत की कुछ कड़ियां भी उनके विशाल दायरे की एक झलक देती हैं.मसलन 1948 की बात ले लीजिये:युवा रविशंकर उन दिनों मुंबई में थे.तभी 30 जनवरी को खबर आई कि महात्मा गांधी को गोली मार दी गई है. ऐसे मौके पर रविशंकर से कहा गया कि वे तबले के बिना ही आकाशवाणी के लिए कोई धुन बजाएं जो सुनने वालों को दुख की इस घड़ी में कुछ राहत दे.उन्होंने महात्मा के उपनाम ‘गांधी’ से तीन 'आखर' या कहें कि सुर निकाल लिए- ‘ग’, ‘नि’ और ‘ध’. इन्हें मिलाकर पांच सुरों ‘सा, ग, म, ध, नि’ की संगति से जो संगीत रचा,उसे उन्होंने राग ‘मोहनकौंस’ नाम दिया. इस नाम की दो वजहें थीं. पहली- यह ‘मोहन’दास कर्मचंद गांधी के लिए रचा गया था. दूसरी- यह सुर संगति हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के राग 'मालकौंस' के क़रीब थी.आगे चलकर राष्ट्रीय शोक की किसी भी घड़ी में प्रसारण में ऐसी ही रचनाओं के इस्तेमाल की परंपरा शुरू हुई जो अब तक चलन में है। इसके एक साल बाद ही 1949 में पंडित रविशंकर आल इंडिया रेडियो,दिल्ली में संगीत निदेशक का पद ऑफर किया गया जिसे उन्होंने स्वीकार का लिया.इस पद पर वे 1956 तक बने रहे.
जाने-माने शायर अल्लामा इकबाल ने 1904 में जो नज़्म ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ लिखी थी उसकी धुन पहले उतनी सुरीली नहीं थी.उसे आम शायरी की तरह गाया जाता रहा.लेकिन 1945 में पंडित रविशंकर ने उस परंपरा से चली आ रही धुन को फिर नए ढंग से रचा.हालांकि इस बारे में बहुत से लोगों को लंबे समय तक पता नहीं था. काफी समय तक इसे रिलीज़ करने वाली कंपनी एच. एम. वी. भी पारम्परिक धुन कहती रही,जबकि उसे पंडित रविशंकर ने रचा था बहरहाल इस धुन को आज भी हमारे संगीतकार वैसे ही बजा रहे हैं जैसे उसे पंडित जी ने रचा था. इस पर आधुनिक प्रयोग की एक झलक दॄष्टिगोचर होती है.
यही नहीं जब उन्होंने पश्चिम के जाने-माने संगीतकार यहूदी मेनुहिन के साथ मिलकर 1967 में ‘वेस्ट मीट्स ईस्ट’ नामक म्यूजिक एल्बम रचा तो दुनिया भर में उन्हें संगीत का पर्यायवाची माना जाने लगा।उस अद्भुत प्रयोग की एक झलक मात्र ही सुनने वालों के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है.
7 अप्रैल 1920 को ब्रिटिश कालीन बनारस में पैदा हुए और 11 दिसम्बर 2012 को उम्र 92 वर्ष की आयु में सैन डिएगो,संयुक्त राज्य अमेरिका में उस परब्रम्ह में लीन होने वाले पंडित रविशंकर को 'भारत रत्न' के अलावा अनेकानेक वैश्विक सम्मानों से अलंकृत किया।तीन बार संगीत की दुनिया का प्रतिष्ठित "ग्रैमी अवॉर्ड" और एक बार "लाइफ टाइम अचीवमैंट अवॉर्ड" से भी नवाज़ा गया.
किसी कलाकार के लिए उसके साज़ की क्या अहमियत होती है ये बात कोई पंडित रविशंकर से सीखे।पंडित जी का अपने सितार से आध्यात्मिक रिश्ता था.पंडित जी दुनिया भर में जब भी जहां भी जाते थे उनके लिए जहाज में दो सीटें बुक होती थीं. दोनों सीटें बिल्कुल अगल-बगल.एक सीट पर पंडित रविशंकर बैठते थे और दूसरी पर 'सुर शंकर'.ये सुर शंकर दरअसल पंडित जी का सितार था.
भारत के संगीत को दुनिया भर में फैलाने, उसे सम्मान दिलवाने,और प्रतिष्ठित करवाने के लिए पंडित रविशंकर को उनके शतायु वर्ष में शत शत नमन.
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