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मुंबई के बेरुखेपन से नाराज थे
'सेहरा' के संगीतकार राम लाल माथुर
'सेहरा' फिल्म के संगीत निर्देशक के नाम के लिए अनेक भ्रान्तियां अलग अलग समय पर मिली हैं। किसी ने इनका नाम राम लाल चौधरी और बनारस का रहने वाला शहनाई वादक बताया तो किसी ने कुछ और । सेहरा के संगीतकार राम लाल वस्तुतः न चौधरी थे और न ही अलग अलग कानों में अलग अलग नगीना पहनने वाला कोई शख्स। जोधपुर में पले बढ़े राम लाल बहुत संजीदा व्यक्ति थे। वे अपने नाम के पीछे माथुर लगाते थे। राम लाल माथुर मुंबई के बेरुखेपन से नाराज थे और माया नगरी छोड़ने के पश्चात उन्होंने वहां की अपनी स्मृतियों को भुलाना ही ठीक समझा।
दरअसल जोधपुर में रियासत के दिनों जोधपुर में नए बने रेडियो स्टेशन के निदेशक के रूप में प्रख्यात सरोद वादक उस्ताद अली अक़बर ख़ां साहब की नियुक्ति हुई थी। राम लाल माथुर वहाँ उनसे संगीत की बारीकियां सीखने उनके घर जाया करते थे। राम लाल माथुर मूल रूप से तबला वादक थे लेकिन संगीत की औपचारिक शिक्षा ने उन्हें सितार सहित कई वाद्यों में पारंगत बनाया। उन्हीं दिनों जोधपुर में अली अक़बर ख़ां साहब के घर पर उनकी जयदेव से मुलाकात हुई। दोनों ही ख़ां साहब के शाग़िर्द थे। फिर एक दिन ख़ां साहब जोधपुर छोड़ मुंबई पहुंच गए। जयदेव मुंबई आने के लिए पहले से कोशिश में थे। उन्हें 'आधियां' और 'हमसफ़र' फिल्मों में अपने उस्ताद अली अक़बर ख़ां साहब के सहायक के रूप में काम मिल गया। फिर ख़ां साहब यहां से अमेरिका उड़ लिए तो जयदेव 'टैक्सी ड्राइवर' से सचिनदेव बर्मन के साथ जुड़ गए। 1958 में में देवआनंद ने जयदेव को 'हम दोनों' में संगीत देने के लिए नवकेतन से जोड़ा तो जयदेव ने राम लाल माथुर को जोधपुर से मुंबई बुला लिया। खुद राम लाल माथुर के अनुसार एक गीत - अल्लाह तेरो नाम... के कंपोजिशन में जयदेव की मदद उन्होंने की थी। मुंबई में राम लाल माथुर का संपर्क व्ही शान्ताराम से हुआ। उन्होंने 'सेहरा' फिल्म के संगीत निर्देशन का जिम्मा राम लाल माथुर को सौंपा। उन्हें सभी धुनें बहुत पसंद आई थीं। राम लाल माथुर के ही सुझाव पर इस फिल्म के कुछ दृश्य जोधपुर में फिल्माए गए थे। फिल्म का संगीत चल निकला। फिर राजकमल कलामंदिर की ही एक और फिल्म - 'गीत गाया पत्थरों ने' में राम लाल फिर दोहराए गए लेकिन इन चार पांच वर्षों में बाहर के किसी और फिल्म निर्माता ने माथुर में रुचि नहीं दिखाई। और तो और खुद व्ही शान्ताराम की अगली फिल्म में संंगीतकार राम लाल माथुर नहीं थे। जयदेव की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। दरअसल दोनों ही मार्केटिंग नाम की विधा से कोसों दूर थे। जयदेव तो अड़े रहे। उन्होंने अजन्ता आर्ट्स की 'मुझे जीने दो' और 'रेश्मा और शेरा' 'गमन' जैसी फिल्मों में कर्णप्रिय संगीत भी दिया लेकिन राम लाल माथुर राजस्थान लौट आए। बरसों उदयपुर के एक संस्थान में निदेशक रहे। वहाँ से मुक्त हुए तो जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में निदेशक नियुक्त हो गए। बाद में स्थानीय स्तर पर कैसेट्स के लिए संगीत का निर्देशन भी किया। अस्सी के दशक में एक कार्यक्रम के लिए उन्होंने संगीतकार नौशाद को जयपुर बुला उनका सम्मान किया था। उस कार्यक्रम में नौशाद ने उन्हें पंडित राम लाल माथुर के नाम से संबोधित किया। तब से उनका नाम ही पं राम लाल माथुर पड़ गया। इनकी एक बेटी सितारवादक हैं और अजमेर में अपने पिता के नाम ही से संगीत महाविद्यालय चलाती हैं। एक बेटा भी सितार का ही शिक्षक है।
श्वेत श्याम चित्र में रामलाल माथुर अपनी जापानी शिष्या के साथ हैं।