आखिर कौन थी वीरमदेव की प्रेयसी फिरोजा...!!!
जालौर की धरती, इस पर बना हुआ स्वर्णगिरी का दुर्ग, इस पर स्थित वीरमदेव की चौकी, जिसका एक अनूठा ही इतिहास है। वीरमदेव का नाम भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी के साथ लिखा जाना चाहिए था। परन्तु काल की विडम्बना देखिए कि जिस समय हिन्दू राजा डोले मुजरे के लिए तथा विवाह सम्बन्धों के लिए दिल्ली जाते रहे, वीरमदेव ने दिल्ली का डोला अस्वीकार किया और एक इतिहास रच डाला।
आपने "फिरोजा" नाम सुना होगा..?? शायद नही सुना होगा, क्योंकि हमारे वामपंथी इतिहासकार ये सब चीजे आपके समक्ष नही रखते है, क्योंकि उनका एजेंडा फिर पूरा नही होगा। चाहे वो अलाउद्दीन खिलजी हो या हो औरंगजेब, इन सभी की पुत्रियों को हिन्दू राजकुमारों से ही प्रेम था और कई मुस्लिम राजकुमारियों ने तो इसी कारण आत्महत्या भी की थी। फिरोजा का भी एकतरफा प्यार था, वो वीरमदेव से शादी करना चाहती थी। वीरमदेव की ख्याति उन दिनों चारो ओर फैली थी।
"सोनगरा वंको क्षत्रिय अणरो जोश अपार
झेले कुण अण जगत में वीरम री तलवार"
1298 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति अलगू खां और नसरत खां ने गुजरात विजय अभियान किया। उन्होंने जालौर के राजा कान्हड़ देव से जालौर राज्य से होकर गुजरात जाने का रास्ता मांगा, परन्तु कान्हड़ देव ने यह कहकर मना कर दिया कि आप विदेशी और विधर्मी हैं। इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी नाराज हो गया। परन्तु उसके लिए पहले गुजरात जीतना अनिवार्य था। अत: उसकी तुर्की मुस्लिम सेना गुजरात की तरफ़ बढ़ गई। उसकी सेना ने सोमनाथ के मंदिर को तोड़कर वँहा बहुत कत्लेआम मचाया। सोमनाथ मन्दिर को खंडित कर गुजरात से लौटती अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर जालौर के शासक कान्हड़ देव चौहान ने पवित्र शिवलिंग शाही सेना से छीनकर जोकि गाय की खाल में भरकर लाया जा रहा था, जालौर की भूमि पर स्थापित करने के उदेश्य से सरना गांव में डेरा डाले शाही सेना पर भीषण हमला कर पवित्र शिवलिंग प्राप्त कर लिया और शास्त्रोक्त रीति से सरना गांव में ही प्राण प्रतिष्ठित कर दिया।
वीरमदेव के मल्लयुद्ध की शोहरत और व्यक्तित्व के बारे में सुनकर दिल्ली के तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी की पुत्री शहजादी फिरोजा का दिल वीरमदेव पर आ गया और शहजादी ने किसी भी कीमत पर उससे शादी करने की जिद पकड़ ली और मन ही मन उसे अपना पति भी मान लिया था।
"वर वरूं वीरमदेव ना तो रहूंगी अकन कुंवारी"
अर्थात, विवाह करूंगी तो वीरमदेव से नहीं तो अक्षत कुंवारी रहूंगी।
बेटी की जिद को देखकर, अपनी हार का बदला लेने और राजनैतिक फायदा उठाने का विचार कर अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी बेटी के लिए जालौर के राजकुमार को प्रणय प्रस्ताव भेजा। कहते हैं कि वीरमदेव ने यह कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया...
"मामो लाजे भाटियां, कुल लाजे चौहान,
जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान''
अर्थात, अगर मैं तुरकणी से शादी करूं तो मामा (भाटी) कुल और स्वयं का चौहान कुल लज्जित हो जाएंगे और ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे।
इस जवाब से आगबबूला होकर अलाउद्दीन ने युद्ध का ऐलान कर दिया। कहते हैं कि एक वर्ष तक तुर्कों की सेना जालौर पर घेरा डालकर बैठी रही फिर युद्ध हुआ और किले की हजारों राजपूतानियों ने जौहर किया। स्वयं वीरमदेव ने 22 वर्ष की अल्पायु में ही युद्ध में वीरगति पाई।
शाही सेना पर गुजरात से लौटते समय हमला और अब वीरमदेव द्वारा शहजादी फिरोजा के साथ विवाह का प्रस्ताव ठुकराने के कारण खिलजी ने जालौर रोंदने का निश्चय कर एक बड़ी सेना जालौर रवाना की। जिसे सिवाना के पास जालौर के कान्हड़ देव और सिवाना के शासक सातलदेव ने मिलकर एक साथ आक्रमण कर परास्त कर दिया। इस हार के बाद भी खिलजी ने सेना की कई टुकडियाँ जालौर पर हमले के लिए रवाना की और यह क्रम पाँच वर्ष तक चलता रहा। लेकिन खिलजी की सेना जालौर के राजपूत शासक को नही दबा पाई। आख़िर जून 1308 में ख़ुद खिलजी एक बड़ी सेना के साथ जालौर के लिए रवाना हुआ। पहले उसने सिवाना पर हमला किया और एक विश्वासघाती के जरिये सिवाना दुर्ग के सुरक्षित जल भंडार में गौ-रक्त डलवा दिया। जिससे वहां पीने के पानी की समस्या खड़ी हो गई। अतः सिवाना के शासक सातलदेव ने अन्तिम युद्ध का ऐलान कर दिया। जिसके तहत उनकी रानियों ने अन्य क्षत्रिय स्त्रियों के साथ जौहर किया व सातलदेव आदि वीरों ने शाका कर अन्तिम युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।
इस युद्ध के बाद खिलजी अपनी सेना को जालौर दुर्ग रोंदने का हुक्म दे खुद दिल्ली आ गया। उसकी सेना ने मारवाड़ में कई जगह लूटपाट व अत्याचार किये। सांचोर के प्रसिद्ध जय मन्दिर के अलावा कई मंदिरों को खंडित किया। इस अत्याचार के बदले कान्हड़ देव ने कई जगह शाही सेना पर आक्रमण कर उसे शिकस्त दी और दोनों सेनाओ के मध्य कई दिनों तक मुठभेड़ चलती रही। आखिर खिलजी ने जालौर जीतने के लिए अपने बेहतरीन सेनानायक कमालुद्दीन को एक विशाल सेना के साथ 1310 ई. में जालौर भेजा जिसने जालौर दुर्ग के चारों और सुद्रढ़ घेरा डाल युद्ध किया लेकिन अथक प्रयासों के बाद भी कमालुद्दीन जालौर दुर्ग नही जीत सका और अपनी सेना वापस लेकर लौटने लगा। तभी कान्हड़ देव का अपने एक सरदार विका से कुछ मतभेद हो गया और विका ने जालौर से लौटती खिलजी की सेना को जालौर दुर्ग के असुरक्षित और बिना किलेबंदी वाले हिस्से का गुप्त भेद दे दिया। विका के इस विश्वासघात का पता जब उसकी पत्नी को लगा तो उसने अपने पति को जहर देकर मार डाला। इस तरह जो काम खिलजी की सेना कई वर्षो तक नही कर सकी, वह एक विश्वासघाती की वजह से चुटकियों में हो गया और जालौर पर खिलजी की सेना का कब्जा हो गया।
खिलजी की सेना को भारी पड़ते देख 1311 ई. में कान्हड़ देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को गद्दी पर बैठा स्वयं अन्तिम युद्ध करने का निश्चय किया। जालौर दुर्ग में उसकी रानियों के अलावा अन्य समाज की औरतों ने जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर जौहर किया। तत्पश्चात कान्हड़ देव ने शाका कर अन्तिम दम तक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की। कान्हड़ देव के वीरगति प्राप्त करने के बाद वीरमदेव ने युद्ध की बागडोर संभाली। वीरमदेव का शासक के रूप में साढ़े तीन वर्ष का कार्यकाल युद्ध में ही बिता। आख़िर वीरमदेव की रानियाँ भी जालौर दुर्ग को अन्तिम प्रणाम कर जौहर की ज्वाला में कूद पड़ी और वीरमदेव ने भी शाका करने हेतु दुर्ग के दरवाजे खुलवा शत्रु सेना पर टूट पड़ा और भीषण युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। वीरमदेव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद शाहजादी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में सेना के साथ आई थी, वीरमदेव का मस्तक काट कर सुगन्धित पदार्थों में रख कर फिरोजा के पास ले गई। कहते हैं कि जब वीरमदेव का मस्तक स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो मस्तक दूसरी ओर घूम गया, तब फिरोजा ये कहते हुए वीरमदेव का कटा सिर गोद में लेकर, हिन्दू सुहागिन का भेष धारण कर वीरमदेव की चिता पर सती हो गई।
"तज तुरकाणी चाल हिंदूआणी हुई हमें,
भो-भो रा भरतार, शीश न धूण सोनीगरा"
अर्थात, सोनगरे के सरदार तू अपना सिर मत घुमा, तू मेरे जन्म-जन्मांतर का भरतार है। आज मैं तुरकणी से हिन्दू बन गई और अब अपना मिलन अग्नि की ज्वाला में होगा।
आज भी जालौर की सोनगरा की पहाड़ियों पर स्थित पुराने किले में फिरोजा का समाधि स्थल है, जिसे फिरोजा की छतरी के नाम से जाना जाता है।