जब 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ, तो युद्ध का मैदान सिर्फ़ सीमाओं तक सीमित नहीं था. दिल्ली में सत्ता की दीवारों के भीतर एक ऐसा असामान्य विवाद छिड़ गया था जिसके बारे में किसी ने सोंचा भी न था.
उस विवाद ने न सिर्फ देश के प्रति वफ़ादारी की परीक्षा ली, बल्कि राजनीतिक मानदंडों को हिलाते हुए प्रधानमंत्री को एक साहसिक कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया था. उस तूफ़ान के केंद्र में लाल बहादुर शास्त्री की कैबिनेट में केंद्रीय मंत्री जनरल शाह नवाज खान (General Shah Nawaz Khan) थे. जैसे-जैसे युद्ध तेज़ हुआ, खबर आई कि खान के सबसे बड़े बेटे महमूद नवाज अली पाकिस्तानी सेना में एक वरिष्ठ अधिकारी थे.
नैतिकता की दुहाई और सियासी भूचाल
भारत के मंत्री का बेटा पाकिस्तान की फौज का अफसर. इस चौंकाने वाले खुलासे ने देश के सियासी परिदृश्य में हलचल मचा दी थी. विपक्ष ने सवाल उठाया कि जिस मंत्री का खून-पसीना दुश्मन देश की सेवा कर रहा है, वह सरकार में कैसे बना रह सकता है. फौरन देश के मंत्री खान के इस्तीफे की मांग तेज हो गई. इस्तीफा देने का दबाव न सिर्फ जनरल शाह नवाज खान पर था, बल्कि खुद प्रधानमंत्री पर भी बढ़ गया था.
लाल बहादुर शास्त्री का बड़ा फैसला
हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मांगों पर विचार करने से इनकार कर दिया. नैतिक स्पष्टता के उस बेहद दुर्लभ क्षण में, प्रधानमंत्री शास्त्री जरा भी परेशान नहीं हुए. वो उस समय अपने मंत्री के पक्ष में खड़े होकर बोले, 'अगर किसी शख्स का बेटा दूसरे पक्ष के लिए लड़ रहा है, तो इसमें उसके पिता का क्या दोष है? क्या हमें माता-पिता को उनके बड़े हो चुके बच्चों के फैसलों के लिए दंडित करना शुरू कर देना चाहिए.'
हालांकि राजनीतिक प्रतिक्रिया से आहत शाह नवाज खान ने पद छोड़ने की पेशकश की, लेकिन शास्त्री जी ने ऐसा करने से उन्हें मना कर दिया था.
कौन थे शाहनवाज खान?
शाह नवाज खान की कहानी भी साधारण नहीं थी. रावलपिंडी जो आज पाकिस्तान में हैं उसके मटूर गांव में जन्मे थे. जाबांज थे. सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में शामिल होने से पहले ब्रिटिश भारतीय सेना में नौकरी की थी. वो मेजर जनरल के पद पर थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, वो लाल किले में अंग्रेजों द्वारा चलाए गए एक ऐतिहासिक मामले में आईएनए अधिकारियों में से एक थे, जिसने राष्ट्रवादी उत्साह को बढ़ावा दिया था.
आजादी के बाद, पाकिस्तान में अपनी जड़ों के बावजूद, खान ने भारत में बसने का फैसला किया. उन्होंने न केवल अपने जन्मस्थान को बल्कि अपनी पत्नी और 6 बच्चों को भी पीछे छोड़ दिया. जवाहरलाल नेहरू ने खान के समर्पण को पहचाना. स्वतंत्र भारत में, खान को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया, पहले रेलवे और परिवहन के उप मंत्री के रूप में वो केंद्र सरकार में शामिल हुए. बाद में उन्होंने कृषि समेत कई प्रमुख विभागों का नेतृत्व किया.
वह सांप्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील निर्वाचन क्षेत्र मेरठ से चार बार सांसद रहे. वो इलाका उनकी सांसदी के कार्यकाल के दौरान शांतिपूर्ण ही रहा. भारत के प्रति उनकी निष्ठा अटूट रही, भले ही उनके परिवार की शाखाएं सीमा पार चली गई थीं. उन्होंने भारत के विकास में अपना सर्वोच्च योगदान दिया.
1956 में, शाह नवाज खान को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के रहस्यमय ढंग से लापता होने की जांच के लिए भारत के पहले जांच आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, वही नेता जिनके नेतृत्व में उन्होंने कभी स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी थी. उनकी ये नियुक्ति उनकी ईमानदारी और राष्ट्रवाद में उनके विश्वास का संकेत थी. देश के विकास में उनके योगदान के बावजूद, उनकी विरासत आज चुपचाप गुमनामी में है.