Sultana Danku

#सुल्तानाडाकू खौफ का दूसरा नाम था। सुल्ताना डाकू के नाम से नौटंकी भी होती थी। कई फिल्में में बनी। । सुल्ताना के किरदार पर सुजीत सराफ ने 'द कन्फेशन ऑफ सुल्ताना डाकू' (सुल्ताना डाकू का कबूलनामा) के नाम से  उपन्यास भी लिखा। 
 रोबिन हुड का दर्जा भी मिला था सुल्ताना को। #मुरादाबाद  #बिजनौर  #नजीबाबाद #काशीपुर #देहरादून  में  कई किस्से आज भी जिंदा हैं।
इनको पकड़ने के लिए टीम बनी थी जिसमें जिम कार्बेट  भी थे। सुल्ताना डाकू  को फांसी 7 जुलाई 1924 को दी गयी थी #आगरा जेल में।
फ्रेडी यंग  ने सुल्ताना को फांसी न देने की मांग भी की, लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया.फांसी से पहले 06 जुलाई 1924 की  रात फ्रेडी यंग  सुल्ताना से मिलने पहुंचे. सुल्ताना ने कहा, मेरा एक बेटा है  मैं चाहता हूं कि उसे इज्जतदार इंसान की तरह जिंदगी. वो सम्मान के साथ सिर उठाकर जिए. फ्रेडी यंग ने उसकी बात मानते हुए उसके बच्चे को गोद लिया और उसे लंदन ले जाया गया,जहां उनकी तालीम हुई। उनका घराना आज भी लंदन में है। आईसीएस का एग्जाम पास करने के बाद पुलिस विभाग का उच्च अधिकारी बना और वो इंस्पेक्टर जनरल के पद से रिटायर हुआ।    इस कहानी को लेकर कई फिल्में भी बनीं. उपन्यास लिखे गए.। फ्रेडी यंग ने सुल्ताना की इच्छा का सम्मान किया और उसकी मौत की सजा के बाद उसके बेटे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड भेज दिया। 
1924 में अंग्रेजों ने सुल्ताना की जाति भातू को जरायम पेशा में दर्ज कर दिया था।
सुल्ताना शुरुआत में छोटी-छोटी चोरी करता था। उर्दू के पहले जासूसी उपन्यासकार और अपने जमाने के मशहूर पुलिस अधिकारी जफर उमर इसे एक बार गिरफ्तार करने में कामयाब हुए थे, जिस पर उन्हें पांच हजार रुपये का इनाम मिला था। जफर उमर की बेटी हमीदा अख्तर हुसैन राय पुरी ने अपनी किताब 'नायाब हैं हम' में लिखा है कि जफर उमर ने सुल्ताना को एक मुठभेड़ में गिरफ्तार किया था।
उस समय सुल्ताना पर चोरी के अलावा हत्या का कोई आरोप नहीं था, इसलिए उसे सिर्फ चार साल जेल की कड़ी सजा सुनाई गई थी। जफर उमर ने उसकी गिरफ्तारी पर मिलने वाले रुपये अपने सिपाहियों और स्थानीय लोगों में बांट दिए थे। इसके बाद जफर उमर ने उर्दू में कई जासूसी नॉवेल लिखे, जिनमें पहला नॉवेल 'नीली छतरी' था और इसकी कहानी का मुख्य पात्र सुल्ताना डाकू ही था। 
 
रिहाई के बाद सुल्ताना ने अपने गिरोह को फिर से इकठ्ठा किया। इसने नजीबाबाद और साहिनपुर के सक्रिय लोगों से संपर्क किए और अपने भरोसेमंद मुखबिरों का जाल बिछाकर लूटना शुरू कर दिया। उसे अपने मुखबिरों के जरिये मालदार लोगों की खबर मिलती। सुल्ताना हर डकैती की योजना बड़े ध्यान के साथ बनाता और हमेशा कामयाब लौटता। अपने जमाने के मशहूर शिकारी जिम कार्बिट ने भी अपने कई लेखों में सुल्ताना के बारे में लिखा है। 

जफर उमर के अनुसार सुल्ताना डाकू बड़ा निडर होकर डकैती डालता था और हमेशा पहले से लोगों को सूचित कर देता था कि श्रीमान पधारने वाले हैं। डकैती के दौरान वो खून बहाने से जहां तक हो सकता बचने का प्रयास करता था, लेकिन अगर कोई शिकार विरोध करता और उसे या उसके साथियों की जान लेने की कोशिश करता तो वो उनकी हत्या करने से भी परहेज नहीं करता था।

ये भी मशहूर है कि वो अपने विरोधियों और जिनकी वो हत्या करता उनके हाथ की तीन उंगलियां भी काट डालता था। अमीर साहूकारों और जमींदारों के हाथों पीड़ित गरीब जनता उसकी लंबी आयु की दुआएं मांगते और वो भी जिस क्षेत्र से माल लूटता, वहीं के जरूरतमंदों में बंटवा देता था।

सुल्ताना डाकू की डकैती और आतंक का ये सिलसिला कई साल तक जारी रहा मगर अंग्रेजों की सरकार थी और वो यह स्थिति ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। पहले तो उन्होंने भारतीय पुलिस के जरिए सुल्ताना को ठिकाने लगाने की कोशिश की, मगर सुल्ताना के मुखबिर और गरीब देहातियों की मदद की वजह से वो अपने इरादों में कामयाब ना हो सके। 

अंत में अंग्रेजों ने सुल्ताना डाकू की गिरफ्तारी के लिए ब्रिटेन से फ्रेडी यंग  तजुर्बेकार अंग्रेज पुलिस अधिकारी को भारत बुलाने का फैसला किया। फ्रेडी यंग ने भारत पहुंचकर सुल्ताना की सभी वारदातों का विस्तार से अध्ययन किया और उन घटनाओं की विस्तृत जानकारी जमा की जब सुल्ताना और उसके गिरोह के सदस्य पुलिस के हाथों गिरफ्तारी से साफ बच निकले थे। 

फ्रेडी यंग को ये निष्कर्ष निकालने में ज्यादा देर नहीं लगी कि सुल्ताना की कामयाबी का राज उसके मुखबिरों का जाल है जो पुलिस विभाग तक फैला हुआ है। वो यह भी जान गया कि मनोहर लाल  पुलिस अधिकारी सुल्ताना का खास आदमी है जो सुल्ताना की गिरफ्तारी की हर कोशिश की खबर को उस तक पहुंचा देता है और इससे पहले कि पुलिस उनके ठिकाने तक पहुंचती वो अपना बचाव कर लेता है। 

सुल्ताना के छिपने की जगह नजीबाबाद के पास स्थित एक जंगल था, जिसे कजली बन कहा जाता था। यह जंगल बहुत ही घना और जंगली जानवरों से भरा हुआ था, लेकिन सुल्ताना जंगल के चप्पे-चप्पे को जानता था। उसके रहने की जगह जंगल के ऐसे घने इलाके में थी, जहां दिन के समय में भी सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती थी। सुल्ताना भेष बदलने का भी माहिर था और उसके बदन पर कट के निशान की वजह से उसे देखने वाला कोई व्यक्ति भी नहीं जान पाता था कि ये सुल्ताना हो सकता है। 

फ्रेडी यंग ने मुंशी अब्दुल रज्जाक की सूचना की बुनियाद पर सुल्ताना के चारों तरफ घेरा तंग करना शुरू कर दिया। मुंशी अब्दुल रज्जाक एक तरफ सुल्ताना से संपर्क में था और दूसरी तरफ उसकी हर हरकत की सूचना फ्रेडी यंग तक पहुंचा रहा था। एक दिन मुंशी ने सुल्ताना को एक ऐसे स्थान पर बुलाया, जहां पुलिस पहले से ही छुपी हुई थी। सुल्ताना जैसे ही मुंशी के बिछाए हुए जाल तक पहुंचा तो सेमुअल पेरिस  अंग्रेज अधिकारी ने उसे अपने साथियों की मदद से काबू कर लिया। 14 दिसंबर 1923 को। सुल्ताना ने पहले फायर करना चाहा मगर पुलिस उसकी राइफल छीनने में कामयाब हो गई। 
सुल्तान सिंह उर्फ़ #सुल्तानाडाकू के असलहे अब राज भवन #उत्तराखण्ड में हैं.।
यह  मामला #नैनीताल गन केस के नाम से जाना जाता है,जिसमें  सुल्ताना को सजा हुई थी। सुल्ताना डाकू के साथ 13 लोगों को फांसी की सजा दी गई। उसके गिरोह के कई लोगों को आजीवन कारावास और काला पानी की सजा दी गई।
सुलताना डाकू को नौटंकी में अमर करने वाले  थे  नथाराम शर्मा गौड़ ।  नथाराम शर्मा #हाथरस के रहने वाले थे और उनकी पुस्तक का नाम है - '' सुल्ताना डाकू उर्फ गरीबों का प्यारा ''।

दूसरे लेखक  अकील पेंटर जो  #लखनऊ  के चाँदन गांव (पोस्ट फरीदी नगर ) से थे और उनकी पुस्तक का नाम है - " शेर - ए - बिजनौर : सुल्ताना डाकू " । 
उत्तर प्रदेश और बिहार  के गावों में आज भी नौटंकी के रूप में नथाराम शर्मा  और अकील पेंटर के सुल्ताना डाकू  भी ज़िन्दा है।

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