हिंदी सिनेमा का इतिहास अनगिनत कहानियों से भरा है। कुछ कहानियाँ परदे पर आती हैं और अमर हो जाती हैं, जबकि कुछ किस्से अधूरे रहकर भी दर्शकों के मन में हमेशा के लिए बस जाते हैं। दिलीप कुमार और नूतन की जोड़ी का नाम भी ऐसे ही अधूरे सपनों में दर्ज है। सिनेमा प्रेमियों के लिए यह सबसे बड़ी त्रासदी रही कि दोनों दिग्गज कलाकार अपने करियर के स्वर्णकाल में कभी साथ नहीं आए।
करमा और कानून अपना अपना में देर से बनी जोड़ी
1986 में सुभाष घई की करमा और 1989 में बी गोपाल की कानून अपना अपना में दिलीप कुमार और नूतन को एक साथ देखा गया। मगर तब तक दोनों कलाकार अपने करियर की ऊंचाइयों को पार कर चुके थे। दर्शकों का यह सपना अधूरा ही रह गया कि अगर ये दोनों 1950 या 60 के दशक में साथ आए होते तो सिनेमा का रंग ही कुछ और होता।
1951 की वो अधूरी कोशिश – शिक़वा
सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि 1951 में दोनों को साथ कास्ट किया गया था। फिल्म का नाम था शिक़वा, जिसे रेशमी कहानीकार रमेश सैगल डायरेक्ट कर रहे थे। रमेश सैगल वही निर्देशक थे, जिन्होंने 1948 की शहीद बनाई थी और दिलीप कुमार को शुरुआती सुपरहिट दी थी। फिल्मइंडिया पत्रिका के अगस्त 1951 अंक में शिक़वा का विज्ञापन छपा था, जिसमें इसे बताया गया – “The story of a man who challenged GOD…!”
फिल्म के संगीतकार गुलाम हैदर तय हुए थे, जो शहीद के बाद पाकिस्तान चले गए थे। यह फिल्म अगर पूरी होती तो हिंदी सिनेमा को एक अनोखा मोती मिल सकता था।
दिलीप कुमार और नूतन की कहानी परदे पर
शिक़वा में दिलीप कुमार एक ऐसे सैनिक की भूमिका निभा रहे थे, जो जंग से ऊबकर शांति की मांग करता है। इस संघर्ष में उसका एक हाथ और एक आंख चली जाती है, चेहरा भी विकृत हो जाता है। युद्ध लड़ने से इंकार करने पर उसे बगावत के आरोप में कोर्ट मार्शल किया जाता है।
नूतन फिल्म में इंदु के किरदार में थीं। वह अपने प्रेमी राम (दिलीप कुमार) को बचाने की गुहार लगाती हैं। लेकिन जांच अधिकारी नरेंद्र, जो खुद उनसे प्रेम करता है, शर्त रखता है कि अगर इंदु उसे स्वीकार कर ले तो वह राम को बचा लेगा। कहानी यहीं से और भी त्रासदी की ओर बढ़ती है। राम पागलखाने भेजा जाता है, वहां से भाग निकलता है और इंदु के घर पहुंचता है। लेकिन वहां उसे दुल्हन के जोड़े में देखकर टूट जाता है और खुद को फिर से कैद करा लेता है।
फिल्म का अधूरा सफर
करुणेश ठाकुर, जो उस फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर थे, ने बाद में बताया कि यह फिल्म फिल्मकार कंपनी बना रही थी। यह कंपनी दीदार (1951) और घुंघरू (1952) जैसी फिल्में बना चुकी थी। लेकिन उनकी एक फिल्म मान (1954) फ्लॉप हो गई और शिक़वा भी अधूरी रह गई। कंपनी को बंद करना पड़ा और सिनेमा का यह स्वप्न हमेशा के लिए अधूरा रह गया।
बची-खुची यादें – फुटेज और झलकियां
हालांकि यह राहत की बात है कि फिल्म के कुछ एडिटेड दृश्यों का फुटेज आज भी सुरक्षित है। इन दृश्यों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर फिल्म पूरी होती तो यह दिलीप कुमार और नूतन के करियर की एक और मील का पत्थर साबित होती। विशेषकर कोर्ट मार्शल वाला दृश्य इस बात की गवाही देता है।
निष्कर्ष
शिक़वा सिर्फ एक अधूरी फिल्म नहीं है, बल्कि हिंदी सिनेमा का वह सपना है जो कभी साकार नहीं हुआ। यह हमें याद दिलाता है कि सिनेमा केवल बनी हुई फिल्मों की कहानी नहीं है, बल्कि उन अधूरी कोशिशों की दास्तान भी है जो कभी परदे तक नहीं पहुंच पाईं।
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