#झण्डागीतकेरचयिता
श्यामलाल गुप्त 'पार्षदजी'!
बन्धु कुशावर्ती
'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झण्डा ऊंचा रहे हमारा....' यह झण्डा-गीत,कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में गाने के लिये पार्षदजी' से गणेशशंकर विद्यार्थी जी ने सन्१९२४ में लिखवाया था। यह मैं पढ़ी हुई सामग्री की स्मृति के आधार पर यहां लिख रहा हूं।सही वर्ष आदि तो मूल सन्दर्भ देखने पर ही दर्ज़ कर पाऊंगा।
विद्यार्थीजी कांग्रेस की गतिविधियों से तन,मन,धन से जुडे़ थे।कांग्रेस के अधिवेशन होते तो जो जि़म्मेदारी उन्हें मिलती,उसे भी वह पूरे मनोयोग से पूरी करते थे।
(१)
१९२५में कांग्रेस का अधिवेशन होता था तो उसमें कांग्रेस का झण्डा फहराया जाता था।'पर अब तक कोई झण्डा-गीत नहीं था, जिसे उस अवसर पर गाया जा सके!' यह विचार विद्यार्थीजी के मस्तिष्क में कौंधा तो उन्होंने पार्षदजी से सम्पर्क किया और कहा कि अगले वर्ष वह एक एक झण्डा-गीत लिखें।कांग्रेस का झण्डा जब भी कहीं फहराया जाय,उस समय हमारे पास झण्डा-वन्दन के लिये अपना झण्डा-गीत होना चाहिये!
अत:विद्यार्थीजी के आग्रह पर पार्षदजी ने कई चरण का 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा....' झण्डा-गीत लिखा। अपरिहार्य संशोधन की दृष्टि से गीत से कुछ चरण हटाये गये तथा उसमें कुछ संवर्द्धन भी हुआ और १९२५के अखिल भारतीय कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पार्षदजी का लिखा यह झण्डा-गीत गाया गया और तभी से प्रसिद्ध हो गया।
स्वतन्त्रता-पूर्व के कवियों में जानी-मानी शख्सियत रहे पार्षदजी, कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे,अत:उसके अनेक आह्वानों-कार्यक्रर्मों में सक्रिय रूप से भाग लिया करते थे! देश आजा़द होने के बाद ये सक्रियताएं और व्यस्तताएं पार्षदजी के साथ ख़त्म ही हो गयीं,पर जाने-माने हिन्दी कवि,सामाजिक,कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता या पदाधिकारी की भूमिकाओं से वह जुड़ गये थे। परन्तु झण्डा-गीत रचनेवाली ऐतिहासिक-भूमिका के वह कवि भी हैं,इसका संज्ञान लेना अमूमन ज़रूरी नहीं समझा! इस देश में सीधे-सहज लोगों के साथ ऐसी उपेक्षाएं कोई आश्चर्य भी नहीं हैं।
(३)
लखनऊ से निकलती साहित्यिक पत्रिका 'कात्यायनी' को छापते गुप्ता प्रिटिंग प्रेस (शिवाजी मार्ग)के मालिक की बेटी का विवाह, सन् १९७१ की गर्मियों में था,कानपुर से आयी बारात में साधारण- सी हैसियत के शख़्स के बारे में वर के पिता ने परिचय में जातीय- गौरववश परिचय कराया:'ये हमारी बिरादरी के श्यामलाल गुप्तजी हैं।'पार्षद' नाम से कविता करते हैं...'यह सुनते ही लखनऊ शहर के कांग्रेस से सक्रियता से जुडे़ व क्रान्तिकारी 'द्विवेदी बन्धु' परिवार के सबसे छोटे भाई अश्विनीकुमार द्विवेदी,जो ख़ुद भी सन्१९४२में 'अंग्रेजों भारत छोडो़',गान्ध़ीजी के आह्वान में जी-जान से अपने से बडे़ तीनों भाइयों की तरह सक्रिय रहकर २-२भूमिगत अख़बारों-- 'आजा़दी' और 'किसान-राज' गुप्त रूप से निकालते हुए जनता में पहुंचाया करते थे और 'कात्यायनी' के सम्पादक के नाते बारात का स्वागत कर रहे थे,झट बढ़कर पार्षदजी का सादरअभिवादन करते हुए अलग बिठाया,जलपान आदि कराया और फिर बोले,'बहू बन रही,बेटी की विदाई के लिये आप बारात में शामिल हैं यह हम सब का सौभाग्य है!'
-भैय्या,ई तो सामाजिक कारज आय।एह ते हमहूं आये हन।काल्ह बिदाई होई,कानपुर लौटु जाइब..' वह आगे कुछ बोलते किअश्विनी जी बोले,'ऊ तो काल्हू होई,हम अबहीं आपते थोड़ी बेर बातु करिबै, आपु जलपान कइकै फारिग होइ जाव तौ।'
इसके बाद पार्षदजी से,अश्विनीकुमार द्विवेदीजी नेलगभग एक घंटे तक जो बातचीत की तो पता चला कि पार्षदजी कानपुर में कांग्रेस में होकर भी गुमनाम हैं।कभी कविगोष्ठी या कवि-सम्मेलन मे बुला लिया तो गचले जाते हैं।हमारे देश की आजा़दी के लिये सक्रिय रही पार्टी के झण्डे के लिये गीत लिखा,विद्यार्थीजी से विचार-विमर्श के बाद उसमें संशोधन और काट-छांट हुई,ये सब गौरवपूर्ण इतिहास का हिस्सा है।
इस पर कभी किसी ने पार्षदजी से बातचीत ही नहीं की।बालकृष्ण शर्मा 'नवीनजी'जी थे,तब तक कानपुर की काग्रेस में पुराने लोगों कि इज़्ज़त-हैसियत थी।उसके बाद तो जो लोग कांग्रेस में रहे आये अपनी फिक़्र करते रहे हैं। इसी तरह की और भी बाते पार्षदजी ने की थी।