Do Bood Pani

54 बरस हुए...ख्‍़वाजा अहमद अब्‍बास ने एक फिल्‍म बनायी 'दो बूंद पानी'।  राजस्‍थान की पृष्‍ठभूमि पर बनी इस फिल्‍म ने पानी की कमी का मुद्दा उठाया था। जलाल आग़ा, सिमी गरेवाल, मधु चंदा, किरण कुमार जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी इस फिल्‍म को राष्‍ट्रीय एक‍ता के लिए बनी फिल्‍म का नरगिस दत्‍त पुरस्‍कार 
मिला था। आज इतने बरस बाद भी पीने के पानी की समस्‍या बरक़रार है। बल्कि और भीषण रूप लेती चली जा रही है। कुछ फिल्‍में कैसे अपने समय से कदम-ताल करती हुई चलती हैं। बल्कि अपने समय से आगे की बात करती हैं। 
'दो बूंद पानी' में संगीत जयदेव का था। दिलचस्‍प ये है कि इस फिल्‍म के गाने कैफ़ी आज़मी, बालकवि बैरागी और एम आर मुकुल ने लिखे थे। 

'पीतल की मोरी गागरी दिल्‍ली से मोल मंगाई रे'...परवीन सुल्‍ताना और मीनू पुरुषोत्तम की आवाज़ों में ये फिल्‍म का सबसे अनमोल गीत है। तकरीबन पांच मिनिट का जादू....परवीन सुल्‍ताना ने सिर्फ 'हमें तुमसे प्‍यार कितना' ही नहीं गाया। उनके कुछ और अनमोल फिल्मी गाने भी हैं। इस गाने में बांसुरी की एक उदास तान भी है और फिर है दिल को चीर लेने वाली कैफ़ी आज़मी की ये पंक्तियां -- 

एक दिन ऐसा भी था, पानी था गांव में
नाते थे गगरी भर के तारों की छांव में 
कहां से पानी लायें, कहां ये प्‍यास बुझाएं 
जल जल के बैरी धूप में संवलाया रंग दुहाई रे
पीतल की मेरी गागरी।। 

इसी फिल्‍म में आशा भोसले का गाया 'जा री पवनिया पिया के देस जा' जैसा विकल गीत भी है। जयदेव के संगीत में बंसी अपने पूरे वैभव के साथ सुनायी देती है। उनका रिदम भी सबसे जुदा है। आशा भोसले के गाये सबसे जज्‍़बाती गानों में से एक है। 

तन-मन प्‍यासा, प्‍यासी नजरिया प्‍यासी प्‍यासी गागरिया
अंबर प्‍यासा धरती प्‍यासी, प्‍यासी सारी नगरिया
प्‍यास बुझेगी तब जीवन की, जब घर आवे सांवरिया 
इतना संदेसा मोरा कहियो जा
जा री पवनिया पिया के देस जा।। 

इस गाने को वीडियो पर देखिए। आपको एक ग़ज़ब का विरोधाभास नज़र आयेगा। पानी को तरसते गांव और बेरहम शहर की मशीनों को जयदेव ने अपने वाद्य-संयोजन से जिस तरह उभारा है-- वो उन्‍हें सचमुच विलक्षण बनाता है।

फिल्‍म का शीर्षक गीत है--
'अपने वतन में आज दो बूंद पानी नहीं
दो बूंद पानी नहीं तो यहां जिंदगानी नहीं'।। 

इस फिल्‍म में एक गीत बालकवि बैरागी ने लिखा है और इसे गाया है लक्ष्‍मी शंकर ने--

बन्‍नी तेरी बिंदिया की ले लूं रे बलैंयां  
भाभी तेरी बिंदिया की ले लूं रे बलैंयां।। 

जब भी दादा का नाम आता है तो कानों में उनकी आवाज़ गूंज उठती है। कवि सम्‍मेलनों में उनके पढ़ने का ओजस्‍वी अंदाज़ याद आता है।
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