Batwaare ki lakir

 बटवारा की लकीर

देश को स्वतंत्र कराने के लिए सभी हिन्दुस्तानियों नेजानकी बाजी लगा दिया था और इसका परिणाम 1857 के गदर की तरह असफल होने वाला नहीं था। इसका आभास ब्रिटिशसरकार को हो चुका था। इंग्लैंड में कंजरवेटीवपार्टी का नेतृत्व विंसटनचर्चिलकर रहे थे और द्वितीय विश्व के दौरान लार्ड माउंट बेटन इंग्लैंड केसेना नायक थे।  इनके नेतृत्व में द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा गया था जिसमें जर्मनी की हार तथा इंग्लैंड, फ्रांस की जीत हुई थीप्दोनों देश जर्मनी के आक्रमण से बुरी तरह प्रभावित थे। माउंट बेटन मूल रुप से जर्मनी के निवासी थेऔर उनके परिवार की एकमहिला की शादी ब्रिटिश राजपरिवार में हुई थी। माउंट बेटन के पिताजी भी ब्रिटिश नौसेना में अधिकारी थे लेकिन जब हिटलर की सेना ने इंग्लैंड पर आक्रमण किया उस समय प्रधान मंत्री विंसटन चर्चिल ने जर्मन नागरिकों को महत्त्वपूर्ण पदों सें हटादिया था। इसमें माउंट बेटन के पिता को भी झूठे आश्वाशन देकर नौकरी से हटाया  गया और दोबारा कभी नौकरी में नहीं लिया गया।



माउंट बेटनकोद्वितीयविश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार हाउस ऑफ लार्ड के लिए नामांकित किया थाद्वितीय विश्व युद्ध के बादचुनाव में लेबर पार्टी की सरकार बनी और क्लीमेंट एटली प्रधान मंत्री नियुक्त हुए थेप्

भारतीय महाद्वीपमें स्वतंत्रता के लिए जिज्ञासा बढती जा रही थी। प्रधान मंत्री एटलीनेस्थिति की गंभीरताकोदेखते हुए लार्ड माउंट बेटन को भारत का वाइसरायनियुक्त किया और निर्देश दिया था कि 14 माह में स्वतंत्रता का कार्य पूरा होना चाहिएद्य लार्ड माउंट बेटन अपने मिशन को पूरा करने में जुट गये। सन 1925 में देश में दंगे की शुरुवात हिन्दू दृ मुस्लिम के बीच हुई थी जिसके कारण दोनों समाज में दरार पैदा हो गई। सन 1921 में ढाका के एक नवाब ने अपने स्वार्थ के लिए मुस्लिम लीग पार्टी की स्थापना किया । बाद में अनेक अंग्रेज समर्थक और स्वार्थी लोग उसमेंशामिल होते गये। अंग्रेज सरकार दंगो को उकसाने का कार्य करती थी। अत्यधिककटुता पैदाकर अंग्रेजो ने स्वार्थी दलों को खुश करने का फार्मूला तय कर दिया। बँटवारे के लिए महात्मा गांधीजी तथा अन्य नेता तैयार नहीं थे। परिस्थितियाँ विकट हो रही थी तथालोगों में दरार बढाने की कोशिश निरंतरजारी थी। सन 1946 में पूर्वीबंगाल के नोवाखाली में दंगे भड़क गये और लगभग 5000 हिन्दुओं की हत्या 50 वर्ष हिन्दू से मुसलमान बनेअपने भाइयों ने करदिया।

भारत पाकिस्तानबँटवारे की तारीख नजदीक आ रही थी। दो देश बनाने के लिए किसी भौगोलिक जानकर व्यक्तिको नियुक्त करना चाहिए थाजैसेकि किसी अन्य बड़े महत्त्व केनिर्णय में समिति गठितकी जाती है लेकिन इस मामले में किसीभारतीय से राय नहीं ली गई। 

लार्ड माउंटबेटन को पूर्णअधिकारथा। किसी दल के नेता ने बँटवारे के प्रकार तथा स्थिति का आकलन नहीं किया।दो देश बनाने के लिएलार्ड माउंट बेटन ने अपने एकवकील मित्र को इंग्लैंड से भारत बुलाया और दिल्ली में ठहराया। वह व्यक्ति भारत के बारे में कोई जानकारी नहीं रखतेथे और पहली बार भारत आए थे।

धर्म को आधार बनाकर एकअंग्रेजवकीलसिरिल रेडक्लिफ कोदेश का बँटवारा करने की जिम्मेदारीमाउंट बेटन नेदे दिया था। 

सीमा निर्धारण करने के लिए रेडक्लिफ को सीमा आयोगद्वाराएक दुसरे से सटे हुए बहुसंख्यावाले इलाकों के आधार पर सीमा रेखा खीचनेकी हिदायत दी गई थी।

तर्क और तर्कहीनता के रंगों से बनी विभाजन की इस तस्वीर का सबसे नाटकीय और कड़वा साहित्यिक बयान सआदत हसन मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ में मिलता है। मंटो की यह सर्वश्रेष्ठ कहानी इस तरह शुरू होती है:

“बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख़याल आया कि अख़्लाक़ी कैदियों कीतरह पागलों काभी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जोहिंदू और सिख पाकिस्तान केपागलख़ानों में हैं उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए।“

विभाजन उपमहाद्वीप की जनता के मानस में हमेशा अपनी आहटें गुँजाता रहता है। कहीं दूर मन के छिपे हुए कोनों में विभाजन की सरसराहटें एकऐसी दुनिया का अहसास दिलाती रहती हैं जिसमें आधुनिक राजनीति की अपरिहार्य हताशाएँ निवास करती हैं। जिन लोगों ने विभाजन में भूमिका निभाई, वह उन्हीं के डरों की उपज था। उनमें हिंदू भी थे, मुसलमान भी थे, सिख भी थे और अनीश्वरवादियों के साथ-साथ उनमें अंग्रेजतक शामिल थे। विभाजन ने अपने दुष्प्रभावों के साथ ज़िंदा रहने वाले लोगों की आशंकाओं और भय कोकम नहीं किया बल्कि उन्हें और बढ़ाया। विभाजन के अनिश्चित और अर्थपूर्ण क्षण को कागजों पर उतारने यानी भारत और पाकिस्तान नामक ब्रिटिश राज के दोउत्तराधिकारी राज्य बनाने का जिम्मा ब्रिटिश वकील सिरिल रेडक्लिफ को दिया गया था। यद्यपि विभाजन जैसी भीषण घटना में कोई कविता निहित नहीं हो सकती थी, फिर भी डब्ल्यू.एच. ऑडेन की रेडक्लिफ पर लिखी इन पंक्तियों में उस अभूतपूर्व क्षण में निहित अफ़रा-तफ़री, आशंका और अबूझ पहेली जैसे आयामों के दर्शन किए जा सकते हैं:

“एकांत हवेली थी जिसमें वह रहता था

उसके प्राणों की रक्षा की ख़ातिर बग़ीचे में हर वक्त पुलिस पहरा था।

बैठा था वह तय करने लाखों की क़िस्मत

नक्शे थे उसके पास सभी पुराने और गलत

जनगणना की सूची में भी काफ़ी गड़बड़ थी

पर सुधारने का, विवादित जगहों की जाँच का समय नहीं था, हड़बड़ थी

मौसम भीषण तपिश भरा था

और तिस परउसको पेचिश भी, दौड़ा-दौड़ा फिरता था

फिर भी सात हफ्तों में काम हो गया, सरहदें बन गईं

अच्छी या बुरी, एक महाद्वीप के माथे पर रेखाएँ खिंच गईं

अगले दिन ही शुरू हुआ जहाज से ब्रिटेन का सफर

हर अच्छे वकील की तरह वह भूल गया सब कुछ वहाँ पहुँच कर

फिर वापस आएगा वह क्योंकर 

क्लब में कहा था उसने, उनको था मारे जाने का डर!”

सवाल यह है कि रेडक्लिफ़ ने आखि़रकार विभाजन के नाम परकिया क्या था? क्षण क्या उन्होंने किसी एक भू-क्षेत्र को दो राष्ट्रों में बाँट-भर दिया था? या विभाजन के जरिये एक सभ्यता दो भू-क्षेत्रों में तोड़ दी गई थी? विभाजन अवधारणा के स्तर पर पहेलीही बना हुआ है जिसके कारण उनके कार्यान्वयन से जुड़ी विस्तृत बारीकियाँ आज भी रहस्यों में लिपटी हुई हैं। भारत छोड़ने से पहले रेडक्लिफ़ ने सीमाएँ निर्धारित करने वाले अपने सभी नोट्स और कागज़ात नष्ट कर दिए थे।


     रेडक्लिफ़ को भारत के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यहाँ की गर्मी में पाँच हफ्तों तक पसीना बहाने के दौरान ही उन्हें भारत का थोड़ा-बहुत परिचय मिला। इस छोटी सी अवधि में वे विभाजन का मानचित्र तैयार करने की असंभव जिम्मेदारी निभाने के लिए नक्शों से जूझते रहे। 15 अगस्त की रात बारह बजे यूनियन जैक को आखि़री बार उतारा जाना था। इससे ठीक एक दिन पहले रेडक्लिफ़ ने अपने सौतेले बेटे को लिखा:

मैंने सोचा कि शायद तुम्हें भारत से आए पत्र के लिफ़ाफे पर राजमुकुट छपा देख कर अच्छा लगेगा। कल शाम के बाद पत्राचार की इस सामग्री का इस्तेमाल करने की इजाजत किसी को कभी नहीं मिलेगी और भारत पर 150 साल का ब्रिटिश शासन खत्म हो जाएगा दृ शुक्रवार की सुबह यूनियन जैक उतार दिया जाएगा और उसकी जगह जो ध्वज फहराया जाएगा उसके बारे में मैं फ़िलहाल भूल गया हुँ, शायद उसके बीच में चरखा बना होगा या मकड़ी का जाला। मैं सुबह वायसराय हाउस में भारतीय संघ के पहले गवर्नर जनरल के रूप में माउंटबेटन को शपथ लेते देखने जाऊँगा और उसके बाद मैं दिल्ली हवाई अड्डे पर जम जाऊँगा और उस वक्त तक इंतजार करता रहूँगा जब तक इंग्लैंड से कोई विमान नहीं आ जाता। पंजाब और बंगाल के बारे में मेरे फैसले के बाद भारत का कोई भी व्यक्ति मुझे पसंद नहीं करेगा। करीब आठ करोड़ असंतुष्ट लोग मुझे ढूँढ़ना शुरू कर देंगे। मैं उनके हत्थे नहीं चढ़ना चाहता। कितनी मेहनत, कितना सफ़र, और कितना पसीना बहा चुका हूँ मैं दृ उफ़, हर वक्त कितना पसीना!

अंगरेजों ने बड़ी धूमधाम से भारत छोड़ा था। उस वक्त बड़े शानदार व्याख्यान दिए गए थे लेकिन उनके गमन का असली स्तृति-लेख रेडक्लिफ़का यह व्यक्तिगत बयानही था जो थकान, डर और

ईमानदार करुणा से भरा हुआ था।

विभाजन भारत के बुनियादी विचार के मर्म में एक अकथनीय दुख की तरह भरा हुआ है। विरोधाभास यह है कि विभाजन के जिस क्षण ने भारत को संभव बनाया, उसी के कारण  इस विचार के आत्यंतिक मूल्य का क्षय हो गया। इस दुर्घटना के कारण राष्ट्रवादी दृष्टि की एक अनिवार्य आस्था कमज़ोर पड़ गई कि भारत में विभिन्नताओं को जमा करने और उनके साथ जीवित रहने की असाधारण क्षमता है। टैगोर इस संत्रास को झेलने के लिए जीवित नहीं थे। गाँधी ने इस पीड़ा को सहा, मगर बहुत थोड़े दिन। लेकिन, नेहरू को विभाजन के काले साये में इस अकथनीय दुख को अपने और अपने राष्ट्र के जीवन का अंग बनाना पड़ा ताकि भारत के बुनियादी विचार को मलिनता से निकाल कर कुछ गौरव प्रदान किया जा सके। यही थी नेहरू की योजना जिस पर उन्होंने अमल किया।

इतिहास अभी तक विभाजन के घावों पर मरहम नहीं लगा पाया है। फ्रांसीसियों के लिए जो महत्त्व 1789 का है, वही महत्त्व भारतवासियों के लिए विभाजन का बना हुआ है क्योंकि यही वह क्षण था जब भारतीय राष्ट्र ने जन्म लिया था और इसके लिए उसे अपने आप से एक हिंसक संबंध-भंग करना पड़ा था। यह क्षण भारत की अस्मिता को परिभाषित करने के साथ-साथ उसे संदिग्ध भी बनाए रखता है। विभाजन भारतवासियों के कंधो पर विविधताओं के प्रति सहिष्णुता का उत्तरदायित्व भी डालता है, लेकिन उससे एक राष्ट्र बनने अर्थात राष्ट्रीयता के प्रति एक साथ पूर्ण रूप से समर्पित होने की अपेक्षा भी करता है। भारत की विविधताओं की जड़े बहुत गहरी हैं और उनके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके कारण देश में विभाजन के एक और संकट का ख़तरा हमेशा बना रहता है। ये विविधताएँ ही नए विभाजनों की महत्त्वाकांक्षा को जन्म देती हैं। यह परेशानी तब तक बनी रहेगी जब तक भारतीय लोग विभाजन के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व से अपना तादात्म्य नहीं स्थापित कर लेते। इस समस्या की सबसे ताज़ा मिसाल हिंसा और विस्थापन के अनुभव की जांच पड़ताल करने के ज़रिये विभाजन की व्याख्या करने की कोशिश है। निश्चित रूप से इसे एक बेहतरीन बौद्धिक प्रयास समझा जाना चाहिए क्योंकि आम लोगों की इस त्रासदी से ही विभाजन की भित्ति बनी थी। पर समस्या यह है कि राज्य की ऐतिहासिक स्मृति में बहुत कम स्थान ले सकने वाले इस अनुभव के अनुसंधान ने जान-बुझकर विभाजन के राज्य संबंधी परिप्रेक्ष्य को नजरंदाज किया है और इस चक्कर में विभाजन का तात्पर्य ही उसके हाथ से निकल गया है।  


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