Bhasha

 अंग्रेजी भाषा को मजबूत और प्रभावशाली बनाने के लिए लैटिन ग्रीक, फ्रेंच तथा हिन्दी, उर्दू, अरबी, पुर्तगाली भाषाओं के शब्दों को अंग्रेजी में शामिल किया। आज भी प्रतिवर्ष करीब 300 हिन्दी के शब्द अंग्रेजी में शामिल किए जाते हैं।  


 भाषा किसी भी समाज और देश की बौद्धिक चिंतनशीलता एवं विचारधारा के अभिव्यक्ति का माध्यम है। जिसके कारण समाज का प्रत्येक व्यक्ति आपसी मेलजोल के अलावा विचारों का आदान-प्रदान करता है और अपनी विद्वता,साहित्यिक क्रियाशीलता, कर्मठता, नवोन्मेष को व्यक्त करता है। 


प्रत्येक देश का व्यक्ति अपनी भाषा में सहजता से अपने मनोभाव अभिव्यक्त करता है। बिना भाषा के प्रत्येक व्यक्ति गूंगा है। वर्तमान भाषाओं का विकास करीब 3 हजार वर्षों के अथक परिश्रम का परिणाम है।

आज भारत में करीब 1362 बोलियां और 22 मान्य भाषाएँ हैं। स्वतंत्रता से पहले आक्रमणकारी शासकों की भाषाएँ इस देश में लागू करने की कोशिश अनेकों बार हुई है। जिसमें से कुछ शासक कामयाब हुए और कुछ शासकों ने यहाँ की भाषाओं में ही अपनी शासन व्यवस्था को जारी रखा। मुगल शासन काल के पहले दक्षिण भारत में  खड़ी बोली हिन्दी का विकास आरंभ हो चुका था। इसके पहले 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचनाएँ अवधी भाषा में लिखी। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ब्रज भाषा विकसित थी जिसमें प्रसिद्ध कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण के बाल्यकाल का मार्मिक वर्णन ब्रजभाषा में किया। मुगल काल में फारसी लिपि का प्रयोग सरकारी विभागों में किया जाता था। अरबी और फारसी लिपि के जानकार लोगों को शासन द्वारा नौकरी प्रदान की जाती थी। स्वार्थवश शासन से जुड़े लोगों ने अपनी जीविका को स्थायी बनानेके लिए खड़ी बोली हिन्दी का विकास रोकने की कोशिश किया जिसके परिणामस्वरूप फारसी लिपि में उर्दू भाषा विकसित हो गई और सरकारी कार्य उर्दू में होने लगा। स्वतंत्रता पश्चात खड़ी बोली हिन्दी का रूप विकसित हुआ और सरकारी महकमों से उर्दू का स्थान हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी ने ले लिया। मुगल शासन के पतन के पश्चात 16वीं शताब्दी में अग्रेज कोलकाता पहुंचे और ईस्टइंडिया कंपनी की स्थापना किया। इसके लिए उन्होने वहाँ 6 गाँव खरीदे और वही रहकर व्यवसाय करने लगे। धीरे-धीरे उन्होने शासन पर पकड़ बना ली और शासन तंत्र अपने हाथ में ले लिया। सन् 1614 में उन्होने कुछ भारतीय हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में रखकर उन्हें आगे ईसाई धर्म का प्रचार करने केलिए शिक्षा दिया। कंपनी कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने के लिए स्कूल खोले गए और उनका उपयोग ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए किया गया। भारतीय जनता के दो महत्वपूर्ण अंग थे- एक हिन्दू और दूसरा मुसलमान। दोनों को खुश करने केलिए सन् 1780 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने कोलकत्ता मदरसा की स्थापना किया जो पूर्ण रूप से मुसलमानों के लिए था। इन्हें शिक्षित कर सरकारी सेवा में लेने की व्यवस्था थी। इसी तरह सन् 1791 में सर जोनाथन डंकन ने हिंदुओं के लिए बनारस संस्कृत कॉलेज की स्थापना किया। इस प्रकार दोनों समुदायों को खुश रखने का प्रयास सन् 1947 तक चलता रहा। बाद में इसका परिणाम देश के बटवारे के लिए जिम्मेदार हुआ।

6वीं और 7वीं सदी में ईसाई धर्म का प्रचार फ्रांस,इंग्लैंड और यूरोपीय देशों में हुआ। मूल रुप से वर्तमान यूरोप के सभी देश यूहदी धर्म को मानते थे और सामाजिक, राजनीतिक कारणों से दो नए धर्मों का उदय हुआ जिन्हें आज ईसाई और इस्लाम के नाम से जाना जाता है। जब रोमन साम्राज्य यूरोप में शक्तिशाली हुआ तो उसने यूरोप के सभी राज्यों को गुलाम बनाया और उनकी भाषाओं को नष्ट कर दिया। इंग्लैंड भी पहली शताब्दी से 4थी शताब्दी तक रोम का गुलाम था। रोमन शासकों ने इंग्लैंड की भाषा केल्टिक को समाप्त कर लैटिन भाषा लागू कराया था। रोमन लोगों के इटली जाने के बाद फ्रांस के शासकों की इंग्लैंड में भाषा फ्रेंच थी। अंग्रेजी बोलने वालों को गवार कहा जाता था और सभी सरकारी कार्य केवल फ्रेंच में ही होते थे। अपने देश में अपना अपमान सहना लोगों को अच्छा नहीं लगता था इसलिए उन्होने सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया और फ्रेंच भाषा की हमेशा के लिए विदाई कर दी। अंग्रेजी भाषा को मजबूत और प्रभावशाली बनाने के लिए लैटिन ग्रीक, फ्रेंच तथा हिन्दी, उर्दू, अरबी, पुर्तगाली भाषाओं के शब्दों को अंग्रेजी में शामिल किया। आज भी प्रतिवर्ष करीब 300 हिन्दी के शब्द अंग्रेजी में शामिल किए जाते हैं। जैसे बाजार, सरदार, जंगल,चिन्दी, आदि।सत्ता पर पूर्ण रूप से कब्जा करने के बाद ब्रिटिश सरकार कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती थी जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया हो। सन् 1773 में अंग्रेजों ने अमेरिका में दमनकारी नीति लागू किया था जिसके परिणामस्वरूप क्रांति का उदय हुआ और अमेरिका स्वतंत्र हो गया जिसके कारण अंग्रेजो को आर्थिक हानि उठानी पड़ी। ऐसा वह दुबारा भारत में नहीं करना चाहते थे। शासन तंत्र मजबूत करने के लिए स्थानीय लोगों पर अधिक विश्वास नहीं था इसलिए अंग्रेज अधिकारियों ने धर्म प्रचार का कार्य ईसाई मिशनरियों के जिम्मे दे दिया और गरीबों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोले। गरीबों को लाचार देखकर या आर्थिक सहायता देकर उनको ईसाई धर्म में परिवर्तित करा लेते थे। इस कार्य के लिए अनेक मिशनरी कार्य कर रहे थे जिनको आर्थिक सहायता सरकार देती थी। भारतीय लोगों को शिक्षित करने के लिए अनेक स्कूल खोले गए थे। सेंट मेरी स्कूल मद्रास (1715) चैरिटी स्कूल मुंबई (1719) चैरिटी स्कूल कलकत्ता (1720) फीमेल आरफन और मेल असाईलयममद्रास (1787), इंग्लिश चैरिटी स्कूल तंजौर (1772) इंग्लिश चैरिटी स्कूल रामनाद तथा शिव गंगा (1785) थे। कुछ समय बाद ईसाई मिशनरियों ने स्कूलों के माध्यम से ईसाई धर्म का प्रचार आरंभ किया।वे लोगों को आर्थिक सहायता देते थे और चमत्कारी बातों का विश्वास दिलाते थे। धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के कारण सन् 1806 में भारतीय सैनिकों ने बेलूर में बगावत कर दिया। इसके पहल सन् 1802 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने समुद्र पार करने के अपने कमांडर के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। सन् 1806 की बेलूर वाली घटना में अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों को आदेश दिया था कि दाढ़ी मुड़वा कर 


स्मार्ट बनो और पगड़ी की जगह चमड़े की टोपी पहनो। अंग्रेज अफसर हिंदुओं के तिलक या पगड़ी या दाढ़ी मूँछ के धार्मिक महत्व को नहीं समझने के कारण इन्हें छोड़ने का आदेश दे दिए थे। भारतीय सिपाहियों ने सोचा कि कंपनी के अधिकारी हमारा धर्म छुड़वाकर हमें ईसाई बनाना चाहते हैं इसलिए बगावत आरंभ कर दिया जिसके परिणामस्वरूप बेलूर में उपस्थित 300 अंगेज अधिकारियों में से 200 अधिकारियों को मार डाला ।

18वीं शताब्दी के उतरार्ध में इंग्लैंड में मिशनरी का सेवा कार्य जोर शोर से जारी था। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद अमीर तथा गरीब की खाई बहुत बढ़ गई थी। सभी नागरिकों को शिक्षा उपलब्ध नहीं थी। सन् 1759 में डॉक्टर जॉनसन ने लिखा है कि “यूरोपियन जिस देश में भी गए केवल अपने लालच की पूर्ति के लिए, भ्रष्टाचार फैलाने के लिए, अवैध रूप से राज्य हड़पने के लिए, और क्रूरता का काम अपने उद्देश्यको प्राप्त करने के लिए गए तथा किसी की भलाई करने नहीं गए थे।

अंग्रेजों को सस्ते नौकर की जरूरत शासन चलाने के लिए थी। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए हिन्दू तथा मुसलमान के कुलीन वर्ग को शिक्षा दी जाती थी और इसके लिए अनेक स्कूल बंगाल तथा अन्य प्रान्तों में खोले गए थे। सन् 1832 में लार्ड मैकाले ने देश भर का दौरा किया और ब्रिटिश सरकार को सलाह दिया कि कैसे इस देश के कुलीन वर्ग को गुलाम बनाया जा सकता है। इसी तरह का व्यापार रोमन तथा फ्रेंच लोगों ने इंग्लैंड को गुलाम बनाते समय किया था। सन् 1832 में धर्म प्रचारक एलेक्जांडर डफ अपने उद्देश्य में सफल हुए। उन्होने बंगाल के ब्राह्मण कृष्णमोहन बनर्जी को ईसाई बनाया। इसके पश्चात महेश चन्द्र घोष, कैलाश चन्द्र मुखर्जी, प्यारे मोहन रुद्र, एसी मजूमदार, लालबिहारी डे, माइकल मधुसूदन दत्ता ईसाई बने। सन् 1844-45 में कुलीन ब्राह्मण परिवार के बच्चे स्कोटिश चर्च कॉलेज के विद्यार्थी थे। इनमें से दो विद्यार्थी प्रसन्न चन्द्र बनर्जी तथा ताराचंद बैनर्जी ईसाई बने। अंग्रेजों का विचार था कि कुलीन वर्ग के लोग ईसाई बनाए जाएंगे तो अन्य वर्ग के लोग पीछेदृपीछे आ जाएंगे। वे अपने प्रयास में सफल हो गए।

नए ईसाई बने नौजवान गाय तथा सुवर का मांस खाने लगे और पश्चिमी सभ्यता में रमकर शराब पीते थे। सिगरेट का धुंआउड़ाते हुए स्वच्छंद रूप से जीवन बिताने लगे जिसका दर्शन 1947 तक भारत में जारी था। स्वतंत्रता पश्चात सन् 1950 तक भारत में अंग्रेजी बोलने वालों का प्रतिशत 2 )था जो 72 साल बाद 10ः तक विशेष रूप से शहरों में पसरा है। देश में अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्रणाली देश के राजाओं, नवाबों, जमींदारों ने अपने बच्चों के हितों को ध्यान में रखकर लागू कराया था जो आज निरंतर बढ़ रही है जो लोकहित में नहीं है क्योंकि सबके लिए अंग्रेजी की शिक्षा संभव नहीं हैप्       


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