Bhasha Bhata Neer

कबीर और तुलसी एक ही सिक्के के दो रूप हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।भाषा बहता नीर 

    भाग-एक

         भाषा हमारी अस्मिता का आधार है। कोई भी समाज तभी तब जीवन्त बना रहता है, जब तक उसकी भाषा अपनी समग्र, भास्वरता में अभिव्यक्त हुई होती है। दूसरे देश पर स्थायी कब्जा करने वाले लोग, उस देश के साहित्य और उसकी भाषा पर अधिपत्य जमाते हैं। किसी भी समाज को यदि पंगु बनान हो तो उसे उसकी भाषा से विलग कर दीजिए। उसके समक्ष अस्मिता का आधार समाप्त होने होने का संकट खड़ा हो जायेगा।

                                                                                डा. महेन्द्र नाथ पाण्डेय

                                                                          बरहज

                        सरयू की क्षीण, धीर और गम्भरी प्रवाह, अपनी नियत गति से, आनी यात्रा पर, बढ़ा चला जा रहा है। रेतिले कगारों में सिमटी हुई जल-धारा ऐसे ही लग रही है, जैसे दुर्दिन की रेत में सिमट कर सकुचाई हुई कोई प्रतिभा हो। मैं इस धारा का द्रष्टा हूॅ, भोक्ता हूॅ। बहुत दिनों बाद आज फिर नहीं के कछार में हॅॅू। इस निचाट, ठहरी हुई, कुहराच्छन्न रात में कोई व्यक्ति गुनगुनाता हुआ गुजर गया। वह कबीर को गा रहा था। कबीर का कहना था-संस्किरित है कूप-जल, भाषा बहता नीर....मैं कबीर की इस उक्ति को गहराई में पकड़ने की कोशिश करता हूॅ।

  मेरी दिक्कत यह है कि मैं कबीर को उस प्रकार का विद्रोहह हीरो नहीं मानता हूॅ जिस प्रकार से वे विगतकुछ दशक से पेश किये जा रहे हैं। मैं मानता हूॅ कि कबीर और तुलसी एक ही सिक्के के दो रूप हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। इनमें से एक को पहली परम्परा और दूसरे को दूसरी परम्परा का प्रतिनिधि मानना, ध्वजवाहक मानना मुझे पसन्द नहीं। हमारे आलोचक जिसे दूसरी परम्परा कह रहे हैं, वह भी उसी प्रकार से पहली परम्परा है,जिस प्रकार से पहली परम्परा है। परम्परा मात्र परम्परा होती है। वह प्रवहमान सरिता है। वह पहली, दूसरी या तीसरी नहीं होती है। शास्त्र में, यदि एक स्थान पर विधवा को नान्दी श्राद्ध करने का अनधिकारी घोषित किया गया है और अन्यत्र (उन्ही शास्त्र में) उसे अधिकारी घोषित किया गया है, तो इससे यह निष्कर्य नहीं निकाला जा सकता है कि एक परम्परा के लोगों ने उसे अनधिकारी घोषित किया गया है और दूसरी परम्परा के लोगों ने अधिकारी घोषित किया है। इसे भिन्न परम्परा नहीं माना जा सकता। भिन्नता तो तब होती है जब एक व्यक्ति नान्दी श्राद्ध मानता ही नहीं और दूसरा मानता। यहाॅ तो दोनों मानते हैं। अन्तर केवल विधवा के अधिकार को लेकर है। यह एक ही विषय पर दो लोगों की भिन्न राय है। इसमें परम्परा की भिन्नता नहीं व्यक्त होती है। नामवर सिंह ने शांति निकेतन की इस घटना से ऐसा ही निष्कर्य निकाला हैं। वे पूर्व पक्ष एवं उत्तर पक्ष को पहली परम्परा और दूसरी परम्परा मानते हैं।

     परम्परा एक समग्रतावाचक शब्द है। वह बहता नीर है, वह निरन्तर विकासमान प्रवहमान भाषा है। कबीर एक परम्परा के हैं और तुलसी दूसरे परम्परा के, यह बात कहते समय  आलोचक भूल जाते हैं कि दोनों का प्राण आध्यात्मिकता है, दोनों का आग्रह आडम्बरहीन, निष्काम भहिक् के प्रति है। शक्ति केन्द्रों (चाहे मठ हों, चाहें पूॅजीपति हों, चाहे राजसत्ता) के प्रति दोनों का उपेक्षात्मक रूख है। कबीर बहाम्डबर का विरोध केवल विरोध नहीं करते हैं। वे विरोध इसलिए करते हैं कि लोग (मौलवी,पण्डित) धर्म केे मूल से विलग होकर मात्र ब्रम्हाचरण पर मुग्ध हैं। इसलिए वे उनके आकर्षण के मूल-बिन्दु पर ही ठोकर मारते हैं। वे यह विरोध शोषित, पीड़ित, सर्वहारा, पूॅजीपतंत्र में पिसती हुई जनता के लिए नहीं करते हैं। उनकी वेदना मूल को भूलकर शाखा पर भटकने वाली शाखामृग की वृत्ति के कारण है। उनका एक छन्द देखिए-

     उनई बदरिया परिगौ संझा। अगुआ भूले वनखंड मंझा।

     पिय अनते धनि अनते रहई। चोपारि कामरि माथे गहई।

     फुलवा भार न लै सके कहे सखिन सो रोय।

     ज्यों ज्यों भीजौ कामरी त्यों त्यों भारी होय

कबीर की मूल वेदना

   ‘‘पिय अनते धनि अनते रहई’’-के कारण है। उसे घर तक पहुॅचाने का मार्ग बताने वाला जो अगुआ हैं (पंडित हैं, पीर हैं, मौलवी हैं) वे स्वयं जंगल के बीच में भटक रहे हैं। कबीर इसी भटके हुए अगुवा पर तीक्ष्ण आघात करते हंै। ऐसे लोगों पर तुलसी ने भी आघात किया है। कबीर जब वर्णाश्रम का विरोध करते हैं तो इसका अर्थ होता है, वर्णाश्रम का यह विकृत रूप, जो उनके समय में व्याप्त था। तुलसी जब वर्णाश्रम का समर्थन करते हैं तो इसका अर्थ है, वर्णाश्रम का अदर्श उज्जवल रूप जो अपने आदर्श रूप में उनके मानस में विद्यमान था। अपने युग के पंडितों से वे कबीर से जरा भी कम पीड़ित नहीं थे। मैं दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मानता हूॅ। दोनों को भिन्न परम्परा का मानने का मेरे समक्ष कोई सवाल ही नहीं हैं। मेरी इस बात का समर्थन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी करते हैं। कबीर की समीक्षा के माध्यम से, जिनके समीक्षक स्वरूप् का वर्चस्व हिन्दी जगत पर छा गया था, वे द्विवेदी जी अपने अन्तिम दिनों में तुलसीदास की जीवनी लिखना चाहते थे। क्यों लिखना चाहते थे। इसका अत्यन्त मार्मिक कारण नामवर सिंह न अपनी पुस्तक ‘‘दूसरी परम्परा के खोज में ही दिया है। आखिर द्विवेदी जी क्यों तुलसी की जीवनी लिखना चाहते थे? क्यों इतनी ललक भरी नजर से वे तुलसी को देख रहे थे? क्या वे अपनी परम्परा को छोड़ रहे थे? क्या वे दूसरी परम्परा को त्यागकर पहली परम्परा का आश्रय ग्रहण कर रहे थे? कबीर को दूसरी परम्परा और तुलसी को पहली परम्परा का घोषित करने के पूर्व विद्वानों को इस पर गहराई से विचार करना चाहिए।

   ‘संसकिरित है कृप जल’ से कबीर का अभिश्राप क्या है? क्या वे सस्कृत का अपमान करने के लिए ऐसा व्यतव्य दे रहे हैं? कृप- जल क्या निरन्तर उपेक्षणीय ही होता है? क्या वे त्याज्य है? हेय है?

   आप बीमार हैं, आपको भोजन बनाना है। आप किसी जल का उपयोग करेंगे? क्या कूप जल के अलावा आप सरिता के जल से रोगी के पथ्य एवं भोजन की व्यवस्था करते हैं? कर सकते है?

   प्रवहमान चंचल नदी की लहरें, वेगवान हिरनी की भाॅति कुलाचें मारता हैं। वे किसी प्रतिबन्ध को नहीं मानती हैं, लेकिन यदि नदी के पानी से खेत सींचना हो, पानी को यदि पेय बनाना हो, उससे बिजली का उत्पादन करना हो तो उसे एक निश्चित, बॅधे-बॅधाये मागर्् से जाना होगा। उसे उन संस्कारों को स्वीकार करना होगा, जो उसे उपयोग और जीवन के अनुकूल बनाने के लिए उपेक्षित हैं। जीवनोपयोगी होने के लिए उसे अपनी उच्छुंखलता, चंचलता और अपनी यायावरी का परित्याग करना होगा। उसे संस्कृत होना होगा।

    कूप-जल से कबीर का आश्य स्त्रोत जल से है। वे कूप-जल की उपादेयता, पवित्रता और परिश्रम से उपलब्ध होने की बात को स्वीकार करते हैं, लेकिन जनता तक अपनी बात पहुॅचाने के लिए वे भाषा का आश्रय ग्रहण करते हैं। कूप-जल में मतलब स्त्रोत-जल से है, मैं यह अर्थ जबरदस्ती ठेल-ठालकर नहीं लगा रहा हूॅ। मेरी इस बात का समर्थन इन पंक्तियों से भी होता है। रज्जब कबीर की उक् िकी व्याख्या करते हुए कहते है।-

       बेद सु वाणी कूप जल, दुख सु प्रापति होई। 

       सबद सखि सरवर सललि, सुख पावै सब कोई।

       पराकिंरित मधि ऊपजे, संसकिंरित सब बेद।

       अब समझावैको करि, पाया भाषा भेद।

    भाषा हमारी अस्मिता का आधार है। कोई भी समाज तभी तब जीवन्त बना रहता है, जब तक उसकी भाषा अपनी समग्र, भास्वरता में अभिव्यक्त हुई होती है। दूसरे देश पर स्थायी कब्जा करने वाले लोग, उस देश के साहित्य और उसकी भाषा पर अधिपत्य जमाते हैं। किसी भी समाज को यदि पंगु बनान हो तो उसे उसकी भाषा से विलग कर दीजिए। उसके समक्ष अस्मिता का आधार समाप्त होने होने का संकट खड़ा हो जायेगा।

    भाषा अपने समाज की, अपनी संस्कृति की, सर्वांग उपस्थिति प्रस्तुत करती है। व्यक्ति के जीवन में जो स्थान अज्ञैर महत्व आत्मा का है, समाज के जीवन में वही स्थान संस्कृति का है। समाज को संस्कृति से विलग करके देखना असम्भव ह। किसी एक युग में, उसे संस्कृति में जितने संस्थान हंै, उसकी जो व्यव्स्थाएॅ हैं, उसका जो मूल्यबोध हैं, उसे हम उस समय का समाज कहते हैं। समाज बिना हम नहीं है और समाज संस्कृति के बिना नहीं है। जो लोग यह घोषणा कहते हैं कि राष्ट्र की आत्मा संस्कृति नहीं है और किसी एक राष्ट्र की एक ही संस्कृति नहीं होती है, वे अपनी ही दृष्टि में जरुरत से ज्यादा दूरदर्शी हैं। उनकी नजर में बड़ी चीज है। व्यक्ति की आत्मा और राष्ट्र की आत्मा दोनों सचेतन सत्ताएॅ हैं। संस्कृति राष्ट्र की चिति है भाषा का सम्बन्ध इसी चिति से है। भाषा हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की की सबसे बड़ी संवाहिका है। सब कुछ होते हुए भी इस संसार में अंधकार होता है, यदि भाषा नहीं होती। मनुष्य ने जीवन को सुखी संपन्न करने के लिए जितनी भी अनुसंधान किये हैं, उन समस्त अनुसंधानोें में अत्यन्त सूक्ष्म और अनोखा अनुसंधान भाषा है। सृष्टि में व्याप्त सत्य का अन्वेषण किया जा सकता है। अन्वेषण उद्भवक नहीं होता है। सत्य संसार में व्याप्त है, मनुष्य अपनी शक्ति और अपने श्रम का संयोजन करके उसका साक्षात्कार करता है। भाषा इसी प्रकार का अनुसंधान है। 




वसूनां संगमनी वाक् के विभिन्न सार्थक एवं गंभीर रूपों (परा-पश्यन्ती-माध्यमा) का अनुसंधान भाषा के माध्यम से ही साक्षात्कार बना होगा। आगामों के अनुसार समूची सृष्टि वाक् का विस्तार है। यह सृष्टि परा वाक् में सिमटी हुई है। अवश्यकता पड़ने पर यह वाक् अपना विस्तार पश्यन्ती, माध्यमा और बौखरी के माध्यम से करती है। जगत का दैनिक व्यवहार तो बौखरी से चलता है। ‘अ’ से ‘ह’ तक के वर्णें में ही सृष्टि के समूचे विस्तार की कहानी छिपी है। ‘अ कार को परम प्रकाशक परमेश्वर ाना गया है। ह उस प्रकाश की विमर्श-शक्ति है। इसलिए अहं को यत्र-तत्र महत्वपूर्ण रूप से याद किया गया है। भागवत में सृष्टि के विस्तार के क्रम में अहंकार का विश्लेषण सर्वप्रथम किया गया है। अहंकार से आकाश की उतपत्ति मानी गयी है।

व्यक्ति की गरिमा उसके व्यक्तित्व में है। व्यक्तित्व की गरिमा का प्रकाश भाषा के द्वारा ही होता है। एक व्यक्ति, जो कुछ भी लिखता है, बोलता है और पढ़ता है, उससे उसके समस्त संस्कार का पता लग जाता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण सहजात गुणों, प्राप्त संस्कारों एवं परम्परा-प्राप्त अनुभवों में शरीक होने से होता है। जाहिर है कि ये सारी चीजें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त होती हैं।

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