Ricksaw

 मनुष्य द्वारा रिक्शा या ठेले पर बोझ खींचना क्या मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं ?

सम्पदा टीम की पहल


- इनका पसीना पेट्रोल से सस्ता क्यों ?

-महानगरों में पेट्रोल वाहन से प्रति कि0 मी0 70 रू तक खर्च लिए जाते हैं लेकिन अपने पसीने को बहाकर वाहन खीचते हुए इन मजदूरों की कीमत पेट्रोल से कम है। क्यों ? 

-शासन पेट्रोलियम, कुकिंग गैस रेलगाड़ी, सम्पति का मूल्यांकन कर सकती है पर इनकी मजदूरी  का सही मूल्यांकन क्यों नहीं करती ? 

-''कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक लाख से अधिक तनख्वाह पाने वाले एक प्रोफेसर अपने परिवार के साथ एक ऐसे रिक्शे पर बैठ गए जिसे उनके विद्यालय का एक छात्र चला रहा था। यात्रा पूरी कर लेने के बाद शिक्षक को उस छात्र ने जब परिचय दिया तो शिक्षक ने उसे धन देने के बजाय उपदेश और आशीर्वाद दे डाला। यदि मानवाधिकार ने अतिशीघ्र इनके मानवीय चित्कार पर ध्यान दे दिया तो सैकड़ो गरीबों के परिवारोें की रक्षा हो जायेगी और शासन जैसे पढ़े बेटियाँ कह कर धन बांटता है, अल्प संख्यक वर्ग के क्षेत्रों को धन आवंटित करता है वैसे ही यदि इन निरीह गरीबों को धन आवंटित कर दे तो शायद मजदूरों के कंकाल में एक नयी स्फूर्ति आ जाएगी और मानवता की यह दुआ शासन को दीप्तिमान बनाएगी।''       

              भारत एक विकासशील देश है। आज यह शिक्षा, व्यापार , विज्ञान और  कला के क्षेत्र के साथ-साथ हर क्षेत्र में आगे बढ़ता जा रहा है परन्तु इसी दशा में आज मानव समाज का वह वर्ग जो गरीबी के कारण जीवन यापन करने के लिए एक ऐसी मजदूरी कर रहा है जो मानवता के दृष्टिकोण से शर्मनाक दिखाई देता है। यह देखा जा सकता है यदि आप भारत के कुछ महानगरों की ओर दृष्टि डाले तो एक 65 वर्षीय वृद्व व्यक्ति रिक्शे पर दो भारी मरकम शरीर वाले व्यक्तियों सहित उनके सामानों की लाद कर अपनी ताकत से खीचं रहा है। ठेले पर बोझ लादे हुए मजदुर द्वारा माल की ढुलाई हो रहा है या  हाथ से घोडे़ गाड़ी को खीचकर ले जाना इत्यादि दृश्य देखने के बाद किसी भी व्यक्ति की आत्मा कराह उठती है और यह प्रश्न अपने आप मस्तिष्क में गूंजते लगता है कि क्या शाम को अपने परिवार को दो रोटी की जुगाड़ के लिए यह व्यक्ति कहाँ तक मजबूर है और इनसे अमानवीय तरीके से सेवा और मजदूरी कराने वाले क्या इनके पसीनें और मेहनत का अचित पारिश्रमिक देते है अथवा नही? जहाँ तक मजदूरी का प्रश्न है तो इनके इस पसीने की कीमत नहीं लगाई जा सकती है और शायद ही इनके मन को मिले पारिश्रमिक से आत्म शान्ति मिलती होगी। यह घटनाएं हमारे देश के कर्णधारों, भाग्यविधाताओं और गरीब तथा गरीबी की व्यथा को पटल पर लाने वाले व्यक्तियों को रोज देखने को मिल जाती है लेकिन किसी ने इनकी समस्या के समाधान का कोई विकल्प नहीं निकाला। मानवधिकार की हम हमेशा बात करते हैं।

 क्या यहाँ मानवाधिकार का उल्लंघन शासन को दिखाई नहीं दे रहा है आज जब कि भोजन की सामग्रियां मँहगाई में आसमान छू रही है, इनकी मजदूरी इनके परिवार का भरण पोषण के लिए पर्याप्त है? ये मजदूर तो  होते हैं रोग के शिकार और अन्त में होती है दुखदायी मौत। इनके साथ कुछ मजबूरिया है लगभग 90 प्रतिशत मजदूर किराये पर रिक्शा  लेकर चलाते हैं। यह रिक्शा इन्हंे 50 रूपये से 100 रूपये प्रति शिफ्ट के अनुसार मिलता है। यह दिनभर एक निश्चित अवधि में मजदूरी कर 100 या 50 रूपये रिक्शा कम्पनी मालिक को दे देते हैं। इस प्रकार एक माह में औसतन लगभग 1500 से 3000 रूपये या सलाना 18000 से 36000 हजार रूपये  दे देते हंै
रिक्शा चलाने वाले ये मजदूर एक अच्छी  रकम देते जाते हैं तथा स्वंय किसी भी प्रकार जीते हैं ना तो ये सुन्दर वस्त्र खरीद सकते है, ना ही कोई घर खरीद सकते हैं, ना ही अपने बच्चों और परिवार को उचित चिकित्सा मुहैया करा सकते हैं। सिर्फ परिवार की सांस चला सकते है दो वक्त की रोटी के साथ, और यह करते करते शारीरिक रूप से  हो जाते हैं अक्षम और फिर होती है इनकी दुखदायी बीमारी और अंत होता है इनकी मृत्यु से। परिवार हमेशा रहता है त्रस्त। कहाँ चला जाता है कर्णघारों की आवाज।  इसके अतिरिक्त मजदूरी के एवज में कभी कभी मिलती है इन्हे डाँट या झिड़क, कभी-कभी दंबग तो इन्हे  पैसे भी देने में आना  कानी करने लगते हैं। कई स्थानों पर तो यहाँ तक पाया गया कि उच्च शिक्षा के अध्ययन के लिए गरीब परिवार के बच्चें रिक्शा चला कर अध्ययन कर रहें थे।इन पर ध्यान सरकार का कब जाएगा ? इन पर मानवाधिकार आयोग कब देखेगा? तमाम् विकसित देशों में रिक्शा चलाना शासन ने बंद कर इन्हें बैट्री चालित वाहन या टैम्पू आसान किश्तों पर दे दिया है। हमारे इस देश में यह कब होगा? कब इनको कोई फरिश्ता आयेगा  जो शासन से लेकर मानवाधिकार आयोग के कार्यालय तक जज्बात को जगाएगा और इनकी रक्षा करेगा। क्या यह अन्ना हजारे, केजरीवाल, जैसे लोकप्रिय नेताओं को भी इनका शोषण दिखाई नहीं देता ?
 यदि किसी को दिखाई देता है तो आवाज उठाने में क्या कोेई मजबूरी आड़े आती है या कोई लाभ नहीं दिखता? शायद इन गरीब मजदूरों के मष्तिष्क में महात्मा गाँधी की ही छवि है कि शायद फिर कभी कोई गाँधी आए और हमारी मजबूरियों को दिखाते हुए हमें जीने का एक मार्ग दिखाए।
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