Sarayupaar ki etihasik Pristh Bhumi

सरयूपार स्थल की आदिकालीन पृष्टभूमि 

                    बरहज स्थल तब कैसा होगा

                    प्रस्तुति-अंजनी कुमार उपाध्याय    

           

             इस क्षेत्र की प्राचीन जानकारी उत्तरवैदिक ग्रंथों से प्राप्त होने लगती है। यद्यपि अयोध्या सरयू के दक्षिणी तीर पर बसा है, इसे सरयूपार के इतिहास का उद्गमस्थल कहा जा सकता है। 


                सरयू नदी के उत्तरी तीर को परम्परागत रूप में सरयूपार अथवा उसके तद्भव रूप सरुवार की संज्ञा से जाना जाता है। गोविद्धचन्द्र गाहड़बाल शासक का 1146 ई. का एक अन्य अभिलेख देवरिया जिले के लार नामक कस्बे से प्राप्त हुआ है जिसमें सरवरिया या सरयूपारीण ब्राह्मणों को उसके द्वारा भूमिदान किये जाने का उल्लेख है। इस प्रकार यह निश्चित है कि 12 वीं शताब्दी तक सरयूपार का एक भौगोलिक इकाई के रूप में सरवार नाम पूरी तरह प्रतिष्ठापित हो चुका था। आधुनिक उत्तर प्रदेश के बहराइच, गोण्डा, बस्ती, सिद्धार्थनगर, महराजगंज, गोरखपुर, देवरिया तथा पड़रौना जिले एवं बिहार के गोपालगंज, चम्पारन, सीवान और छपरा जिलों के पश्चिमी भाग समाहित किये जा सकते है। इस क्षेत्र की प्राचीन जानकारी उत्तरवैदिक ग्रंथों से प्राप्त होने लगती है। यद्यपि अयोध्या सरयू के दक्षिणी तीर पर बसा है, इसे सरयूपार के इतिहास का उद्गमस्थल कहा जा सकता है। अयोध्या शासक मनु और उसके पुत्र इक्ष्वांकु की राजधानी थी। मनु के ही नौ पुत्रों और एक पुत्री इला के वंशजों ने उत्तरभारत में विभिन्न सूर्यवंशों और चंन्द्रवंशों की स्थापना की और धीरे-धीरे वे सारे मध्यप्रदेश पर छा गये।

 सरयू नदी का उत्तरी तीर कोमल राज्य की ही सीमा में पड़ता था। किन्तु इस क्षेत्र की अधिक प्रसिद्ध राजा राम के बाद के इतिहास के समय ही हुई। राम के शासन के अन्तिम दिनों में उनके और उनके भाइयों के पुत्रों के बीच कोसल साम्राज्य के विभिन्न भाग बांट दिये गये राम के लव और कुश नामक दो पुत्रों के बारे में कथित है कि उन्होंने शरावती और कुशावती नामक दो नये नगरों को आबाद कर वंहा से अपना-अपना शासन किया था। इन दोनों नगरों की पहचान क्रमशः प्रायःश्रावस्ती और कुशीनगर से की जाती है इसके अतिरिक्त लक्ष्मण के अंगद और चन्द्रकेतु नामक दो पुत्रों ने अंगदिया और चन्द्रकान्ता नामक दो अन्य नगरों को बसाया और वंहा से उन्होने शासन किया। चन्द्रकेतु की एक उपाधि थी मल्ल और ऐसी मान्यता है कि कुसिनारा और पावा के मल्लों का  पूर्वपुरुष यह मल्ल उपाधिधारी चन्द्रकेतु ही था। कपिलवस्तु के शाक्य अपने को इक्ष्वांकु (ओकांक) का वंशज मानते थे, इस प्रकार वे भी अयोध्या के मूल कोसल राजवंश से ही सम्बन्धित ठहरतें हैं।राम के उत्तरवत्र्ती युग में कोसल राज्य दो भागों में बट गया था, जिनकी राजधानियां क्रमशः अयोध्या और श्रावस्ती थी। किन्तु धीरे-धीरे अयोध्या का राज्य और राजवंश दोनो ही श्रावस्ती के राजवंश में समाहित हो गये। राम के उत्तरवर्ती कोसल के शासकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक हुआ प्रसेनाजित। वह गौतम बुद्ध का समकालीन था। बौद्धों के पालिग्रथों के एक विवरण से ज्ञात होता है कि बुद्ध से अपनी बराबरी करते हुए वह अपने को गौरवान्वित समझता था। वह कहता है- ‘‘भगवापि कोसलको, अहम्पि कोसलकोः भगवापि खत्तियो अहम्पि खत्तियोंः भगवापि आसीतिके अहम्पि आसीतिके ‘‘-अर्थात भगवान् भी कोसल के है। मैं भी कोसल का हूॅ, भगवान भी क्षत्रिय हैं,  मै भी क्षत्रिय हैं भगवान भी अस्सी वर्षों के हैं, हम भी अस्सी वर्षों के हैं, मैं भी अस्सी वर्षोंं का हूॅ। श्रावस्ती के शासक प्रसेनजित की बुद्ध से यह वार्ता उसके जीवन के अंतिम वर्ष में हुई थीं। चूंकि भगवान बुद्ध 483 ई0 पू. में अस्सी वर्ष की आयु में अपने महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुये थे, यह निष्कर्ष निकलता हैं कि वही वर्ष 483 ई0 पू. प्रसेनजित के जीवन का भी अन्तिम वर्ष था। प्रसेनजित कोसल राज्य का अन्तिम प्रसिद्ध शासक था। जिसे उसी के पुत्र विडूडभ ने राज्य से अपदरथकर श्रावास्ती की राजगद्दी हथिया ली। इस पितृहन्ता का केवल एक ही कृत्य (अथवा कुकृत्य) ज्ञात होता हैं और वह यह था कि उसने एक प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर कपिलवस्तु के शाक्य वंश का समूल नाश कर डाला और उसने उनके खुन से होली खेली। एक ओर कोसल राज्य के महाकोसल और प्रसेनजित तो दूसरी ओर मगध साम्राज्य के बिम्बिसार और अजातशत्रु। कोसलराज प्रसेनजित के समय बड़ी गण्डक नदी के दक्षिण और पश्चिम में बसने वाले शाक्य, कोलिय मोरिय, कालाम तथा मल्ल जैसे गणतन्त्र उसकी राजनीतिक अधिसत्ता स्वीकार करते थे। इस युग ने सरयू नदी के उत्तर में कुछ ऐसे महापुरूषों को जन्म दिया, जिन्होंने अपने क्षेत्र की तो बात ही क्या, सारे भारत को विश्व के इतिहास में गौरावान्वित किया। अपने विचारों और जीवन से उन्होंने अनेकानेक देशों को प्रभावित करते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ी। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध जैसे नवचिन्तकों ने सुधारवाद की एक जबरदस्त आवाज उठायी। वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञवाद , धार्मिक हिंसा कर्म के विपरीत जन्म की प्रधानता, समाज में ऊंच-नीच का भाव तथा इन्हीं प्रकारों की अन्यान्य रुढ़ियों के विरूद्ध गौतम बुद्ध खुलकर सामने आये। पालि त्रिपटक हमें यह बताता हैं कि कोसल राज्य में राजा प्रसेनजित द्वारा दिये हुए भूमिदान से पहले वाले अनेक ब्राम्हण विद्वानों ने अपने पठन-पाठन अध्ययन-अध्यापन औश्र यज्ञग्रिप्रज्वलन के कारण बहुत प्रसिद्ध पायी। उन्हें मिलने वाले भूमिदान प्रायः पूरे के पूरे गांवो वाले होते थे। जहाॅ से राजा किसी प्रकार का कर नहीं वसुलता था और दान प्राप्तकर्ता ब्राम्हण सभी प्रकार के राजदेयों से मुक्त हुआ करते थे। फलतः ये ब्राम्हण बहुत ही संपन्न हुआ करते थे। कसिभारद्वाज नामक एक ऐसे ही ब्राम्हण की चर्चा कई स्थानों पर मिलती हैं। जिससे यह ज्ञात होता हैं कि उसके पास पाॅच सौ बैल थे, सैकड़ो नौकर थे और उनके द्वारा करायी जाने वाली एक बहुत बड़ी खेती थी। आजकल यह बता सकना प्रायः असम्भव सा हैं कि विभिन्नतः वर्णित इन ब्राम्हणों के तत्कालीन गांवों के आधुनिक प्रतिनिधि कौन हैं और कहां हैं। इन ब्राम्हणों के जो अलग-अलग उल्लेख हुए हैं, उनमें प्रायः उनके गोत्रनाम ही प्राप्त होते हैं औश्र व्यक्तिगत नाम अपवादस्वरूप ही प्राप्त होते हैं। बस्ती, गोण्डा और सिद्र्धाथनगर जिलों में आज भी अनेकानेक पुरानी बस्तियों, टीलों, खण्डहरों और अन्यान्य अवशेषों का जमीन के ऊपर दर्शन होता हैं जिनके सम्बन्ध इन पुरानी ब्राम्हण बस्तियों से हो सकते हैं। जातकग्रन्थों में बुद्धाकालीन ग्रामों के उल्लेख हुए है। यथा-ब्राम्हणग्राम, क्षत्रियग्राम, बढ़ईग्राम, केवटग्राम, निषादग्राम, वधिकग्राम, राजग्राम आदि। धान दो प्रकार के होते थे एक तो रक्तशील (लालधान) और दूसरा कृष्णशक्ति (काला धान)। रक्तशील भोजन को बहुत ही अच्छा समझा जाता था और बड़े आदमियों का भोज्य भी माना जाता था। सम्भवतः यह साठी नामक बोया हुआ या रोपा हुआ धान था, जिसे बौद्ध साहित्य और उततर वैदिक साहित्य (अर्थवेद) दोनों ही जगह केवल साठ दिनों में पककर तैयार हो जाने वाला (षष्टिदेव दिवसैःपच्यते) कहा गया है। अभी भी वृद्ध गृहस्थ इन प्रदेशों में उस प्रचलित कहावत का स्मरण करते हैं जहां कथित है ‘‘सांवां साठी साठ दिन, जो दऊ बरीसें रात दिन।’’ कुणालजातक से ज्ञात होता हैं कि रोहिणी (गोरखपुर बस्ती की सीमा पर भी रोहिन) नदी शाक्यों और कोलियों की राजसीमाओं का विभाजन करती थीं। और उस पर एक बांध बनाकर दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी खेती को सींचते थे। एक वर्ष बैशाख-ज्येष्ठ के महीनों में नदी के बांध के भीतर पानी कम हो जाने पर उसके लिए दोनों पक्षों में पानी के उपयोग के प्रश्न पर विवाद इतना बढ़ गया कि अन्ततः स्वयं बुद्ध को उपस्थित होकर उसे शान्त करना पड़ा। आजमगढ़ जिले का मलान (मल्ल) नामक आधुनिक क्षेत्र तथा वहां की एवं गोरखपुर और देवरिया जिले की सैंथावर नामक क्षत्रिय जाति आज भी अपनी उन्नित कृषि कर्माें के लिए प्रसिद्ध हैं। सैंथावर शब्द संस्थागार (गणतंत्रो की केन्द्रीय सभाओं का भवन या स्थल) से निकला हुआ है जो गणतंत्रीय क्षेत्रों की कृषिपरक पृष्ठभूमि की निरन्तरता का प्रतीक है। अंग की राजधानी चम्पा में चम्पा और गंगा नदियों के मुहाने पर सुवर्णभूमि नामक एक बन्दरगाह के स्थित होने की साहित्यिक चर्चाएं मिलती है, जिसकी सम्पन्नता से आकृष्ट होकर मगधराज बिम्बिसार भी उसे अपने अधिकार क्षेत्र में लेना चाहता था। कदाचित् सहां से गंगा नदी के माध्यम से गंगासागर तक और वहां से भी आगे समुद्री मार्ग द्वारा उस द्वीप को जहाज जाते थे जिसे बाद में सुवर्णभूमि अथवा सुमात्रा नाम दिया गया। सरयूपार कहलाने वाला सरयू नदी के उत्तर का समस्त क्षेत्र इन व्यापारिक क्रिया कलापों में पूरी तरह सन्नद्ध था। इस क्षेत्र के छोरों और मध्य में सरयू, राप्ती, हिरण्यवती (छोटी गण्डक) तथा सदानीरा (नारायणी अथवा बड़ी गण्डक) जैसी तीन-चार ऐसी नदियां थी, जिनसे छोटी अथवा बड़ी नावों द्वारा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक बड़ी आसानी से पहुचायां जा सकता था। राप्ती के तीर पर श्रावस्ती छोटी गण्डक के तीर पर कसिनारा और सरयू के तीर पर अयोध्या के अतिरिक्त आधुनिक बरहज बाजार का कोई पूर्ववत्र्ती नगर तथा छपरा (बिहार का) जैसे स्थान निश्चित ही इन क्ष्यापारिक क्रियाकलापों से प्रभावित रहे होंगे। यद्यपि आजकल राप्ती (अचिरावती) नदी श्रावस्ती के खण्डहरों (सहेत-महेत) से लगभग 15-20 किलोमीटर दूर से होकर बहती है, बुद्ध युग में वह उससे सटकर बहती थी। पालि साहित्य में कतिथ है कि राजा प्रसेनजित अपने महल की छत से उसके बहाव को देखा करता था। सरयू नदी के किनारे आज भी ऐसे अनेक स्थान हैं, जो अपनी जमीन के नीचे पाये जाने वाले कंकणों के कारण सुरक्षित होकर के नदी के कटान से बचते हुए सैकड़ो वर्षों से वही के वही बने हुए हैं। अपने छोरों को काटती हुई अगल-बगल की बहुत सी भूमि को अपनी धारा में विलीन कर लेने के लिये कुप्रसिद्ध सरयू नदी इन स्थानों के कंकणों की परतों से टकराकर तथा मुड़कर इनसे हटकर ही बहती हैं। इस प्रकार के स्थानों में बड़हलगंज, नरहन (नरहर), दोहरीघाट, बरहज बाजार, खैराडीह, भागलपुर, पुरानी बेल्थरा बाजार और दरौली (बिहार में) जैसे स्थान प्रमुख प्रतीक होते हैं। इसके अतिरिक्त बरहज और उसके आस-पास नदी के किनारों पर सैकड़ों नावें हमेशा लंगर डाले रहती थी, जिनमें दो हजार से पांच हजार तक भरे हुए टिन लादे जा सकते थे। इन नावों द्वारा बरहज बाजार से माल (अनाज) और छोवे से भरे हुए हजारोंझार टिन पूर्व में कलकत्ता तक के सरयू और गंगा के किनारे बसे हुए सभी छोटे-बड़े नगरों और बाजारों तक ले जाये जाते थे। अंगे्रजी शासन काल में जब रेल पथों के निर्माण हुए तो बरहज के शीरे से व्यापार हेतु विशेष रूप से बरहज सलेमपुर लूप लाइन का निर्माण हुआ। इस रेल पथ पर सवारियों के डिब्बे तो सीमित ही हुआ करते थे, बहुतायत में शीरा ढोने वाली मालगाड़ियां ही चलती थीं। इसी प्रकार कुछ दिनों तक तुर्तीपार स्टेशन से भागलपुर नगर के सरयू तीर तक एक पतली रेल लाइन थी जो बरहज से अपने वाले माल को रेल द्वारा अग्रसारित करती थी। बरहज से नदी द्वारा नजदीकी सम्बन्ध होने के कारण भागलपुर को भी एक बाजार का रूप प्राप्त था। किन्तु इसकी अपनी ऐतिहासिक प्राचीनता भी थी। वहां चुनार में पाये जाने वाले उन बलुआ पत्थरों से बनी हुई एक छोटी सी लाट (स्तम्भ) बनवायी थीं। स्पष्ट हैं, भागलपुर नगर (खैराडीड के ठीक सामने सरयू के उत्तरी तीर पर) भी एक प्राचीन (संभवतः मोर्यकालीन) स्थान है। 

                                   गोरखपुर जिले में स्थित सोहगौरा नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण गावं के लगभग दूसरी-पहली शताब्दियों ई.पू. का प्राकृत में लिखा हुआ एक (अतैथिक) कास्य लेख बहुत पहले ही प्राप्त हो चुका था। इस क्षेत्र को ही नहीं, अपितु सारे भारतवर्ष को बौद्धधर्म और सरयूपार की सबसे बड़ी देन थी पालि भाषा। इसी पालि भाषा में बुद्ध के सभी प्रारम्भिक उपदेश संग्रहीत किये गये हैं। तेरहवीं-चैदहवीं शताब्दियों के पूर्व कहीं भी पालि शब्द का भाषा के अर्थ में प्रयोग प्राप्त नहीं होता। बुद्ध ने अपने उपदेशों को कोसल और मगध में साधारण लोगों द्वारा प्रयुक्त जिस बोलचाल  की भाषा में दिया उसे उस समय सुत्त (सुत्र) मात्र कहा जाता था। यही कोसलीय अथवा इन नामों से प्रसिद्ध होने वालें प्राकृत आगे चलकर पालि कहलायी। चूंकि बुद्ध ने अपने उपदेशक जीवन का अधिकांश भाग कोसल (सरयूपार) में ही बिताया था। इसे (पालि भाषा को) इस क्षेत्र की देन कहने में काई अत्युक्ति नहीं होगी। सुमित्र कोसल राज्य का अन्तिम शासक साबित हुआ और इसके बाद सारा सरयूपार का क्षेत्र मगध साम्राज्य का अंग बन गया। मौर्य साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य गोरखपुर में पड़ने वाले मोरिय गणतंत्र के किसी राजा का वंशज था। इन मोरियों की राजधानी पिप्पलिवन थी जो गोरखपुर जिले की बांसगांव तहसील में गुर्रा नदी के किनारे उपधोलिया या राजधानी नामक स्थान से मिलायी गयी है। अशोक के समय सरयूपार का क्षेत्र बुद्ध की जन्मभूमि और कर्मभूमि होने के कारण मौर्य वंश के आकर्षण का केन्द्र बन गया। खुदाइयों से सरयूपार क्षेत्र के अनेक टीलों से शब्दों के शासन के प्रमाण मिलते हैं। श्रावस्ती के प्रथम कनिष्क के शासनक्षेत्र का अंग हो जाने के प्रमाण उसके लेखों से प्राप्त होते हैं। बनारस भी उसके साम्राज्य का भाग था जहां से राज्यपाल अथवा प्रान्तपति के रूप वनस्फर नामक उसका एक प्रतिनिधि शासन चलाता था। देवरिया जिले की सलेमपुर तहसील (नगर) से लगभग 3-4 किलोमीटर की दूर पर उसके दक्षिण पश्चिम में स्थित कहांव नामक गांव में स्थित एक भूरे बलुआ पत्थर से निर्मित स्तम्भ की प्राप्ति हुई है जिसे स्कन्दगुप्त नामक गुप्त सम्राट के समय (460-461 ई.) मद्र नामक एक जैनधर्मावलम्बी ने निर्मित कराया था। इस स्तम्भ पर प्रथम पांच जैन तीर्थंकरों की नग्न मूर्तियां उत्खचित है जो इसे स्पष्ट रूप से एक जैनकृति के रूप में प्रमाणित करती है। इस अभिलेख की एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी है कि मद्र (लेख के प्रकाशक और स्तम्भ निर्माणकर्ता) को उसमें ब्राह्मणों कें ऊपर स्नेह रखने वाला तथा आचार्यों और यतिमुनियों का आदर करनक वाला कहा गया है। स्पष्ट है, इस क्षेत्र में विभ्न्नि धर्मावलम्बिओं के बीच परस्पर बहुत ही साहर्द और सहनशीलता विद्यमान थी। लेख से यह भी ज्ञात होता है कि आधुनिक कहांव (ग्राम) को समय कुकभग्राम कहा जाता था। 

कुकभग्राम के पास ही स्थित सोहनाग (शोभितनाग) संभवतः इसी युग में एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ क्षेत्र के रूप में उदित हुआ जहा सूर्य और शंकर की पूजा की परम्पराएं प्रारम्भ हो गयीं अभी तक वहां वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षयतृतीया) को जो बड़ा भारी मेला लगता है रुद्रपुर मंे सहनकोट  के पास वाले मन्दिर में अभी हाल तक कुछ काले पत्थरों की बनी हुई विष्णु की मूर्तियां विराजमान थी जो सम्भवतः गुप्तकाल में बनायी गयी थी। देवरिया और गोरखपुर के क्षेत्र में जो अनेक धार्मिक स्थल हैं वे या तो शैवों के अथवा वैष्णवों के धार्मिक स्थल है। गुप्त सम्राट अधिकांशतः (कुछ अपवादों को छोड़कर) वैष्णव थे जो परमभागवत जैसी उपाधि धारण करते थे। रुद्रपुर मूलतः मोरिय गणतंत्र का एक कस्बा था जहां उनकी सहनकोट (सैन्यकोट्ट) नामक एक छावनी थी। वहां का प्रसिद्ध दुग्धेश्वर नाथ का मन्दिर मूलतः एक गुप्तकालीन पौराणिक परम्परा का क्षेत्र है जहां फाल्गुन की शिवत्रयोदशी को एक बड़ा भारी मेला इसी कड़ी की एक बिन्दु है। उसके दक्षिण में कुछ-कुछ पूर्व की ओर रुद्रपुर बरहज मार्ग पर भी दो अन्य गावं शैवधर्म की परम्परा से लगे हुये है। एक है महेन्द्रनाथ तथा दूसरा है कपरवार। महेन्द्रनाथ या महेन्द्रानाथ में भी शिवत्रयोदशी को मेला लगता है। कपरवार नामक ब्राह्मणों का प्रसिद्ध गावं भी राप्ती और सरयू के संगम पर बसा हुआ एक शैवपरम्परा का ही गावं है। जिसका प्राचीन नाम सम्भवतः कप्पालवाट था। सलेमपुर के पूरबी मझौली (मध्यावली) में स्थित दीर्घेश्वरनाथ का मंदिर भी मूलतः गुप्त कालीन है। छठीं-पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व में कोसलराज प्रसेनजित के ग्रामदानों के कारण सरयूपार क्षेत्र में अति सम्पन्न ऐसे बड़े-बड़े ब्राह्मण कुल थे जो वैदिक धर्म के स्तम्भरूप में समाज में प्रतिष्ठित थे। यज्ञाग्नि का प्रज्वालन, वैदिक यज्ञों का सम्पादन वैदिक शास्त्रों के पठन-पाठन और स्वतः भी वेदाध्ययन में निरत होकर ये गावं वैदिक समाज के बड़े-बड़े टापुओं के समान स्थित थे। 

जहां बुद्ध भगवान को अन्याय लोग भगवान (भगवा) कहकर पुकारते थे वही ये वैदिक ब्राह्मण अपनी महत्ता को जताते हुए उन्हे ‘हे गौतम’ (भोे गौतम), के सम्बोधन से सम्बोधित करते थे। सरयूनदी के उत्तरी तीर की प्राचीन संस्कृति में सरयूपरीण ब्राह्मणों का बड़ा भारी योगदान रहा। सरयूपरीण शब्द भौगोलिक है जो सरयूपार में रहने वाले ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सरयूपार में निवास करने वाले कनौजिया, जैजाकभुक्तिक (जिजहुतिया) अथवा मालवीय और शाकद्वीपी (सकलदीपी) ब्राह्मणों के लिए इस शब्द का प्रयोग नही होता। इस क्षेत्र में मालवीय ब्राह्मणों की भी है, जिनकी आबादियां बंगाल और तिरहुत प्रदेश से लेकर चतुर्दिक रूप में उत्तरी भारत में विद्यमान है और सरयूपार में भी प्रभूत संख्या में मिलती है। वास्तव में भारतवर्ष के सभी ब्राह्मणों के वर्गीकरण प्रारम्भ में भौगोलिक आधार पर ही किये गये।

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