Kavi Janardan Pandey Anuragi

 कुछ याद इन्हें भी कर लो

ना पूर्ण काम, ना पूर्ण आयु किन्तु अमर नाम 

कवि जनार्दन पाण्डेय ‘अनुरागी’

इन्हें भोजपुरी का ‘भवभूति’ और सूरदास साहित्यकारों ने माना है। 

अनुरागी जी जैसा समर्थ कवि अनदेखा इस संसार से विदा हो गया।    

सम्पदा दिसम्बर, 1989 से साभार 

Kavi Janardan Pandey Anuragi

      कवि अनुरागी का इस दुनियाॅ में पदार्पण 14 जुलाई सन् 1934 में हुआ था। ये देवरिया जिले के भागलपुर के बलियाॅ नामक ग्राम के रहने वाले थे। इनका पूरा नाम जनार्दन पाण्डेय था। इनको अनुरागी नाम श्री मोती बी.ए. ने दिया था। इन्होंनें आश्रम बरहज में हिन्दी और संस्कृत के साथ-साथ इण्टरमीडिएट स्तर तक अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की थी। गरीबी के कारण वो आगे नहीं पढ़ पाये। छात्रावस्था में जनार्दन पाण्डेय ‘अनुरागी’ खड़ी बोली हिन्दी में कविताएॅ लिखा करते थे। इस अवस्था में लिखी कविताएॅ महादेवी वर्मा की कविताओं के समान प्रतीत होती थीं। इनका स्वर बड़ा ही मधुर था। ेजब ये कविता पाठ करते थे तो लगता था कि महफिल में इत्र का छिड़काव किया गया हो। ‘सुहागिन अपना रूप सॅवार’, और ‘अरी तुम कैसी मौन मलीन’ सुनकर एक नशा सा छाने लगता था। 

       श्री मोती बी.ए. के साथ इनके अनेकों संस्मरण हैं। मोती बी.ए. के अनुसार अनुरागी जी स्वभाव से दीन और विनम्र तो थे ही, उनकी गरीबी ने और पारिवारिक बोझ ने समय से पहले ही इन्हें वृद्ध बना दिया था। ये हमेशा चिन्तित और दुःखी रहते थे। यद्यपि ये थे बहुत ही मस्त और जीवंत। महुआबारी, मृगतृष्णा, रासलीला और वाणी वन्दना इत्यादि कविताएॅ इन्हें कंठष्थ थीं। इन कविताओं को जितना अनुरागी जी ने लोकप्रिय बनाया था उतना मैनें नहीं। छठवें दशक के आस-पास बलिया टाउन हाल में कवि सम्मेलन में सुन्दर जी ने मुझे आमंत्रित किया। सम्मेलन में जाते समय अनुरागी जी दीख पड़े। मैनें अनुरागी जी से सम्मेलन में चलने का प्रस्ताव कर दिया। अनुरागी जी टाल न सके। संकोच पैसे का था किन्तु उनकी यह कठिनाई मैने दूर कर दी। हम लोग कवि सम्मेलन के मंच पर थे। अनुरागी के ‘पाॅव उपानह की नहि सामा’ की स्थिति थी। एक बेढंगा बेडौल लबादा, धोती फटी सी लटी दुपटी थी। सर के बाल उस्तरे से बने थे। शिखा मुण्ड मध्य में सिंहासनासीन थी। कुछ लम्बे डील-डौल के भुच्चड़ देहाती लग रहे थे। यह अनुरागी का पहला कवि सम्मेलन था। मंच बड़ा था मगर ये निश्चय ही अनाहूत थे। पश्चिम बिहार और पूर्वी उ0प्र0 के नामी कवियों का जमावड़ा था। पं0 श्याम नारायण पाण्डेय अध्यक्ष थे। सुन्दर जी संचालक थे। कवि सम्मेलन का आरम्भ मउ के श्री शतानन्द उपाध्याय ने किया। सस्वर कविता पाठ से। उसके बाद सुन्दर जी ने अनुरागी का नाम पुकारा। अनुरागी मंच पर उठ खड़े हुए। उनका अनगढ़ स्वरूप देखकर जनता ठहाका मारकर हॅस पड़ी। हॅसी के बीच अनुरागी जी मंच पर माईक के पास पहुॅचे और शुष्क कण्ठ से बोले- एक गीत है जिसका शीर्षक है ‘सुहागिन अपना रूप सॅवार’। जनता ने फिर ठहाका लगाया कि यह मुॅह और मसूर की दाल। चलें हैं सुहागिन का रूप सॅवारने। जनता उनको सुनने को तैयार नहीं थी। सुन्दर जी विचलित दीख पड़े। जनता को शान्त करते हुए अनुरागी जी को कविता पाठ करने का आदेश दिया। अनुरागी जी की स्वर लहरी जहाॅ तक पहुॅचती गयी जनता में शान्ति व्याप्त होती चली गयी। कुछ ही क्षणों में पाण्डाल में अनुरागी जी का स्वर छा गया। ऐसा लगता था जैसे जनता पर किसी ने जादू की छड़ी फेर दी हो। सभी अपनी सुध-बुध भूल गये। पाॅच मिनट में छोटी सी कविता पूरी हो गयी। अनूरागी जी माईक से हट गये। सभी जैसे अचेत हो गये हों। एका एक चेतना जगी। पाण्डाल जोर की तालियों से गूॅज उठा। एक और-एक और की जोरदार माॅग होने लगी। फिर गूॅज उठी अनुरागी जी की कविता- अरी तू कैसी मौन मलीन। मेरी छाती खुशी से दोगुनी हो गयी। पं0 श्याम नारायण पाण्डेय ने मुझे बड़े अनुराग से निहारा जैसे शत कोटि आशीर्वाद के फूल मुझपर बरस पड़े हों। अनुरागी की उन्होने पीठ ठोकी। सुबह का कार्यक्रम बन गया अनुरागी की सारी की सारी कविताओं के सुनने का। कई सम्मेलनों के निमंत्रण अनुरागी को मिले। मैनें कहा अनुरागी तुम्हारे दुःख के दिन बीत गये। अब तुम गुरुदेव महाकवि श्यामनारायण पाण्डेय के चरणों की पूजा करो। उन्हीं की सेवा में रहो। भोजपुरी में कविताएॅ लिखा करो। मुझसे भी यदा-कदा मिलते रहना। तभी से अनुरागी जी श्याम नारायण पाण्डेय की सेवा में तल्लीन रहने लगे और खुल कर कविताएॅ लिखने लगे। 

      सन् 1953-54 में अनुरागी जी इण्टर द्वितीय वर्ष में थे। मैं इस कक्षा में अंग्रेजी पढ़ाया करता था। एक बार अंग्रेजी की कापी चेक करते समय मुझे एक ऐसी कापी मिली जिसके पन्ने मैले, जीर्ण-शीर्ण, बीच के पन्ने फटे हुए आखिरी पन्ना तेल और धूल से सना तथा आधा कोने से फटा हुआ नाम लिखा था जनार्दन। मैंनें पूछा कौन है ये जनार्दन? कापी कहीं ऐसी होती है? एक छात्र मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। भरी-भरी बड़ी आॅखें, सुडौल मुखाकृति आधुनिकता का कोई लक्षण नहीं। मैनें पूछा ऐसी होती है अभ्यास पुस्तिका? फिर मैने देखा कि उसके फटे मैले पन्ने पर एक कविता लिखी हुई है। मैने पूछा किसने लिखी है ये कविता? जनार्दन ने धीरे से कहा मेरी है, मैने लिखी है। अब मैं कविता पढ़ने लगा। आखिरी की दोनों पंक्तिया पढ़कर मै आवाक रह गया। बिजली के तार के समान मुझे छू गयीं। वह पंक्ति थी- 

              ‘‘ अन्धकार के बीच जिन्दगी, बुझे स्नेह के दीये, 

                मेरे जीवन की नैया को पर करो हे मोती बी.ए.’’ 

यह था मेरी जनार्दन पाण्डेय अनुरागी से पहली पहचान। 

    जिस समय अनुरागी जी ने ‘रमराजी’ कविता लिखी। उनके नाम का ड़का चारों ओर बजने लगा। इस कविता से उनकी तुलना ‘भवभूति’ से होने लगी। रमराजी के सम्बन्ध में भगवत शरण उपाध्याय ने लिखा है ‘‘रमराजी, का सबल चित्र खड़ी बोली में भी अपना समानान्तर निराश खोजेगा। हिन्दी साहित्य में रमराजी के समानान्तर कोई रचना खोजने पर भी शायद ही मिले।’’ रमराजी की एक कड़ी देखिए- 

                ‘‘जनमें उनके बपसी मरलें, गवना होते माई, 

                 सेजिया चढ़ते पिया गुजरलें, एइसन करम कमाई, 

                 ससुरा उनके कोइला बरसल, नइहर भइल अन्हरिया, 

                 बोझा भइल जवानी दिन-दिन, बैरिन भइ्रल उमरिया, 

                 ईटा उनकर रहल सिढ़ानी, गुदरा भइल रजाई, 

                 माथे पर सेवार छितराईल, आॅखिन गंगा माई।’’ 

बालकों के लिए लिखी गयीं उनकी कविताएॅ मन-प्राण को आत्म विभोर कर देती थीं। ‘‘छ बरसि के भइलें हमार ओंकार, हमरे करम में गरीबी वरदान बा, आउ रे किरनवा बुझौव्वल बुझाईं, धनि शैलेन्द्र हमार, देख-देख-देख इ फजिरहीं बजार कुकुरे के बच्चा के झकावता ईनार, एगो रहलें राजा एगो रहली रानी आनि के घरे बिकलें दूनो परानी’’ इतनी सी बाल कविताओं और कुछ भक्ति के पदों के कारण कुछ साहित्यकार इन्हें भोजपुरी का सूरदास कहते हैं। कानपुर के भोजपुरी समाज ने इन्हें सम्मानित किया था और इनके भोजपूरी भजनों का एक सुन्दर सा पाकेट संस्करण प्रकाशित किया था। इनकी एक गजल पर बम्बई झूम उठी थी- 

               ‘‘बड़े मौज से दिन जवानी के काटा, 

                न होना था बिड़ला ना होना था टाटा’’ 

इन्होनें अपनी भरी जवानी में ही भगवा वस्त्र धारण कर रखा था। श्री मोती बी.ए. के द्वारा उन्होने इसका बड़ा विरोध किया था पर अनुरागी जी नहीं माने। अनुरागी जी की एक कविता है- 

               ‘‘अनुरागी के देख विरागी, काहे दुनिया रोई, 

                देहिया धइले ना जाने कि केकर का गति होई।’’ 

ये गृहस्त सन्त के रूप में शेष जीवन व्यतीत किये। ये डायबीटीज के रोगी हो गये। विश्राम जीवन में लिखा नहीं था। गरीबी से दिन-रात जूझते रहे। घीरे-धीरे खोखले और जर्जर हो गये। जीवन के अन्तिम समय में बहुत दुःखी और खिन्न रहने लगे। संघर्षों में टूट गये और अनुरागी जी कच्ची उम्र में ही स्वर्गवासी हो गये। जनता का दुःख दर्द समेटे हुए उसके आॅसुवों से अपनी आॅखे भरे हुए साक्षात कविता देवी बनवासी हो गयीं। किसी ने उनकी पुकार नहीं सुनीं। दुःख है अनुरागी जी जैसा समर्थ कवि अनदेखा, अनसुना, अन समझा इस संसार से विदा हो गया।    


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