समाजवाद के लिये जिसने अपना जीवन कुर्बान कर दिया
कवि गोरख पाण्डेय
इनकी कविताए रूसी भाषा सहित अनेक भाषाओं में अनूदित हुयीं हैं
देवरिया के ये रत्न दिल्ली में प्यासे ही मरे
सम्पदा अक्टूबर, 1989 से साभार
कवि कहा जाय या समाजवाद का साधक चाहे हम जो विशेषण लगाये कवि गोरख पाण्डेय उस विशेषण से भी श्रेष्ठ साबित होगें। लोग इन्हें दिल्ली के कहते हैं पर वस्तुतः यह देवरिया जनपद के मुण्डेरवाॅ के शाहजहाॅपुर ग्राम के रहने वाले थे। इनका जन्म सन् 1945 में हुआ था। इनका विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था। इनकी पत्नी विवाह के कुछ ही काल बाद दिवंगत हो गयीं। ये विधुर हो गये। काशी में साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त कर दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया। ेसन् 1969 में ये किसान आन्दोलन से जुड़े रहे। किसानों और मजदूरों की लड़ाई से प्रेरित होकर के इन्होंने भोजपुरी में जगगीत और हिन्दी में कविताएॅ लिखीं। हिन्दी कविताओं में निजी अनुभूतियों और आकाक्षाओं की अभिव्यक्ति होती थी, लेकिन इनके भोजपुरी गीतों में जनता की भावनाएॅ और आकाॅक्षाएं व्यक्त होती थीं। गोरख पाण्डेय कविता और समाजवाद के लिए ही जिये और कविता और समाजवाद के लिए ही मरे। जनाकाॅक्षा ही इनकी कविता थी। इसी के लिए भीतर और बाहर से आन्दोलित थे। वाराणसी से सन् 1972 में दिल्ली आ गये, जहाॅ पर इन्हें फेलोशिप मिली। यहाॅ वे बहुत लोकप्रिय हुये। इनकी कविताओं को अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया। रूसी भाषा में भी इनकी कविता अनूदित हुयीं। दिल्ली के भीड़-भाड़ में यह नितान्त अकेले थे। आप स्वंम इनकी कविताओं से जान सकते हैं कि यह क्याा चाहते थे?
हमारे वतन की नयी जिन्दगी हो,
नयी जिन्दगी एक मुकम्मिल खुशी हो,
नया हो गुलिस्ताॅ, नये बुलबुले हों,
मुहब्बत की कोई नयी रागिनी हो,
न हो कोई राजा, न हो रंक कोई,
सभी हों बराबर, सभी आदमी हों,
जुबानों पर पाबन्दियाॅ हों ना कोइ्र,
निगाहों में अपनी नयी रोशनी हो,
नये फैसले हों, नयी कोशिशें हों,
नयी मंजिलों की कशिश भी नयी हो।
चहल-पहल और भीड़-भाड़ से भरी देश की राजधानी दिल्ली में गोरख पाण्डेय नितान्त अकेले, प्यार के प्यासे और भूखे, विचार भावों से भरपूर, कविताओं के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित बीर-बाॅकुड़े संघर्षरत, जर्जर तन, जर्जर मन भोजपुरी में भी उदात जीवन की यथार्थताओं को उभारते हुए आत्म बोध की भाषा में कहते थे-
‘‘समाजवाद ए बबुआ घीरे-धीरे आयी’’
कवि गोरख पाण्डेय की एक कविता देखिए-
डब डबा गयी हैं, तारों भरी
शरद से पहले की यह अॅधेरी तम,
रात,
उतर रही है नींद,
सपनों के पॅख फैलाए,
छोटे-मोटे हजार दुःखों से,
जर्जर पॅख फैलाये,
उतर रही है नींद,
हत्यारों के भी सिरहाने,
हे भले आदमियों,
कब जागोगे,
और हथियारों को,
बे मतलब बना डालोगे?
हे भले आदमियों,
सपने भी सुखी और आजाद
होना चाहते हैं।
वे डरते हैं,
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन दौलत
गोला-बारूद, पुलिस फौज के बावजूद,
वे डरते हैं
कि एक दिन निहत्थे और गरीब लोग,
उनसे डरना बन्द कर देंगें,
भूल रहे वे,
सबके डपर वह मनुष्य,
उसे चाहिए प्यार,
चाहिए खुली हवा।
श्री मोती बी.ए. ने सम्पदा के अंक में श्री गोरख पाण्डेय का जिक्र करते हुए लिखा है कि सन् 1970 में देवरिया के गौरी बाजार के डाकखाने में मेरी उनसे मुलाकात हो गयी। डाकखाने के इंचार्ज पण्डित रामानुज उपाध्याय को मैं अपनी कविता सुना रहा था। मेरे साथ पण्डित ज्वाला प्रसाद पाण्डेय अनल जी भी थे। समाजवाद के कथित हिमायितियों की सता पक्ष की इमानदारी पर भोजपुरी में एक व्यंग्य प्रधान कविता थी-
‘‘हेले बबुआ, कुरुई में ढेबुआ, आ गईल समाजवाद, चाट नून नेबुआ।’’
कविता सुनकर सभी प्रसन्न थे किन्तु एक युवक ने कुछ खुनसाते हुए इसका प्रतिवाद किया और माहौल विवाद का हो गया। मैं कुछ कुंठित सा हो गया। यह युवक मुझे कुछ रास नहीं आया। परिचय कराये जाने पर पता चला कि यह युवक काशी विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र से एम.ए. है। समाजवादी विचारधारा का है और किसान आन्दोलन का सक्रिय कार्यकर्ता है। इस घटना के बाद मेरी भेंट नहीं हुई। जनसता अखबार के द्वारा पता चला कि अनेक मानसिक तनाओं और खिंचाओं के बीच ये बीमार पड़ गये। अर्थाभाव उपर से था। यह लिखते हुए घोर आत्मिक कष्ट होता है कि यह बीर लड़ाका योद्धा हिम्मत हार गया और भरी जवानी में 45 वर्ष की उम्र में 29 जनवरी 1989 में नर्मदा हाॅस्टल कमरा नं. 415 में आधी रात में बिजली के पंखे से फाॅसी लगाकर झूल गया। शव के नीचे एक परचा उनका लिखा हुआ मिला कि ‘‘मैं अपनी बीमारी से तंग आकर आत्म-हत्या कर रहा हूॅ। इसके लिए किसी को तंग न किया जाय।’’ ऐसे चमत्कारिक व्यक्ति का यह कारुणिक अन्त सहन शक्ति से बाहर है। काश, गोरख पाण्डेय से मेरा गहरा सम्पर्क उसी समय हो गया होता तो मैं दावे के साथ कह सकता हूॅ कि और कुछ हुआ होता या नहीं गोरख पाझडेय का यह कारुणिक अन्त कदापि नहीं होता। प्यार के भूखे उनको सहज प्यार भी दिल्ली में नसीब नहीं हुआ। अफसोस देवरिया का हमारे घर का यह रत्न दिल्ली में प्यासा ही मर गया और अपने पीछे एक कहानी छोड़ गया है, ‘‘गोरख का सपना , गोरख की कुर्बानी’’ वह दिन कब आयेगा जब ये ख्वाब रंग पर आयेंगें, चमकेंगें और इन्सानियत आबाद होगी।
‘‘यही है मृत्यु जिसपर कुछ बिचारा जा नहीं सकता,
रहूॅ रोता उसे लेकर जिसे मैं पा नहीं सकता।’’