सम्पदा रत्न
भारतीय सनातन संस्कृति पर हमें एक विलक्षण व्याख्या डाॅ. अनिल पाण्डेय के पोस्ट पर देखने को मिली। हमें ऐसा महसूस हुआ कि इसे आप तक पहुॅचाना श्रेयस्कर होगा। आध्यात्मिक विचारों वाले व्यक्तित्वों के लिये यह एक वैचारिक रत्न के समान है। साभार, डाॅ. अनिल पाण्डेय के पोस्ट से - सम्पदा न्यूज
सनातन संस्कृति के आलोक में डूब जाते हैं विचारक
भारतीय सनातन शास्त्रों में आए अनेकशः शब्दों के अर्थ का अनर्थ किया गया।उस अनर्थ के कारण भारतीय समाज में भटकाव, उम्र और विभाजन की स्थिति बनी है। प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति को किसने उत्पन्न किया? मेरे विचार से यह अर्थ का अनर्थ कर हमारे सनातन शास्त्रों के शब्दों के किये जाने का श्रेय मैं ब्रितानी हुकूमत को देता हूॅ।, जिसने फुट डालो और शासन करो के सिद्धांत के आधार पर जीवन के हर क्षेत्र यथा राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षिक आदि में अपनी सुविधानुसार व्याख्या कर अपने को विश्व में श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में हमारे समाज का ऐसा विद्रूप चेहरा लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जैसे हम भारतीय विश्व में सर्वाधित पिछड़े, जातिवादी आदि बुराइयों के जन्मदाता हैं जबकि हमारे समाज में इन बुराइयों के जन्मदाता ब्रितानी हुकूमत है जिसने कुछ तथाकथिक भारतीय और वैदेशिक विद्वानों को लालच व आश्रय देकर हमारी सनातन परंपरा को दूषित कर विष वमन किया जिसको आज भी हमारा समाज किसी न किसी रूप मेें असंगत और गलत तथा भ्रामक तथ्यों के आधार पर स्वीकारोक्ति प्रदान करते हुए उस इतिहास और व्याख्या को सही मानता है, जिससे मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत न था, न हूॅ और न रहूंगा।
आइए जानने की कोशिश करते हैं किस शब्द का क्या सही अर्थ है।
1.शूद्र-
यह शब्द अक्सर गलत संदर्भाें में प्रचारित किया जाता रहा है औैर इसके अर्थ भी गलत निकाले जाते रहे हैं।‘वेदांत सूत्र’ में बादरायण ने ‘शूद्र’ शब्द को दो भागों में विभक्त किया गया-‘शुक’ और ‘द्र’ जो ‘दु्र’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना। शंकर ने इसका अर्थ निकाला ‘वह शोक के अंदर दौड़ गया’, ‘वह शोक निमग्न हो गया’ (शुचम् अभिदुद्राव) शूद्र शब्द निकाला है शुक् (दुःख)़(बेधित) अर्थात जो दुख से बेधित है वह शूद्र है। हालांकि कुछ विद्वान कहते हैं कि जिसका शुद्ध आचरण न हो उन्हें शूद्र कहा गया जाता था। ऐसी कई जातियां थीं, जो मांसभक्षण के अलावा शराबादि का सेवन करती थीं उनको शूद्र मान लिया गया था और ऐसे भी लोग थे जिन्होंने समाज के नियमों को तोड़कर अन्य से रोटी-बेटी का संबंध रखा उनको भी शूद्र मान लिया गया और जो काले या मलिच होते थे उनको भी शूद्र मान लिया गया। ऐसा हर देश और धर्म में होता रहा है, जहां इस तरह के लोगों को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है।
कैसे हिन्दुओं को जाति में बांटा गया?
अक्सर यह पढ़ने को मिलता है-‘शूद्र वर्ण’। इस शूद्र शब्द को ही इतिहास को बिगाड़ने वालों ने क्षुद्र, दास, अनार्य में वर्णित किया। वेदों में सबसे बाद में अथर्ववेद लिखा गया जिसमें समाज के ऊंच-नीच की चर्चा मिलती है लेकिन शूद्र शब्द की चर्चा नहीं मिलती। वैदिककाल के अंत के बाद यह शब्द आस्तित्व में आया। वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर दोनों के अंदर श्राामिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रामिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। बाद में इन्हें ही क्षुद्र कहा जाने लगा, इन्हें ही अछूत का अर्थ जिसे छूना नहीं और दास का अर्थ गुलाम निकालते हैं। लेकिन यदि आपको समाज का विभाजन करना है तो शूद्र का अर्थ आप मनमाने तरीके से नाच भी कर सकते हैं।हिन्दू समाज को तोड़ने के लिए शूद्र का हर काल में अलग-अलग अर्थ किया गया। यहां यह बताना जरुरी हैैैैैैैैैैैैैैैै कि शूद्र भी आर्य थे। इसके सैकड़ो उदाहरण शास्त्रों में मिलेंगे। युधिष्टिर के राज्याभिषेक में भी शूद्र बुलाए गए थे। यह बात महाभारत सभापर्व अध्याय 33 श्लोक 41-42 से सिद्ध है। प्रजा की दो मुख्य सभाएं थीं अर्थात जनपद और पौर। इन दोनों के कुछ सभासद शूद्र होते थे, इन सभासदों का ब्राम्हण आदर करते है।
मैत्रेयी संहिता (4-2-7-10), पंचविंश ब्राम्हण (6-1-11), ऋग्वेद (7-8-6-7ः8-19-36ः8-56-3) से ज्ञात होता था कि आर्य भी गुलाम होते थे। टत्एव् पश्चिमी मत कि शूद्रों को आर्यों ने गुलाम बनाया था सर्वथा गलत है। और शूद न तो दास्य थे और न दस्यु।
2-आर्यः आर्य का होता है श्रेष्ठ। अधिकतर लोगों ने या कहें कि हमारे तथाकथित जाने-माने इतिहासकारों ने लिखा है कि आर्य एक जाति थी, जो मध्य एशिया से भारत में आई थी और जिसने यहां के दास और दस्यु को हाशिये पर धकेलकर राज्य किया था। उनकी यह धारणा बिलकुल ही गलत है। यहां यह बताना जरूरी है कि आर्य नाम की कोई जाति नहीं थी। आर्य उन लोगों को कहा जाता था, जो वेदों को मानते थे। और जो वेदों को नहीं मानते थे उन्हें अनार्य कहा जाता था। वेदों के मानने वालों में भारत की कई जातियांे के लोग शामिल थे। आर्याें के बारे में पश्चिम का मत पूर्णतः गलत है। आर्यों के काल में ऐसे भी कई आर्य थे (जिनके पूर्वज वेद को मानकर ही आर्य कहलाए थे)। जो वेदों को नहीं मानते थे फिर भी वे आर्य कहलाते थे, जैसे आज ऐसे कई हिन्दू हैं, जो नास्तिक हैं फिर भी है तो हिन्दू ही। यहां यह बताना जरूरी है कि शूद्र भी आर्य थे। इसके सैकड़ों उदाहरण शास्त्रों में मिलेंगे।
(मैत्रीय संहिता4-2-7-10) पंचविश ब्राहम्ण (6-1-11) ऋग्वेद (7-8-6-7, 8-19-36, 8-56-3) से ज्ञात होता था कि आर्य भी गुलाम होते थे। अतएव पश्चिम मत कि शुद्र गुलाम होते थे सर्वथा गलत है। पश्चिम के इतिहासकारों नें लिखा कि मध्य एशिया के आर्यों द्वारा जब भारत पर कब्जा किया तब दास-दस्यु जीत लिए गए और वे लोग दास बना लिए गये और वही शुद्र कहलाए। उक्त इतिहासकारों का यह यह मत गलत है।
3. दासः ऋग्वेद में दास का उल्लेख हुआ है। आज भी बहुत से ऐसे संत और साधारण लोग हैं, जो अपने नाम के आगे दास लगाते हैं जेसे कालिदास, रामदास, हरिदास आदि। ‘दास’ का अर्थ सेवक और उपासक माना जाता है। पहले आश्रमों और जगहों राजगृहों में ऐसे लोग होते थे, जो अपने अन्नदाता की रक्षा और सेवा करते थे। दस्यु या दास शब्द किसी जाति विशेष का नाम नहीं था।
4. दस्युः दस्यु दो अर्थों में पाया जाता है- पहला, दास के अर्थ में और दूसरा, अपराधी के अर्थ में। पहले इन्हें दुष्टजन माना जाता था। आजकल दस्यु का अर्थ डाकू से लिया जाता है। प्रत्येक देश और समाज में श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ कर्म करने वाले लोग रहते हैं। आर्य और दस्यु शब्द गुणवाचक हैं, जातिवाचक नहीं।
दृश्यंते मानुषेषु लोक सर्वे वर्णेषु दस्यवः।
लिंगांतरे वर्तमाना आश्रमंेषु वतुष्र्वपि ।। -(महाभारत शांतिपर्व, अध्याय 65 श्लोक 23)
अर्थातः सभी वर्णों में और सभी आश्रमों में दस्यु पाए जाते हैं।
‘हे शूरवीर राजन्! विविध शक्तियों से युक्त आप एकाकी विचरण करते हुए अपने शक्तिशाली अस्त्र से धनिक दस्यु (अपराधी) और सनकः (अधर्म से दूसरों के पदार्थ छीनने वाले ) का वध कीजिए। आपके अस्त्र से वे मृत्यु को प्राप्त हों। ये सनकः शुभ कर्मों से रहित हैं। -ऋग्वेद ।33।4
5. ब्राहम्णः ब्राहम्ण शब्द ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नही पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलता है, वह ब्राह्मण नहीं है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलता है वह ब्राह्मण नहीं ज्योतिषी है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं हैं। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं।
स्मृति पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं।इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते है। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
शनकैस्तु क्रियालोपादिनाः क्षत्रिय जतायः ।
वृष्लत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च।।
पौण्ड्रकाशचैण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः भवनाः शकाः ।
पारदाः पहल्वाश्चीनः किरताः दरदाः खशाः।।-मनुसंहिता (1-/43-44)
अर्थात ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न होने के कारण उस क्रिया का लोप होने से पोण्ड्र, चैण्ड, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक, पारद, पहल्व, चीनि की किरात, दरद व खुश ये सभी क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गई।
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6. जातिः जाति का अर्थ हमेशा गलत किया जाता है। हिन्उू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि जातियां नहीं हैं। ब्राह्मण,शुद्र, राजपूत, क्षत्रिय, वैश्य, अहमदिया, पठान, नायता, शिया, सुन्नी, बोहरा, मंसूरी, रंगरेज, चमार, आदि भी जातियां नहीं हैं। तब जातियां क्या हैं?
मनव समाजशास्त्री के अनुसार शक, हूण, कुशाण, मंगोल, जाट, गुर्जर, द्रविड़, सिथियन आदि। लेकिन ये तो स्थानीय नाम पर रखे गए नाम हो सकते हैं, जैसे मंगोलिया में रहने वाला मंगोल, सिथियन भी एक स्थान का नाम था। डाॅ. गुहा के अनुसार भारतीय दो जाति के हैं यानी लंबे सिर वाले और छोटे सिर वाले। पश्चिम में भी मेडीवरेनियन के लोग लंबे सिर वाले और आल्पस प्रदेश के लोग छोटे सिर वाले थे।
जति समूह उसे कहते हैं जिसका सिर, चेहरा, बाल, आंख, कद, नाक, रंग रूप एक समान हो और जो दूसरे से भिन्न हो। जैसा कि भारतीयों से भिन्न है अफ्रिका और चीन के लोग। जाति शब्द को भारत में हमेशा से ही गलत संदर्भों में लिया जाता रहा है। जातिवाद शब्द के बजाय किसी अन्य शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
7. देवताः देव और देंवता में फर्क होता है। देवता शब्द का सामान्य अर्थ होता है जिसमें दिव्यता है। देव शब्द में तल् प्रत्यय लगाकर देवता शब्द की उत्पत्ति होती है। कुछ लोग इसका अर्थ दाता से लगाते हैं अर्थात जो कुछ भी देता हैं, देने वाला। सुुरों को देवता कहा जाता था। देवता आदिति के पुत्र थे।
प््रमुख 33 देवता होते हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इंद्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं, 12 आदित्यों में से 1 विष्णु हैं और 11 रुद्रों में से 1 शिव हैं। कुछ विद्वान इंद्र ओर प्रजापति की जगह 2 अष्विन कुमारों को रखते हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं। देवता का नंबर हिन्दू धर्म में दूसरा हैं। देवी और देवता के पहले परमेष्वर ब्रह्मा ही सर्वोच्च सत्ता है।
गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों के 24 देवता-1. अग्नि 2. प्रजापति 3. चन्द्रमा 4. ईशान 5. सविता 6. आदित्य 7. बृहस्पति 8. मित्रावरुण 9. भग 10. अर्यमा 11. गणेश 12. त्वष्टा 13. पूषा 14. इन्द्राग्नि 15. वायु 16. वामदेव 17. मैत्रावरुण 18. विश्वदेवा 19. मातृक 20. विष्णु 21. वसगुण 22. रुद्रगुण 23. कुबेर और 24. अश्विनी कुमार।
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नर और नारायणः नर का अर्थ अधिकतर लोग मनुष्य से लगाते हैं। हिन्दू धर्म में दो महान ऋषि हुए हैं जिन्हें भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। उनके नाम हैं-नर और नारायण।
अब इस नर का अर्थ समझिए। नर का अर्थ जल होता है। जीवन की अत्पत्ति जल में हुई इसीलिए उसे सर्वप्रथम नर कहा गया। नारायण में अयण का अर्थ होता है गति, चलना आदि। खगोल विज्ञान में खगोलीय पिंड के किसी घूर्णीय या कक्षीय प्राचाल (पैरामीटर) का धीरे-धीरे परिवर्तित होना अयन (चतमबमेेपवद) कहलाता है।
आपने नीर और रामायण, उत्तरायण शब्द सुना होगा। नीर का अर्थ होता है पानी, लेकिन आजकल इस शब्द का भाव शुद्धता के रूप में भी लिया जाता है। नर शब्द बाद में मनुष्य के रूप में उस्तेमाल होने लगा नर, नारी और किन्नर।
भगवान और भगवतीः भगवान शब्द संस्कृत के भगवत शब्द से बना है। जिसने पांचो इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंच तत्वों पर पकड़ है उसे भगवान कहते हैं। भगवान शब्द का स्त्रीलिंग भगवती है। भगवान को ईश्वरतुल्य माना गया है इसीलिए इस शब्द को ईश्वर, परमात्मा या परमेश्वर के रूप में भी उपयोग किया जाता है, लेकिन यह उचित नहीं है। आपने भगत या
भक्त शब्द भी सुना होगा।
भगवान (संस्कृतः भगवत्) सन्धि विच्छेदः
भ्$अ$ग्$अ$व्$आ$न्$अ
भ-भूमि
अ-अग्नि
ग-गगन
वा-वायु
न-नीर
भगवान पंचतत्वों से बना/बनाने वाला है। इसका प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि ये पंच तत्व संपूर्ण जीव समुदाय के लिए सर्वदा उपलब्ध हैं और भगवान ही संपूर्ण जीव समुदाय का नियंता है। इसके बिना सृष्टि नहीं चल सकती।
कुछ लोग इसका अनर्थ भी करते हैं-
भगवान दो शब्दों से बना है (भग$वान) भग से तात्पर्य स्त्री का जनन अंग और वान से तात्पर्य असको रखने वाला मतलब उसका पति ठीक उसी तरह जैसे बलवान का अर्थ बल को रखने वाला है। दूसरा अनर्थ भग का अर्थ रथ और वान का अर्थ उस पर सवार व्यक्ति। जो व्यक्ति अपने शरीररूपी रथ पर सवार होकर पांचो इंद्रियों (घोड़ों) की लगाम अपने हाथ में रखकर इस भगसागर से पार हो जाता है, उसे भगवान कहते हैं।
अगले पन्ने पर अवतार और प्रभु.....
अवतारः हिन्दू धर्म के पास ऐसे कई शब्द हैं जिनका दुनिया की दूसरी भाषाओं में अनुवाद नहीं किया जा सकता और जिनकों अच्छे से समझाया भी नहीं जा सकता। उनमें से ही एक है अवतार। अवतार का अर्थ क्या है यह जानना जरूरी हैं।
अवतार शब्द ‘तृ’ एवं उपसर्ग ‘अव’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है उतरना अर्थात ऊपर से नीचे आना। अवतरित होना या अवतरण होना। भगवान विष्णु 3 तरह से धरती पर उतरे- पहला उन्होनें स्वयं ही जन्म लिया, दूसरा उन्होनें किसी के शरीर में उतरकर अपना संदेश दिया, तीसरा वे स्वयं प्रकट होकर पुनः अंतध्र्यान हो गये उदाहरणार्थ भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए वे एके खंभे में से नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये थे। विष्णु के 24 अवतार हैं। इसी तरह भगवान शिव के भी अवतार हैं।
प्रभुः यह शब्द परमेश्वर की तरह शुद्ध रूप से हिन्दुओं का शब्द है। पर$भू अर्थात भूमि से परे। आपने परब्रह्मा सुना होगा अर्थात ब्रह्मा से पहले परब्रह्मा। हिन्दू शास्त्रों में ब्रह्मा, परम ब्रह्मा, परब्रह्मा की चर्चा मिलेगी। परमेश्वर या ईश्वर की यह तीनों ही अवस्था अलग-अलग है। ब्रह्मा को ब्रह्म का पुत्र कहा जाने के कारण ही ब्रह्मा