दिलीप साहब और लता मंगेशकर की पहली और ज़िन्दगी की आखरी मुलाकात किस्सा...
दिलीप साहब और लता मंगेशकर की पहली मुलाकात बम्बई की एक लोकल ट्रेन में हुई थी.. उस दिन लता मंगेशकर के साथ उनके एक सहजोगी अनिल बिस्वास भी थे.. वो बम्बई के मलाड नाम के एरिया में बॉम्बे टाकीज जा रही थी.. रास्ते मे बांद्रा से दिलीप साहब भी उसी ट्रैन में चढ़ गए और अनिल बिस्वास से मिलते हुए साथ मे उनके साथ जो लड़की थी उनका परिचय पूछने लगे ...तो अनिल बिस्वास ने लता जी की तरफ देखते हुए कहा के ये एक महाराष्ट्रीयन गायका है..बहुत अच्छा गाती है और जल्दी ही इसका बड़ा नाम होगा.. तो दिलीप साहब ने मजाक करते हुए कहा के ये महाराष्ट्रीयन लड़की है और इसका तलफ़्फ़ुज़ जो है उसमें तो दाल भात की महक आती होगी..दरअसल दिलीप साहब ये कहना चाहते थे के लता उर्दू बैक राउंड से नहीं थी शायद उसका लहजा इतना साफ नहीं होगा, जितना होना चाहिए.. लता जी को दिलीप साहब का ये मजाक थोड़ा चूब गया और उसी शाम उन्होंने म्यूजिक डायरेक्टर मुहम्मद शफी साहब , जो के नौशाद साहब के उन दिनों असिस्टेंट थे.. उनके ज़रिए एक मौलाना को बुलाया और उनसे उन्होंने उर्दू सीखने लगी और उस इंसिडेंट के 10 साल बाद उन्होंने दिलीप साहब के साथ 1957 में मुसाफिर फ़िल्म का एक गाना भी गाया रिकॉर्ड किया और आज लता जी दिलीप साहब का धन्यवाद करती हैं के आज उनकी वजह से उनका तलफ़्फ़ुज़ इतना सही है...
दिलीप साहब ने लता जी पर छीटाकशी तो ज़रूर की थी लेकिन अब उन्हें ये एहसास था के अब लता जी के साथ गाना भी गाना पड़ेगा तो इसी वजह से इस फ़िल्म के एक गाने के लिए दिलीप साहब ने 3 महीने तालीम भी ली थी
इस गाने के बोल थे
लागी नाही छुटे रामा
चाहे जीया जाए
जिस दिन गाना रिकॉर्ड करने का समय आया उस दिन दिलीप साहब को लता जी के आगे रिक्वेस्ट करनी पड़ी के वो ज़रा उनका ध्यान रख कर गाये.. और इस तरह गाये के दिलीप साहब उनके सामने ज्यादा हल्के ना लगें.. लेकिन जब गाने की रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो उस वख्त दिलीप साहब लता जी पर बहुत नाराज हुए क्योंके दिलीप साहब को ऐसा लग के लता जी ने गाना जानबूझकर लता मंगेशकर की तरह गाया है.. ऐसा गाया है के दिलीप साहब उनके आगे कुछ लग ही नहीं रहे..दिलीप साहब ने म्यूजिक डायरेक्टर सलिल चौधरी से ये भी कहा के मैं इस गाने को दोबारा रिकॉर्ड करना चाहता हूँ लेकिन सलिल चौधरी टेक से खुश थे उन्होंने मना कर दिया..
फिर उसके बाद दिलीप साहब और लता मंगेशकर की जब आखरी मुलाकात हुई वो दिसंबर 2014 को हुई थी..ये वो वख्त था जब दिलीप साहब को लोगों को पहचानने में मुश्किल आ रही थी सही मायनों में पहचानना बन्द हो चुका था.. लता मंगेशकर दिलीप साहब से पाली हिल वाले बंगले पर मिलने पहुंची..उनको पूरी उम्मीद थी के दिलीप साहब उन्हें पहचान नहीं पाएंगे..
लता जी ने दिलीप साहब से मिलने से पहले कुछ ऐसा किआ जिससे उन्हें एहसास हो के दिलीप साहब उन्हें पहचान भी रहे हैं या नहीं.. लता जी उस दिन दिलीप साहब के पास गई और
बोली "लागी नाही छुटे रामा"
और दिलीप साहब ने लता जी की तरफ देखा, मुस्कुराए, और बोले
"चाहे जीया जाए"
ये सुनकर लता मंगेशकर को विश्वास हो गया के दिलीप साहब ने उन्हें पहचान लिया है.. दिलीप साहब के घर मे एक बड़ी सी कुर्सी थी जिसपर गद्दे लगे हुए थे और वहीँ पर बैठ कर वो सबसे मिलते थे.. जिस दिन लता जी उनके घर पर आई थी उस दिन वो उस कुर्सी से उठे और लता जी जिस सोफे पर बैठी थी उनके बगल में साथ जाकर बैठ गए.. और उसके बाद लता जी ने दिलीप साहब को अपने हाथों से माल पूया खिलाया, पनीर टिक्का खिलाया.. दिलीप साहब के चेहरे की मुस्कान बता रही थी के हाँ, मैं तुम्हे पहचानता हूँ और आज मैं बहुत खुश हूँ.. ये वाक्या 2014 दिसंबर का है और ये उन दोनों स्टार्स की आखरी मुलाकात थी...