कविवर ध्रुवदेव मिश्र पाषाण और अज्ञेय
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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया
'सुखी रहें सब लोग किसी को कभी न कोई भय हो
नहीं किसी के साथ कभी भी अत्याचार अनय हो'।।
'परहित बस जिनके मन माहीं ----के साकार विभूति कविवर ध्रुवदेव मिश्र पाषाण के देवरिया स्थित आवास 'ध्रुवधाम' परउनका हाल चाल लेने चला गया। कवि उमेश पंकज जी की काव्य पुस्तक जो उन्होंने पाषाण जी के लिये भेजा था, पहुँचाना था।
जाते ही सर्वदा की भांति अति प्रसन्न होकर गले लगाते हुए मिले और बोले "
"भाई इन्द्र्कुमार जी आपको ही फोन मिला रहा था , पिछले तीन चार दिन से तबीयत ठीक नहीं चल रही है तो ऐसे में मित्र , बहुत याद आते हो"
मैने करीब दस दिन से न आ सकने की विवशता बताई, फोन पर तो बात हो ही जाती है पर मिल कर बात करने का आनन्द कुछ और ही होता है।
मिलने पर देश , समाज राजनीति और साहित्य में
निरंतर बढ़ती जा रही कटुता , विचारों के आधार पर बढ रही खेमे बाजी, असहिष्णुता और साहित्यकारों के बीच में चल रही खींचतान, एक दूसरे को कीचड़ में घसीटने पर चिंता पर मुखर होते हैं-कहते हैं मैने कोलकाता में रहते हुए देखा है,एक छोर पर कल्याण मल लोढ़ा और विष्णुकांत शास्त्री जैसे लोग दूसरे छोर पर शम्भूनाथ, सरला माहेश्वरी
अरुण माहेश्वरी जैसे अलग अलग ध्रुवों के लोग भी मुझे बड़े प्रेम और सम्मान से सुनते थेऔर उनका आशीर्वाद स्नेह भी मुझे मिला है।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के साथ का एक वाकया सुनाते हुए बोले-'वे बड़े कवि थे, एक बार भारतीय भाषा परिषद( श्रद्धेय पाषण जी से फोन पर हुई बातचीत में उन्होंने इस प्रसंग का स्थान भारतीय भाषा परिषद न होकर कोलकाता वि वि का हिन्दी विभाग बताया, ) में उनके सम्मान के अवसर पर उनका 'काल चिंतन और साहित्य पर प्रभाव' हाँ शायद यही विषय था , पर उनका व्याख्यान आयोजित था।कोलकाता के साहित्य जगत की प्रमुख हस्तियां
सभागार में उपस्थित थीं।अज्ञेय जी के गम्भीर व्याख्यान को लोग सुन रहे थे, उन दिनों मैं नव युवक ही था,और अज्ञेय जी को सुनने के लिये गया था।मुझे कुछ मित्रों ने हस्तक्षेप के लिये उकसाया ।मैने अज्ञेय जी को सम्मान देते हुए विनम्रता पूर्वक कहा-
"क्या कारण है कि एक ही काल में एक धारा अज्ञेय जी की स्थापनाओं के रूप में प्रस्फुटित हो रही है और दूसरी धारा गजानन माधव मुक्तिबोध के रूप में आकार ले रही है,जबकि दोनों की भाव भूमि उसी अनुभव की भट्ठी में से ही पक कर निकल रही है?
सुनते ही अज्ञेय जी के चेहरे का रंग बदल गया।
एक मिनट चुप रहने के बाद उन्हों ने कहा-'मुक्तिबोध की चर्चा मुझे मारने के लिये की जाती है' मैने भी उसी तेवर में आस्तीने चढ़ाते हुए कहा-'अज्ञेय जी! जब आप नेहरू अभिनंदन ग्रंथ के सम्पादन में मशगूल थे तो उसी समयमुक्तिबोध
जिन्दगी और मौत के संघर्ष से जूझते हुए
अस्पताल में पड़े पड़े मर गये और दिल्ली का साहित्य जगत उनको मुकम्मल इलाज भी उपलब्ध नहीं करा सका, क्या आप जैसे लोगों की यह जिम्मेदारी नहीं थी, आपके हाथों में मुक्तिबोध के खून का दाग लगा हुआ है।"
अज्ञेय जी सुनकर तिलमिला उठे और तत्काल व्याख्यान अधूरा छोड़कर कार्यक्रम से चले गए।बेशक इससे मुझे दुख हुआ कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये पर उस समय जोश में यह हो गया इस घटना का जिक्र मैं इसलिये कर रहा हूँ कि
इसके बावजूद भी अज्ञेय जी जब अगली बार रानी गंज साहित्य समावेश में आये तो मेरी पुस्तक ' विसंगतियों के बीच' जो मैं कार्यक्रम के बीच जब वे मंच पर उपस्थित थे ,अपने कुछ साथियों को दे रहाथा, को जिज्ञासपूर्वक मांग कर लिया और देखकर उसकी सराहना भी की।मैं कह सकता हूँ कि वे बड़े दिल के लोग थे,अपनी विचारधारा के विपरीत कटु से कटु आलोचना सुनकर भी बर्दाश्त करने की क्षमता रखते थे पर किसी तरह का मनमुटाव नहीं रखते थे। एक आज का समय है कि जिससे कोई वैचारिक मतभेद होता है उसकी व्यक्तिगत जिंदगीके किस्से चटखारें लेकर सुनाए ही नहीं जाते पत्र पत्रिकाओं में छाप कर नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता है और यही हाल राजनीति और समाज के दूसरे क्षेत्रों का भी है।मेरा कहना है कि यह किस तरह का साहित्य लिखा जा रहा है।
दीक्षित जी! आपने देखा होगा की पिछले वर्षों जबसे मैं देवरिया में हूँ, लगातार अपनी छोटी टिप्पणियों के माध्यम से फेसबुक पर मैं साहित्य
में पनप रहे इस दोहरे चरित्र और पनप रहे पाखंड के विरुद्ध कुछ न कुछ लिखता रहा हूँ, जाहिर है कि मेरे कुछ मित्रों को बुरा भी लगता होगा पर मैं अपने को लिखने से रोक नहीं पाता। देवरिया में कोलकाता जैसा माहौल नहीं है फिर भी मुझे लगता है कि देवरिया कोलकाता से कम नहीं है
इसलिये कि यहाँ भी साहित्य की चिंगारी को नागरी प्रचारिणी सभा और कुछ मित्रों ने बुझने नहीं दिया है, यह देखकर मुझे सन्तोष होता है।
और क्या कहूँ मित्र अब सुनने और देखने में कठिनाई के चलते कुछ लिखना पढ़ना कठिन होता जा रहा है, घर के बच्चो की मदद से कभी कभी कुछ पोस्ट डालपा रहा हूँ। आप आते हैं तो अच्छा लगता है, आते रहिये।"
मैं चुपचाप सुन रहा था और मन ही मन उनकी अदम्य ऊर्जा और जिजीविषा के प्रति
कृतज्ञ हो रहा था। उनकी बात चीत ने मेरे खाली मन को भर दिया था और कई दिन के लिये मानों बैटरीरिचार्ज हो गई हो, मन में कविवर के अच्छे स्वास्थ्य और सक्रिय रहने की कामना करते हुए फिर आने के वायदे के साथ विदा लेता हूँ।
इंद्र कुमार दीक्षित, देवरिया।