Sangeetkar. Jaydev Verma

बहुत देखी जिंदगी न कोई शिकवा है, न शिकायत
 मस्तमौला रहा हूं जो मिला, खाया, पिया और उड़ाया। 

थोड़े दिनों की बात और है, फिर सीधे हरिद्वार चला जाऊंगा। नहीं, हर बार की तरह नहीं... अब की बार जाऊंगा, तो लौटने के लिए नहीं। पहले तो यही सोच-सोचकर लौट आता था कि चलूं और कोई अविस्मरणीय धुन बनाऊं। पर अब ऐसी कोई तमन्ना शेष नहीं है।

तमन्नाओं के लिए न्यौछावर हो जाने की मेरी एक दास्तां रही है। छठी कक्षा में था, तब लाहौर में मैंने फिल्म देखी 'अलीबाबा चालीस चोर।' मिस कज्जन (जहांआरा कज्जन) का गीत इतना भाया कि 'खुल जा सिमसिम' गाता हुआ भागकर मुंबई जा पहुंचा, वहां से फिर लुधियाना पकड़कर लाया गया। जहां मेरी मुलाकात स्टंट फिल्मों की खूबसूरत हीरोइन मिस एर्मलीन से हुई। वो भी हमारे संगीत गुरु के पास सीखने आती थीं।
जब वे मुंबई लौटीं, तो 1932 में मैं भी भागकर उनके पास जा पहुंचा। उन्होंने ही वाडिया प्रोडक्शन में परिचय कराया। फिर मिला 'वामन अवतार' में नारद का रोल। पर संतोष न मिला। भागकर घर जा पहुंचा। पिताजी मर चुके थे। पैसे की तंगी थी, इसलिए ट्यूशन करने लगा। पर यहां भी मन नहीं लगा।

इसलिए उदय शंकर की संगीत अकादमी में भर्ती हो गया, लेकिन वहां सीखने को शास्त्रीय संगीत था ही नहीं, उस्ताद लोग छोड़कर जा चुके थे। यहां भी ज्यादा दिन ठहर नहीं पाया और वहां से पहुंचा लखनऊ उस्ताद अली अकबर खान की शागिर्दी हासिल करने। उनके साथ मैंने जोधपुर महल में गाने भी गाए और वहीं मेरी मुलाकात संगीतकार और गायक एस. डी. बर्मन साहब से हुई।
1941 में अली साहब मुझे अपने साथ मुंबई ले आए और मैं उनके साथ् काम करने लगा। अली साहब ने नवकेतन की फिल्‍म 'आंधियां' और 'हमसफर' में जब संगीत देने का जिम्मा संभाला, तब उन्होंने मुझे अपना सहायक बना लिया। हालांकि उनकी फिल्में ‘आंधियां’ व ‘हमसफर’ फ्लॉप हो गईं। फिर शुरू हुआ बेकारी का दौर।

कुछ संघर्षाें के बाद मुझे मिली एस. डी. बर्मन की असिस्टेंटशिप यानी दो सौ रुपये महीने का काम। फिर तो संगीत निर्देशक ही बन गया। मगर आगे का रास्ते इतना आसान भी नहीं था। 'अंजली', 'किनारे-किनारे', 'जोरू का भाई', 'हम दोनों', 'रेशमा और शेरा'... कितनी फिल्में फ्लॉप हुईं। मेहनत कम नहीं की। डाकुओं के अड्डे देखकर आया, कोठों पर संगीत की नाजो-नजाकत सीखी, मध्य प्रदेश की लोक धुनों को जांचा-परखा।

फिर भी एक असफल संगीत निर्देशक का लेबल चस्पा हो गया। फिल्म लाइन में होता भी यही है- फिल्म हिट तो आप हिट, नहीं तो दूध की मक्खी! ऊपर से कहीं राजनीति में फंस गए, फिर तो राम भरोसे रहिए। राजनीति से जितना दूर भागता रहा, उतना ही लोग उसमें फंसाते रहे। कभी कोई गायिका नाराज, तो कभी कोई निर्माता, इसलिए कि मेरे विपक्षियों का प्रचारतंत्र हिटलर के प्रचारतंत्र से भी जबरदस्त था।
आज की फिल्में ही देखिए, कला जैसी कोई चीज है वहां? यह तो पैसा जुटाने का एक तमाशा रहा है। कहानी तो माशा अल्लाह! पर तकनीक के मामले में निश्चय ही हमारी फिल्में पहले से बहुत अच्छी हैं। अक्सर लोग मेरी शादी के बारे में पूछते हैं। अब बुढ़ापे में क्या शादी? पर हां, एक बार एक शीरीं के पीछे मैं भी पागल हुआ था। बचपन में शीरीं-फरहाद का नाटक देखा, तभी से शीरीं भा गई, उसके पीछे पड़ गया।
तब बापू जान ने कान खींचकर दिखाया- 'देख, यह रात की जो शीरीं होती हैं न, दिन को वही फरहाद होता है।' बेचारा अच्छा भला मर्द था, जो शीरीं का पार्ट करता था। 
सो शीरीं को पाने के सारे सपने टूट गए..., फिर कभी कोई शीरीं पागल न बना सकी यानी कि खुदा ने जहां-जहां भी रोका मुझे, मैं वहां-वहां से गुजर गया। 

(महान संगीतकार #जयदेव को गए लगभग 36 साल हो गए। उनकी जुबानी ही उनकी कहानी को सुनना, सुरों के सागर में डुबकी लगाने जैसा है। ये बातें दिसंबर 1978 में जयदेव ने कई फिल्मी पत्रकारों से कही थीं और कई जगह प्रकाशित भी हुई थीं।)

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