'आप कवि हो सकते हैं, पर...' ~ परिपूर्णानन्द वर्मा
"प्रेमचंद जी का शव पड़ा हुआ था। उस निर्जीव शरीर को गोद में चिपटाए भाभी शिवरानी आकाश का भी हृदय दहला देने वाला करुण क्रन्दन कर रही थीं। श्मशान जाने के लिए नगर के सैकड़ों संभ्रान्त साहित्यिक उतावले हो रहे थे। कुछ अपने दु:ख का वेग नहीं सँभाल पा रहे थे। कुछ को 'और भी बहुत से काम थे।' उन्हें जल्दी थी 'इस काम से निबट जाने की।' और कुछ ने मुझे बतलाया था कि वे रास्ते से ही अलग हो जाएँगे, श्मशान तक न जा सकेंगे। और भाभी शिवरानी शव को किसी को छूने नहीं दे रही थीं। सबने 'प्रसाद' जी से कहा--'आप ही समझाएँ!' वे आगे बढ़े। भाभी से बोले--'अब इन्हें जाने दीजिए!' वे क्रोधपूर्वक चीख़ उठीं--'आप कवि हो सकते हैं, पर स्त्री का हृदय नहीं जान सकते। मैंने इनके लिए अपना वैधव्य खंडित किया था। इनसे इसलिए नहीं शादी की थी कि मुझे दुबारा विधवा बनाकर चले जाएँ। आप हट जाइए।' प्रसाद जी के कोमल हृदय को वेदना तथा नारी की पीड़ा ने जैसे दबोच लिया। उनका गला भर आया। नेत्रों में आँसू छलछला उठे। मैं ही सामने खड़ा दिखाई पड़ा। मुझसे भर्रायी आवाज़ में बोले--'परिपूर्णा, तुम्हीं सँभालो!' भाभी चिल्लाती-चीख़ती रहीं और मैंने 'अब यह प्रेमचंद जी नहीं हैं, मिट्टी है'--कहकर मुर्दा उनकी गोद से छीन लिया। उस घटना के बाद मैंने प्रसाद जी को कभी हँसते नहीं देखा। उनके शरीर में क्षय घुस चुका था।..." {'बीती यादें' से}
चित्र : मृत्यु से दो दिन पहले, प्रेमचंद जी की सेवा करतीं शिवरानी देवी। ['ज़माना' (उर्दू), कानपुर, अक्टूबर, 1936 में प्रकाशित।]