srivar ke giridhar by Varun Pandey

साहित्यकार वरुण पान्डेय की नई प्रस्तुति
                   'श्रीवर के गिरधर'
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पद्म भूषण जगद्गुरु श्री राम भद्राचार्य जी महाराज के जीवनसंघर्ष,उनकी प्रखर मेधा- शक्ति,प्रज्ञाचक्षु होने पर भी उनकी  अगाध धार्मिक आध्यात्मिक ज्ञान भक्ति साधना ,कर्म भूमि चित्रकूट में तुलसी पीठ एवं विकलांग विश्व विद्यालय की स्थापना के साथ अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में प्रमुख साक्ष्य प्रस्तोता के रूप में जगत प्रसिद्ध भूमिका पर आधारित कवि  उपन्यासकार एवं साहित्यकार वरुण पान्डेय
का नया ग्रंथ 'श्रीवर के गिरधर' की प्रति 
उनके  हाथ से पाकर अत्यंत प्रसन्नता  की अनुभूति हुई।
         भारतीय संस्कृति की  ज्ञान परम्परा, उसकी धार्मिक और आध्यात्मिक साधना,  अध्यवसाय , आध्यात्मिक शास्त्रीय चिंतन पद्धति 
और मौलिक तत्वों के अधययन में जिनकी अभिरुचि हो  उन्हें श्री रामभद्राचार्य जी महाराज की यह काव्यमय जीवन गाथा जरूर पढ़नी चाहिये।
      यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगता कि  गणित और  वाणिज्य विषय से शिक्षा प्राप्त  बैंक की नौकरी करनेवाले नवयुवक  का झुकाव
जीवन के एक मोड़ पर आकर अचानक साहित्य सर्जना की ओर हो जाय और वह एक के बाद एक तीन उपन्यास 'Rivya : the symbol  of  intimacy ' (अंग्रेजी) ,'नेत्रा: ऐन ओशन आफ फीलिंग्स' और 'योगी का  त्याग पत्र' ( हिंदी) में दे दे। यही नहीं शुरुआती दौर में  कविता के रूप में अपनी निर्बन्ध छंदमुक्त कुछ रचनाओं से आगे बढकर छांदस काव्य रचना के क्षेत्र में  भी निडरता पूर्वक झंडा गाड कर  साहित्यिक,धार्मिक और आध्यात्मिक  धारा में शीर्ष पर पहुँचे मनीषी व्यक्तित्वों पर उनके  कर्मक्षेत्र पर आधारित तीन   काव्याख्यानों(१-धर्मधाम और पुण्य काम: महन्थ अवैद्यनाथ ,२-अक्षर मार्तण्ड: डॉ  सुधांशु चतुर्वेदी,३- श्रीधर के गिरधर : श्री राम भद्राचार्य) की  सर्जना कर डाले, आश्चर्य  चकित करने वाला है।  अपनी असाध्य बीमारी ' रीढ़ की हड्डियों के स्लिप डिस्क' की पीडा के चलते बैंक जैसी उपजाऊ नौकरी से त्याग पत्र देकर पूर्ण रूप से साहित्य साधना के क्षेत्र में उतर जाने का निर्णय वरुण और उनके  परिवार के लिए कितना जोखिम भरा   रहा होगा, सोचकर ही सिहरन हो जाती है,फ़िर भी बेहद  आत्मविश्वास और आस्था से भरे वरुण के चेहरे पर कोई अवसाद की रेखा नहीं दिखती ,वे बताते हैं कि  ' यह मेरे माता-पिता और गुरु श्रीत्रिदंडी स्वामी जी की  आध्यात्मिक प्रेरणा और आशीर्वाद से सम्भव हो पाया है।वे इसका श्रेय देवरिया की साहित्यिक संस्था  नागरी प्रचारिणी  सभा और अपने मित्र तथा मार्गदर्शक कुछ कवि  साहित्यकारों को देते नहीं अघाते,  इसमें उनके  व्यक्तित्व की सरलता विनम्रता और उदारता ही झलकती है।
          'श्रीवर के गिरधर' ग्रंथ के लिए उ प्र की राज्यपाल महामहिम आनन्दी बाई पटेल ,प्रमुख सचिव रहे श्री दुर्गा शंकर मिश्र और विकलांग वि  वि  के कुलाधिपति के निजी सचिव श्री रमापति मिश्र की शुभाशंसा प्राप्त होना इस कृति के महत्त्व और उपादेयता को रेखांकित करता है।
       श्रीराम भद्राचार्य जी के स्तवन में दो छंद द्रष्टव्य हैं--- 
             घड़ी घन्ट नाद ले नभ जागे
              अद्भुत प्रकाश था छाया 
              शत कोटि भानु चलते आगे
                 ज्यों  महा सूर्य था आया।।
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              हर दिशा जयति जय नाद किये
                हर्षित हो स्तुति गाती थी
               हर मूल तत्व के अंतस से
                  मंत्रों की ध्वनि ले आती थी।।
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         पुस्तक आठ सर्गों में विभक्त की गई  है
  जिसका प्रथम सर्ग है -- 'जन्म और ज्योति'
जिसमें  ईश वन्दना के साथ भद्राचार्य जी के जन्म और जन्म के कुछ ही दिनों के भीतर उनके  नेत्रों की ज्योति चले जाने का वर्णन है।
      चली ब्रह्म ऊर्जा धरा करने शोभित
 जमदग्नि भूमि (जौनपुर) कोकरने सुशोभित
    ग्रहों से नक्षत्रों से शुभ अंक पाकर
    यवन पुर में जन्में स्वयं पुण्य आकर।।
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    नहीं दीप था कोई उस क्षण
           पुण्य प्रसूति  सदन में
     किन्तु प्रकाशित भवन हुआ
          अद्भुत आभा थी तन में।।

        बुआ ने दिया नाम बालक को गिरधर
        स्वयं सिद्ध मेधा थी आई निखर कर।।
         
         जनम के सुनों मास दो ही हुए थे
         कि  नवजात नयनों को रोहे छुए थे।।

         बिनु नयनों के चलने पर 
          बालक पग पग भय खाता
           कर प्रयास थक हार बैठना
           कभी न उसे सुहाता ।।
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          दूसरे सर्ग में  गौ माता का माथे पर दिया चिह्न( चक्रांकन ) और राघव कृपा से अद्भुत स्मरण शक्ति के आविर्भाव का दिग्दर्शन कराया गया है,कुछ छंद  देखें---
           
      गौ सींगों से होकर आहत  
           बालक विह्वल हो रोया
        रक्त बहा माथे से तो
          उसने   सुध बुध था खोया।।

          नाता स्थापित होना था
          गो- शृंगों का अंकन
          सत्य सत्य कहना ये था
             वैषमव का चक्रांकन।।
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     रमण करो श्री राम नाम  में
           इस माया को त्यागो
       जागो हे सुत गिरधर मेरे
       सुमिर राम को जागो।।

        तीन  वर्ष  की अल्प अवधि में 
         प्रगट हो गई   कविता
         गिरधर को अवधी ले आई
      माखन मय सुख सरिता।।
             ॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰॰
            प्रज्ञा चक्षु जहाँ जब जागे
                वहां धर्म बसता है
              शुभता  के आवाहन को 
                हर कर्म स्वयं ही रचता।।

              सात वर्ष की अल्प आयु में
                    श्रीरामचरित साधा  था
                  शब्द शब्द श्लोक सहित
                 उनकी  संख्या बाँधा था।।
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           ग्रंथ के तृतीय सर्ग में  काशी  जाकर
 गुरुकुलों में  संस्कृत साहित्य वांगमय का व्यापक अध्ययन ,अध्यवसाय और उन शास्त्रों की एक- एक पँक्ति को कंठस्थ कर आचार्यों को सुनाना,
उनके  आशीर्वाद से उनपर टीकाएँ लिखने तथा करपात्री जी महाराज के सान्निध्य में आकर प्रसिद्धि प्राप्त करने का वर्णन है--
          रामकथा कह रहे संत ने
            जब जब श्रीमुख खोला
              श्रोता संग कथा वाचक ने
               भी जय जय जय बोला।।

             चार वेद छ: शास्त्र सभी
                   उपनिषद हुए उरगामी 
                 अष्टा दश पुरान भी साधा
                कहा जयति जय स्वामी।।

            अगर दीनता कहनी है 
           तो दीन वन्धु से बोलो
           और नहीं हैं शब्द पास
             तो मौन हृदय को खोलो।।
          ॰॰॰॰॰॰॰॰॰ ॰॰॰॰॰॰॰॰॰
        चतुर्थ सर्ग में देश की राजधानी दिल्ली में जाकर अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के बलपर
सम्मानित होना तथा ख्याति के शीर्ष पर पहुँचने का वर्णन किया गया है।
              त्वरित रचित छंदों के कारण 
                    वहां विजय श्री पाई
                  जहाँ स्वयं माँ हंसवाहिनी
                          साधक कंठ समाई।।

                    पुरस्कार वितरण आयोजन
                        था विज्ञान भवन में
                         प्रधानमंत्री इन्दिरा स्वयं
                          आईँ थी उस उपवन में।।

                    त्रिन्शत किलो रजत चिह्न 
                      देकर प्रधान मुस्काईं 
                        और कहीँ कैसा अनुभव है
                          क्याआपकी करूँ बड़ाई।।
                
                        भावुक नयनों से साधक को
                        गुरुवर ने हृदय लगाया
                      और सहज बह चले अश्रु से
                        गिरधर को नहलाया
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                आगे पंचम सर्ग में काशी से  सभी विद्याओं में पारंगत हो चुके आचार्य गिरधर के
भगवान राम की तप:स्थली  चित्र कूट में जाकर
अपने आराध्य राघव राम की कथा के माध्यम से 
जन जन का विश्वास जीतना और प्रसिद्धि प्राप्त करके  जन कल्याण  के लिए संकल्पित होने का विवरण वर्णित किया गया  है----
             ज्ञान और भक्ति को धारे
               विरले ही दिखते हैं
                  जो निज वानी के प्रभाव से
                    जन मंगल लिखते हैं।।

               साधक का जीवन था अब
                 राघव चरणों में अर्पित
               सुख हो या दुख कोई
             सिय पिय को किया समर्पित।।

                  ले विरक्ति की दीक्षा गिरधर
                   रामभद्र कहलाए,
                   पंच तत्व और परातत्व का
                     वह शुभ नाम  बताए।।
         चित्रकूट में राम चंद्र ने 
             बारह वर्ष  बिताया
             उसी स्थल पर साधक ने
               है तुलसी पीठ बनाया।।

            कहा - राष्ट्र नहीं है कोई
                  जो भारत जैसा है 
                  देख लिया जाकर विदेश
                        ना देश कोई ऐसा है।।
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          छठें सर्ग में श्री राम भद्राचार्य जी के द्वारा
ब्रह्म सूत्र, उपनिषद तथा श्रीमद्भगवद्गीता पर भाष्य 'प्रस्थानत्रयी' टीका लिखने के पश्चात   जगद्गुरु की उपाधि  काशी विद्वदपरिषद  की ओर से प्रदान किया गया । इसके बाद  कुरुक्षेत्र
में ही उनकी  संकल्पना के अनुरूप सात एकड भूमि की व्यवस्था करके  दिव्यांग विश्व विद्यालय  की स्थापना किये जाने का वर्णन किया गया है--

         प्रथम वचन दें चित्र कूट में
               बने दिव्य एक आलय    
                 हो सेवा दिव्यांग जनों की
                बने विश्वविद्यालय।।

             द्वितीय वचन दें- मैं कुलाधिपति 
               और रहूँ संचालक
                    यही वचन दे विदा करें अब
                      मुझे राज्य के पालक
                      ( मुख्य मंत्री राजनाथ सिंह)
             अष्टाध्यायी  के सूत्र सूत्र की
                विधिवत किया समीक्षा
                   शब्द बोध के  इस चिंतन की
                        ले ली एक परीक्षा।।

              अक्षय वटसे कहाँ पा सके 
                 तुम    जितना पाना था
               उतना ही दे सका वृक्ष         
                    जितना तुम  तक जाना था।।
                       ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
            सातवाँ  सर्ग  गुरुबहन गीता जी का सान्निध्य और उनकी  प्रेरणा से तुलसीकृत रामचरित मानस  का विभिन्न प्रचलित रामायण संस्करणों के परिप्रेक्ष्य में  विवादित प्रकरणों को संशोधित करते हुए  नव चिंतन से उसके पुनर्सम्पादन के ऊपर केंद्रित किया गया है--
             जैसे तन ईश्वर के उपकारों 
                     से पार न पाए 
                   यही मान  अग्रजा संमुख
                    भ्राता शीश नवाए।।

               राम चरित मानस सम्पादन
                 यह एक पुण्य विषय था     
              पहल भी विद्वान किये हैं
                  तब न कोई संशय था।।

               पूर्व पाठ की त्रुटियोंको
                 गुरुवर ने ढूँढ बताया
                   आयातित प्रक्षेपित
               भावों    को पूर्ण हटाया।।

                  बाल काण्ड के दोहे में
                     है  अद्भुत  रूप 'बिचारी'
                        रूप चक्षु का विषय तो
                    गुरुवर उसको कहें' निहारी'।।
                     ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
    आठवें और अन्तिम सर्ग का वर्ण्य विषय है
राम जन्म भूमि आन्दोलन से श्रीभद्राचार्य जी का जुड़ना, पल-पल उस प्रकरण के कानूनी और सामजिक राजनीतिक पक्ष की नब्ज  पर  हाथ रखे रहना और  न्यायालय में सुनवाई के दौरान 
शास्त्र सम्मत अकाट्य तर्क प्रस्तुत करते हुए संतों महात्माओं के दृढ़ इच्छाशक्ति के बलपर सुखद परिणति तक पहुँचाना। तत्पश्चात शासन प्रशासन
के अनुकूल दशाओं में भव्य राम मंदिर निर्माण एवं प्राण प्रतिष्ठा के विश्व व्यापी उत्सव में सम्मिलित होकर परम प्रसंन्न भाव से  आनन्द मनाना।
   रामलला आवास हीन 
      सुन प्राण विहीन हुए थे  
       बिलख बिलख कर रोए     
          गुरुवर लगता दीन  हुए थे।।
           
    जब प्रतिपक्ष ने कहा
   राम का मंदिर यहाँ नहीं था
   दे प्रमाण स्कंद पुराण  से
    गुरु ने कहा 'यहीं था'।।

            किया निरूत्तर इस प्रमाण ने
              सबको न्यायालय में
                हत्प्रभ  हो सब देख रहे थे
                         शुभता के आलय में    ।।

            धर्म जहाँ धारण होता
               शिक्षित समाज दिखता है
              नित नूतन उत्थान वहाँ 
             मन  शोध कार्य  लिखता है।।
                    ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
               इस प्रकार देखा जाय तो यह कृति
     विषम परिस्थितियों  से घिरे होने के बावजूद कवि श्री वरुण पान्डेय के श्रीरामभद्राचार्य जी महाराज के संघर्षमय जीवन के व्याज से  अपनी विराट संस्कृति के शाश्वत मौलिक तत्वों  की खोज,अध्यवसाय, संघर्षऔर साहित्य समाज  के प्रति  समर्पण की जीवंत गाथा है,जिसके अधययन मनन और चिंतन से प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को त्याग-तपोमय और आदर्श बना कर समाज में समादृत स्थान प्राप्त कर सकता है।
                  मुद्रण सम्बंधी कुछ त्रुटियों को 
नजरंदाज कर दिया जाय तो वरुण पान्डेय की
यह रचना पठनीय ,मननीय और श्लाघ्नीय है।
मैं कवि  को इस महत  कार्य सम्पादन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई देता हूँ।
           शुभमस्तु!
     इंद्र कुमार दीक्षित,देवरिया।

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