Bareli ka Jhumaka

● झुमका गिरा रे .... बरेली के बाज़ार में ...
● झुमका बरेली वाला .... कानों में ऐसा डाला,
   झुमके ने ले ली मेरी जान ...

हर शहर की अपनी कोई ना कोई ख़ासियत और पहचान होती है। जैसे इंदौर के पोहे जलेबी, फ़तेहाबाद के गुलाब जामुन तो बनारस का पान ... लेकिन कुछ शहर ऐसे भी हैं जो किसी चीज को लेकर क्यों और कैसे मशहूर हो गए? जैसे 'बरेली का झुमका' अब ये ताज़्जुब की बात है कि बरेली कभी भी किसी खूबसूरत या डिजाइनर झुमकों के बाज़ार के लिए मशहूर नहीं रहा। बल्कि बरेली का मशहूर तो मांझा, पतंग और सूरमा है। तो फिर 'मेरा साया' फ़िल्म में गीतकार 'राजा मेहदी अली खान' को इस गीत का ख़्याल क्यों और कैसे आया? जबकि फ़िल्म की कहानी में भी न बरेली था ना कोई झुमकों की सिचुएशन थी। जिससे फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती बल्कि ये गाना भी फ्लैशबैक में मेले के दौरान देवी के मंदिर के सामने फ़िल्माया गया है। इसके बाद गीतकार 'एस एच बिहारी' जी ने भी फ़िल्म 'क़िस्मत' के एक गीत में बरेली के झुमके का ज़िक्र किया है।
बहरहाल बरेली के झुमके की कहानी फ़िल्म के गीतकार 'राजा मेहदी अली खान' से शुरू होती है जो अक्सर बरेली आया जाया करते थे। और उनकी दोस्ती हरिवंशराय बच्चन और बाद में तेजी सूरी (बच्चन) से भी हो गई थी। बात 1941 के दौरान की है। उस वक्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जुदा नहीं हुए थे। जिससे कि लाहौर के सरदार खजान सिंह सूरी की बेटी तेजी सूरी और इलाहाबादी हरिवंश राय बच्चन की मोहब्बत की राहें मुश्किल नहीं रही। साल 1941 में क्रिसमस की छुट्टियां चल रही थीं। कुछ वक्त पहले ही हरिवंश राय बच्चन अपने पिता और पहली पत्नी दोनों को खो चुके थे। जी हाँ हरिवंशराय की ये दूसरी पत्नी बनी थीं।

अंदर से पूरी तरह टूट चुके हरिवंश राय बरेली में अपने दोस्त प्रोफेसर ज्योति प्रकाश के सिविल लाइंस में कंपनी बाग के पास स्थित घर पर आए हुए थे। वहां इनकी नौकरी भी बरेली कालेज में लगी थी लेकिन उन्होंने ज्वाइन नहीं की थी। बहरहाल, बच्चन के अलावा प्रोफेसर साहब के घर में एक दूसरी मेहमान भी थीं। ये मेहमान कोई और नहीं बल्कि तेजी सूरी थीं। वो 31 दिसंबर 1941 की सुबह थी। जब प्रोफेसर साहब के घर चाय पर बच्चन साहब और तेजी जी की मुलाक़ात हुई। इस मुलाकात का जिक्र खुद बच्चन साहब ने किया है, वह लिखते हैं कि उनका रूप पहली नजर में ही किसी को भी अभिभूत करने के लिए काफी था। बच्चन साहब ग़र साहित्यकार थे, तो तेजी सूरी भी मनोविज्ञान की प्रोफेसर थीं। हालांकि तेजी की सगाई एक विदेश में पले बढ़े लड़के से हो चुकी थी। लेकिन तेजी इस बेमेल विचार वाले लड़के को अपना हमसफर नहीं बनाना चाहती थीं।

उन्हीं दिनों लाहौर के 'ख़ूब चंद डिग्री कॉलेज' जहां तेजी सूरी मनोविज्ञान पढ़ाती थीं। वहां की प्रिंसिपल प्रेमा जौहरी जो बरेली की रहने वाली थीं और तेजी की अच्छी दोस्त भी थीं। उन्हें जब तेजी के दिल की बात पता चली तो, उन्होंने और बरेली में मौजूद उनके पति ज्योति प्रकाश जौहरी जो बच्चन साहब के मित्र थे। उन दोनों के मिलन में काफी मदद की।

31 दिसंबर की रात को वहां के नामी वकील रामजी शरण सक्सेना के घर पर थर्टी फर्स्ट का एक कार्यक्रम रक्खा गया। इसमें तेजी और बच्चन साहब एक दूसरे के करीब बैठे थे। रात को जब सभी लोग समारोह से वापस प्रकाश जी के घर लौटे तो प्रकाश जी ने बच्चन साहब को नए साल पर एक कविता सुनाने का आग्रह किया। तो जैसे ही बच्चन साहब ने कहा ... "उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा ...", तो तेजी जी की आंखें नम हो गईं। उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी और बच्चन साहब भी अपने आंसू रोक नहीं पाए। यह देख प्रेमा जौहरी और उनके पति कमरे से बाहर चले गए। बच्चन साहब इस घटना का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि ... हम दोनों एक-दूसरे के गले से लिपटकर रोने लगे, 24 घंटे भी नहीं हुए थे कि दो अजनबी जीवनसाथी हो चुके थे। नए साल की सुबह में सब-कुछ पूरी तरह से बदल चुका था। 

सुबह प्रकाश जी ने दोनों के गले में फूलमालाएं डालकर दोनों की सगाई की घोषणा कर दी यानि इस तरह तेजी सूरी का झुमका हरिवंशराय के कुर्ते में अटक गया या यूँ समझें कि बरेली के इस बाजार में इस आलिंगन में वो कही खो गया। गीत की ये लाइन सुनिए ...

सैंया आए नैन झुकाए घर में चोरी चोरी ,  
बोले झूमका मैं पहना दूँ आजा बांकी छोरी ...

इस तरह दोनों का प्यार परवान चढ़ा। 4 जनवरी, 1941 को इलाहाबाद के जि़ला मजिस्ट्रेट की अदालत में उन्होंने अपना विवाह रजिस्टर कराया। उस समय के रूढि़वादी समाज में यह एक विवादास्पद विवाह था। इसके बाद तेजी अपने परिवार का आशीर्वाद लेने के लिए लाहौर चली गईं तो बच्चन साहब इलाहाबाद जाकर शादी की तैयारियों में जुट गए। शादी होने के पूर्व भी कवि सम्मेलनों व पार्टियों में अक्सर उनकी मुलाक़ातें होती रहती थीं, जहां उनके मित्रगण शादी के बारे में पूछते रहते थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में राजा मेहदी अली खां भी थे और तेजी व बच्चन साहब भी उसमें शरीक थे। जब तेजी जी से पूछा गया कि ये सब कब तक चलेगा तो तेजी ने बड़े ही खूबसूरत अंदाज में कहा कि मेरा झुमका तो बरेली के बाजार में गिर गया है ... अब इसके मायने कुछ भी हो सकते हैं ... जैसे दोनों ने सगाई तो कर ही ली है। अब फेरे भी लगा लेंगे ...

मेहदी साहब के जेहन में यह किस्सा बसा हुआ था। जब 1966 में 'मेरा साया' फ़िल्म के लिए गीत लिखने की बात चली तो उन्हें यह किस्सा याद आ गया और तेजी के झुमके पर उन्होंने साधना जी पर फ़िल्माया गया मशहूर गीत ... "झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में ..." लिख डाला। वैसे एकाध मान्यताएं और भी हैं ... जैसे कि बरेली का प्राचीन नाम पांचाल है और द्रौपदी यहीं की राजकुमारी थीं। कहा जाता है कि उन्हें भी झुमकों का बेहद शौक था। लेकिन फ़िल्म में ये गीत द्रौपदी के झुमके से नहीं बल्कि तेजी सूरी के झुमके से प्रेरित है। जो बाद में तेजी बच्चन बनी।

ये खोया हुआ झूमका देर से ही सही पर बरेली सरकार मिल गया। और 30 वर्गाकार घेरा व 14 मीटर ऊंचा झुमका तिराहे पर लटका कर उस तिराहे का नाम 'झुमका तिराहा' रख दिया गया है। सालों पूर्व बनी इस फ़िल्म के गीत ने ... ना जाने कितने दिलों पर छुरियां चलाई हैं। फ़िल्म 'मेरा साया' में जहां झुमके को गिराया गया, तो वहीं माधुरी दिक्षित अभिनीत फिल्म 'आजा नचले' में झुमके को उठा भी लिया गया ... “मेरा झुमका उठा के लाया यार वे, जो गिरा था बरेली के बाजार में”

 दोस्तो इस झुमके की कहानी तो पूरी हुई। अब आप सब कब जा रहे हैं बरेली ... इस झुमके को निहारने व सेल्फ़ी लेने ।
((साभार गुप्ता जी ))

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