गोपाल नायक कश्मीर नरेश के दरबार में गायक नियुक्त हो गया और वहाँ उसने यह प्रचलित कर दिया कि वह स्व-शिक्षित है और उस पर किसी भी गुरु की कृपा नहीं है। यह सुन बैजू फटेहाल श्रीनगर पहुँचा और अपने गायन से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया लेकिन गोपाल नायक ने अपने गुरु को पहचानने से मना कर दिया। आहत बैजू एक मंदिर में जाकर गाना गाने लगा और वहाँ भारी भीड़ उमड़ पड़ी और जब कश्मीर नरेश को इस बात की सूचना मिली तो कश्मीर नरेश ने बैजू को अपने दरबार में बुलवा भेजा और बैजू और गोपाल की संगीत प्रतियोगिता रखवा डाली। बैजू को पहले गाने का मौका मिला और गोपाल को उसका उत्तर देना था। बैजू ने राग भीमपलासी गाया जिसके कारण पत्थर पिघलने लगे। गोपाल ने उत्तर में गाया लेकिन जीत न पाया। प्रतियोगिता की शर्त के अनुसार हारने वाले को मृत्युदण्ड दिया जाना था लेकिन बैजू बावरा ने राजा से अनुरोध कर गोपाल को मृत्युदण्ड से बचा लिया। लेकिन अपनी मूर्खता के कारण गोपाल को अपनी जान से हाथ गँवाना पड़ा। उसका अन्तिम संसकार सतलज के किनारे उसकी पुत्री मीरा ने किया। ऐसा कहा जाता है कि दाह संस्कार के बाद जब गोपाल की हड्डियों को नदी में फेंका गया तो वह डूब गयीं। दन्तकथा के अनुसार गोपाल की विधवा प्रभा ने जब बैजू से उन हड्डियों को लाने का अनुरोध किया तो बैजू ने गोपाल की पुत्री मीरा को राग मल्हार का एक नया संस्करण सिखाया जिसको एक सप्ताह तक सीखने के बाद जब मीरा ने सतलज के किनारे भीड़ के सामने जब गाया तो गोपाल की हड्डियाँ नदी के किनारे आ लगीं। उस समय के बाद से उस राग को मीरा की मल्हार का नाम दिया गया। इस प्रकरण के पश्चात् उदास बैजू चंदेरी वापस चला आया। साभार -विकिपीडिया