मार्क्सवादी विचारों के ढ़लान और गांधी विचार के उठान को समझना बहुत जरूरी है।
(1 मई मजदूर दिवस पर विशेष)
आज 1 मई विश्व मजदूर दिवस है। आज का दिन दुनिया के जानेमाने अर्थशास्त्री व दार्शनिक कार्लमार्क्स को समर्पित है जिनका जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी में हुआ। मई दिवस पर पूरी दुनिया में मार्क्स की चर्चा होती हैl मार्क्स ने मजदूर वर्ग को एक राजनैतिक दर्शन दिया जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं। ब्रिटिश मार्क्सवादी चिंतक टेरी इगलटन ने कहा था कि मार्क्सवादी होने का अर्थ है - क्रियाशील होना यानी कुछ करना। जब बात कुछ करने की हो तो गांधीवादी होने का अर्थ है भी यही है कि कुछ करते रहना। हालांकि गांधीजी ने अपने नाम पर कोई वाद नहीं स्थापित किया। उन्होंने तो यही कहा कि मेरा जीवन ही मेरा दर्शन है। मैं किस तरह जिया और किस तरह मारा गया अगर उसमें कुछ अच्छा लगे तो आप ग्रहण करो और नहीं लगे तो मत करो।
मार्क्स ने अपने स्वप्न को पूरा करने के लिए कोई आंदोलन नहीं किया जबकि गांधी ने एक बड़ा कांग्रेस संगठन खड़ा किया और खुद कई आंदोलनों का नेतृत्व भी किया। मार्क्स की पूरी ज़िंदगी पुस्तकालयों में बीती और वहीं बैठे बैठे उन्होंने दुनिया को बदल डालने की बात सर्वहाराओं से कही। गांधी ने अपनी जनता को ही अपनी किताब बनाया और उस जनता की नब्ज टटोलने के लिए वे जीवनभर एक घुमन्तु यात्री बने रहे जिन्होंने पगडंडियों, खेतों, नदियों के मुहानों , मैदानों और पूरे भारत को अपने पैरों से नाप डाला।
मार्क्स कहते हैं कि मोड़ ऑफ प्रोडक्शन जो है, उत्पादन के जो साधन हैं, वो क्या है और किसके हाथ में हैं, इससे ही तय होता है कि समाज कैसा रहेगा? मोड ऑफ प्रोडक्शन क्या है और इसे कौन नियंत्रित करेगा? इसलिए उन्होंने पूंजी के रोल के बारे में बहुत गहराई से विचार किया और आखिर में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जब तक प्राइवेट पूंजीवाद खत्म नहीं करेंगे तब तक समाज की स्वतंत्रता और समाज का शोषण रुके यह संभव नहीं है। हेव एंड हेव्स नॉट की एक अवधारणा उन्होंने हमारे सामने रखी और ये रास्ता निकाला कि पूँजी की प्राइवेट ओनरशिप को खत्म करके अगर पूंजी की स्टेट ओनरशिप बना दी जाए तो इसका जो शोषण है वो खत्म किया जा सकता है।
सोवियत संघ से लेकर के और बाकी सारे समाजवादी देशों में उसमें यह प्रयोग हुआ कि अगर पूँजी की स्टेट ओनरशिप हो तो शायद शोषण रोका जा सकता है । लेकिन हमने देखा कि वो प्रयोग बहुत दूर तक चला नहीं क्योंकि जो सोचने में कही भूल हुई मार्क्स की के वो ये हुई कि उसने यह नहीं समझाया की स्टेट को अगर कैपिटल का ओनर बना दें तो ये स्टेट भी तो लोगों के द्वारा ही बना हुआ है वो तो कोई मशीन नहीं है वो भी आदमी ही संचालित करता है अगर आदमी में पूंजी को लेकर कोई कमजोरी है तो कमजोरी स्टेट में भी होगी इसीलिए पूंजी साम्यवाद का जो प्रयोग है वो एक जगह पर आकर रुक गया। क्योंकि रूसी क्रांति के बाद इस क्रांति के पेट में से एक नया क्लास पैदा हो गया जिसे हम न्यू क्लास कहते हैं। जिसने सारे रिसोर्सेस अपने हाथ में इकट्ठा कर लिए। तो व्यक्ति के हाथ से कैपिटल निकल कर न्यू क्लास के हाथ में आकर एकत्रित हो गया। यह केपिटल लोगों तक नहीं पहुंचा।
गाँधीजी ने इसका एक जवाब ढूंढने की कोशिश की उन्होंने कहा कि यह पूंजी को विकेंद्रित कर देने से या पूंजी को कुछ लोगों के हाथ में दे देने से भी रास्ता नहीं निकलता। उन्होंने भी मार्क्स के विश्लेषण को पकड़ा और कहा कि उत्पादन के साधनों को हम जितना डिसेंट्रलाइज कर देंगे,जितना भी विकेंद्रित कर देंगे शोषण की गुंजाइश उतनी कम हो जाएगी। क्योंकि पूंजी जो है इसका नेचर है कि ये इकट्ठी होने लगती है। और जब इकट्ठे होने लगती है तो अपने साथ बहुत सारी बुराइयाँ लेकर आती है। इसी कारण बार बार ये आंकड़ा दिया जाता है कि दुनिया में 5% लोग हैं जिनके पास दुनिया की 80% पूँजी है। पूंजी का ये स्वभाव है इसे कैसे तोड़ा जाए तो गांधीजी ने कहा कि जो उत्पादन के साधन हैं उनको इतना विकेन्द्रित कर दो कि पूंजी के इक्कठा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। तो खादी, चरखा और ग्रामोद्योग ये सब जितनी चीजें हैं जिनको हम लोगो ने बहुत गलत तरीके से समझा। दरअसल में ये सारे उपकरण थे जिससे वे उत्पादन के साधनों को विकेन्द्रित करना चाहते थे।चरखा एक छोटा सा औजार है।
गाँधीजी ने कहा भी है की चरखा मेरी खोज नहीं है।मेरे होने से पहले से चरखा है और मेरे बाद भी चरखा रहेगा, मैंने तो सिर्फ इतना ही किया की चरखे में एक नया मूल्य भर दिया एक नया अर्थ भर दिया। वो अर्थ अगर आप निकाल दोगे तो कुछ भी नहीं बचेगा यह एक छोटी सी मशीन है। इसका मतलब सिर्फ ये था यह था कि ये पूंजी को विकेंद्रित करने का एक जरिया है। एक ऐसी छोटी सी मशीन जिससे उत्पादन हो सकता है और वो उत्पादन एक एक आदमी के हाथ में अगर बांट दिया जाय तो करोड़ों लोग चरखा चलाएंगे और पूंजीपति को इन करोड़ों लोगों को नियंत्रित करना संभव नहीं है। उसी तरह से खादी है जो उस चरखे में से निकला हुआ कपड़ा है तो अगर हर गांव हर आदमी अपनी जरूरत का कपड़ा बनाने लगे हैं और हर गांव ग्रामोद्योग के द्वारा अपना कपड़ा खुद तैयार करने लगे तो अपनी बेसिक जरूरत की जो चीजें हैं उन चीजों का उत्पादन गांव में होने लगे तो तुम आज जो एक बड़ा कॉर्पोरेट देखते हो और तक रोते हो कि इस कॉर्पोरेट के हाथ में इतनी ताकत चली गयी है कि वो हमारे दैनिक जीवन को भी नियंत्रित करने लगा है, उसको भी नियंत्रित करने लगा है इसलिए रोने की जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि तुम खुद अपनी जरूरत की चीजें पैदा नहीं करते हो। अगर अपनी जरूरत की चीजें विकेंद्रित तरीके से गांव गांव में पैदा होने लगें तो इसकी जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
गांधीजी एक नए तरह का पैटर्न हमारे सामने रखते हैं। वे कहते हैं कि अपने संसाधन हों, अपनी जरूरतें हों और अपनी तकनीक से वे जरूरतें पूरी हों। वे कहते हैं कि हमने खादी और ग्रामोद्योग का असल मतलब समझा ही नहीं। खादी का मतलब कपड़ा बनाना और ग्रामोद्योग का मतलब सामान पैदा करना नहीं है। ये एकदम नई अर्थव्यवस्था है जिसमें वे पूंजी को विकेन्द्रीकृत किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि उत्पादन का विकेंद्रीकरण करो। उत्पादन को जितना छोटा बना दोगे पूंजी उतनी बढ़ जाएगी। जब गांव गांव में काम होने लगेगा गांव गांव में उत्पादन होने लगेगा तो पूंजी अपने आप ही गांव गांव में पहुंचेगी। अगर खादी को तुम बाजार के शोरूम से लेकर आओगे तो एक नया अम्बानी या अडानी खड़ा हो जाएगा।
बहुत सी मार्क्सवादी व्यवस्थाएं आंतरिक दबाव में भी चरमरा गईं और मार्क्सवादी विचारधारा का ढलान शुरू हो गया। लेकिन महात्मा गांधी के जीवन और विचारों का आकर्षण आज भी बना हुआ है और समय के साथ और बड़ा होता जा रहा है।
1 मई मजदूर दिवस पर मार्क्स और गांधी दोनों को अपने अपने सन्दर्भों में अधिक गहराई से पढ़ने की जरूरत है।
मार्क्स और गांधी को नमन करते हुए विश्वभर के मजदूर, श्रमिक वर्ग को मई दिवस की शुभकामनाएं।
संदर्भ-गांधी जी के पूँजी पर विचार कुमार प्रशांत जी के भाषण से हैं
Gandhi Darshan - गांधी दर्शन से साभार
1 मई 2025