Gandhiji Nowakhali

जलते हुए नोआखाली को गांधीजी ने कैसे बचाया?

अगस्त 1946 से मार्च 1947 तक गांधी नोआखाली में रहे।

गांधी की अहिंसा की पहली परीक्षा नोआखाली पूर्वी बंगाल में( जो अब बांग्लादेश में है) में हुई। जिन्ना के 'डायरेक्ट एक्शन' प्लान को संयुक्त बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुसैन शहीद सोहरावर्दी ने अमली जामा पहनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुस्लिम बहुल इस जिले में हिंदुओं का व्यापक कत्लेआम हुआ। 
नोआखाली नरसंहार ने समूचे हिंदुस्तान को स्तब्ध कर दिया। हिंदू-मुस्लिम एकता के गांधी के प्रयासों को यह एक बहुत बड़ा धक्का था। गांधीजी के लिए परीक्षा की असली घड़ी आ गई थी।  उन्होंने तुरंत दिल्ली से नोआखाली जाने का निर्णय लिया। कई लोगों ने आशंका व्यक्त की कि हथियार बंद, उन्मादी गुंडों के सामने नोआखाली जाना बेकार है। गांधीजी ने इन चिंतित लोगों से कहा, 'मेरी अहिंसा लूले-लंगड़े की असहाय अहिंसा नहीं है। मेरी जीवंत अहिंसा की यह अग्निपरीक्षा है। अगर असफल हुआ तो मर जाऊंगा, लेकिन वापस नहीं लौटूंगा।'
 गांधीजी ने नोआखाली पहुंचकर  श्री निर्मल कुमार बसु, सरोजिनी नायडू, शुशीला नायर और श्री राममनोहर लोहिया के साथ पीड़ित गांवों का पैदल भ्रमण करना शुरू कर दिया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने चप्पल पहनना भी छोड़ दिया। उन्हें लगता था कि नोआखाली एक श्मशान भूमि है, जहां हजारों आदमियों की मजार बनी है। ऐसी मजार पर चप्पल पहनकर चलना उन मृत आत्माओं का अपमान करना है। वे जिस गांव में जाते वहां किसी मुसलमान के घर में ही ठहरते। गांव का दौरा करते तो मुस्लिम व्यक्तियों को साथ लेते और उनसे बेघर-बार हिंदुओं को सांत्वना देने और सहायता करने को कहते। उन्होंने गांव-गांव में हिंदू-मुस्लिम ग्राम रक्षा समितियां बनाईं। समितियां भी ऐसी जिनके हिंदू प्रतिनिधि का चुनाव मुसलमान करते और मुस्लिम प्रतिनिधि को हिंदू चुनते थे। इन्हीं प्रतिनिधियों पर अमन-चैन कायम रखने की जिम्मेदारी रहती थी। एक बार एक अंधे भिखारी ने गांधीजी के आश्रम जाकर चवन्नी भेंट की । गांधीजी ने चवन्नी को माथे से लगाकर कहा कि ये मेरे लिए चार लाख रुपये के बराबर हैं।
इन असैनिक समितियों का मुसलमानों के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. यहां भटियारपुर गांव का घटनाक्रम बहुत प्रासंगिक है. जहां एक मंदिर को तहस-नहस कर डाला गया था। गांधी के प्रभाव में मुस्लिम युवकों ने स्वयं उस मंदिर का पुनर्निर्माण किया और बापू ने अपने हाथों से वहां देव प्रतिमा स्थापित की। 

गांधीजी नोआखाली में सोनारमुई के जयग बाजार स्थित आश्रम में चार महीने रहे। जिसको फिर गांधी आश्रम कहा जाने लगा। ये गांधी आश्रम 1946 से पहले 'घोष विला' के नाम से जाना जाता था। ये सम्पत्ति हेमंत कुमार घोष की थी। नोआखाली में शांति स्थापना को लेकर गांधी जी प्रयासों से प्रभावित होकर हेमंत घोष  ने अपनी तमाम संपत्ति 2,671 एकड़ ज़मीन महात्मा गांधी के नाम कर दी। गांधी जी ने यहां अंबिका कलिंग चेरिटेबल ट्रस्ट बनाकर हिंसा प्रभावित गांवों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू करवाईं। 

5 जून 1947 को महात्मा गांधी ने चारू चौधरी के नाम एक मुख्तारनामा (पॉवर ऑफ़ अटार्नी) बनाकर सारी संपत्ति उनके नाम कर दी। चारू चौधरी एक समर्पित गांधीवादी थे। नोआखाली के दंगा पीड़ितों के लिए उन्होंने काफ़ी काम किया था यहां तक कि गांधी के शांति अभियान का सारा ज़िम्मा उन्हीं पर था।

बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान ने अंबिका कलिंग चेरिटेबल ट्रस्ट का नाम बदलकर 'गांधी आश्रम ट्रस्ट' कर दिया। 

नोआखाली में दंगे बहुत ही व्यापक तरीके से हुए। गांधीजी वहां भी अनशन पर बैठ गए।  गांधीजी की हालत को देखते हुए  नोआखाली के पुलिस अधीक्षक श्री अब्दुल्ला ने वादा किया ' महात्मा जी आपके रहते दंगे नहीं होंगे।' गांधीजी नेअब्दुल्ला से कहा, क्या मेरे न रहते दंगे फिर भड़कने लगेंगे? अगर ऐसा हुआ तो ये बूढ़ा  तुम्हारे दरवाजे पर मर जाएगा।'  बहुत सोचकर  पुलिस अदीक्षक अब्दुल्ला ने गांधी जी से कहा, ‘‘ ठीक है महात्मा जी  मेरा वादा है कि अब मेरे जीते जी दंगे नहीं होंगे। ’’ गांधी जी अब संतुष्ट थे। सभी दंगाइयों ने गांधीजी के चरणों में अपने हथियार डाल दिये और वादा किया कि वे अब जीवन में कभी हिंसा नहीं करेंगे।पांच महीने नोआखाली में रहने के बाद बिहार कांग्रेस अध्यक्ष सैयद महमूद ने गांधीजी को पत्र लिखा कि बापू बिहार जल रहा है। आप यहां आ जाये। पत्र प्राप्त होते ही गांधीजी बिहार के लिए रवाना हो गए।

Gandhi Darshan - गांधी दर्शन 

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